रेणु : एक दोबारा न लिखा जानेवाला सितारा

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— देवेंद्र मोहन —

न उन्नीस सौ अड़सठ। गर्मियों के दिन थे और चढ़ती जवानी में क्या गर्मी और क्या सर्दी! एक अजीब तरह का बांकपन होता है जिस्मो- जां में। अठारह साल की उम्र होते होते सब तरह के मौसमों की मार झेल चुका था- देश में विदेशों में। राजस्थानी रेगिस्तानी गर्मी और सर्दी, बिहार और उत्तर प्रदेश की चिलचिलाती धूप, महाराष्ट्र के तटीय इलाकों की धूप और फिर अपने शहर दिल्ली में मई-जून की तपती दोपहरी में एक दो मित्रों के साथ लू के थपेड़े खाते हुए साइकल की सवारी- यह सोच कर कि कनॉट प्लेस या चांदनी चौक पहुंचकर पांच पैसे में दो गिलास बर्फ का पानी। किसी वातानुकूलित सिनेमा हॉल में टिकट मिला तो तीन घंटा ठंडे ठंडे में। फिल्म खत्म होने पर तंबू कॉफी हाउस पहुंचेंगे, वहां बड़ा चटनी के बाद कोल्ड कॉफी, आइसक्रीम या जैली।

उस दिन पहाड़गंज के किसी थिएटर में ‘तीसरी कसम’ देखने को मिली। क्या गाने! क्या अभिनय! फिल्म समझ में आयी थी या नहीं, यह याद नहीं- पर क्या लाजवाब गाने थे! गजब की धुनें।

फिल्म देखने से पहले याद आया किसी पाकेटनुमा किताब में वह कहानी पढ़ी थी- मारे गए गुलफाम…

तो तीन चार मित्र जो साथ थे उन पर रौब गालिब करने की कोशिश की- “मुझे तो फिल्म की कहानी भी मालूम है… मैंने कहानी पहले ही पढ़ रखी है। मशहूर कथाकार रेणु जी ने लिखी है। ऐसी लाजवाब कहानी है जो किसी और ने नहीं लिखी होगी…”

दोस्त खामोश रहे सिवाय एक के, वह बोला : “ठीक है, तूने कहानी पढ़ रखी है, अब तड़ी मत मार। कहानी मत सुनाइयो। चुपचाप फिल्म देखते हैं… अब हॉल के अंदर चलो सब। कित्ती गर्मी पड़ रही है!”

सचमुच हॉल के बाहर लू के थपेड़े चल रहे थे। फिल्म देख कर बाहर निकले तो चारों खामोश थे। कनॉट प्लेस का आधा रास्ता तय हुआ तो एक की आवाज निकली : “यार फिल्म का अंत समझ में नहीं आया…”

बाकी दो ने भी लगभग यही राय दी। मैंने कहा मेरी तो समझ में आई फिल्म… तुम लोग साहित्य वाहित्य पढ़ते नहीं हो… यह हिंदुस्तान की सबसे बेहतरीन कहानी है…

किसी ने मुझसे बहस नहीं की। वे जानते थे उनमें मैं अकेला वाहिद शख्स हूं जो किताबें खरीदता रहता हूं और पढ़ने का ढोंग/उपक्रम वगैरह करता भी रहता हूं। ऊपर से थोड़ा थोड़ा पत्रिकाओं में छपता भी हूं- कभी-कभी।

तंबू कॉफी हाउस में कोल्ड कॉफी सुड़कते हुए मैंने ऐलान भी कर दिया : “यह हिंदुस्तान की सबसे बेहतरीन फिल्म है- अब तक। और इसके बाद मैं और कोई बहस नहीं सुनना चाहता।”

मेरी दादागिरी की वजहें दो थीं : फिल्म के टिकट मैंने खरीदे थे। कॉफी हाउस का खर्च भी मैंने उठाया था। इसके अलावा सबसे ज्यादा सड़ी हुई जुबान भी मेरी थी… कुछ भी कहीं भी कभी भी बोल दिया करता था। सन अड़सठ की सड़ी गर्मियों में ही कलकत्ता चला गया। यूं ही।

वहां रहने, खाने-पीने का उत्तम प्रबंध था अपने आंटी-अंकल के यहां। खा-पीकर भरी दोपहर में कोलकाता घूमने का एक अलग ही मजा था उन दिनों- अभी नक्सलबाड़ी आंदोलन की ऐसी कोई प्रभावकारी शुरुआत नहीं हुई थी कलकत्ता या बंगाल में। लोग स्वच्छंदता से घूम-फिर सकते थे, बिना किसी खतरे या भय के।

वहीं पास-पड़ोस में तीन फिल्म स्टूडियो थे जहां फिल्मों की शूटिंग चलती रहती थी। पड़ोस के कुछ लड़कों से जान-पहचान हो गयी थी। उनमें से दो-एक जनों को फिल्मी गतिविधियों की जानकारी रहती थी। पता चला वहां हिंदी फिल्म ‘राहगीर’ की शूटिंग चल रही है।

इच्छा हुई फिल्म की शूटिंग देखी जाए। जुगत भिड़ाई और एक्स्ट्रा सप्लायर के माध्यम से न्यू थियेटर्स वन स्टूडियो में दाखिला मिल गया।

वहीं पता चला फणीश्वरनाथ रेणु भी वहीं स्टूडियो के किसी कमरे में बैठे ‘राहगीर’ के दृश्य लिख रहे हैं। कमरे का पता किया और वहां पहुंचे। दरवाजे के बाहर एक सज्जन (बाद में पता चला उनका नाम गिरीश रंजन था और रेणु जी के खास ‘चहेते’ साहब) चहलकदमी कर रहे थे।

“कहिए?” उन्होंने सवाल किया।

“रेणु जी से मिलने आया हूं। जरा मिलने दीजिए।” उन्होंने सिर से पांव तक गौर से देखा।

“क्या काम है?”

“मिलना है जी! उनसे बात करनी है।”

“क्या बात करनी है?”

“उनकी कहानी के बारे में…”

“कौन सी कहानी? क्या बात करोगे?”

“बस, बात करनी है।”

अंदर से आवाज आयी : “कौन है, भई गिरीश?” अगले ही क्षण दरवाजा खुला और रेणु जी बाहर झांकते हुए नजर आए। मैंने उन्हें पहचान लिया। उनकी तस्वीरें पत्र-पत्रिकाओं में देख रखी थीं। हाथ में सिगरेट थी। एक कश लेकर बोले, “अंदर आ जाइए…”

हम अंदर दाखिल हुए। कमरा ठंडा था, वातानुकूलित। जिस्म ठंडा हुआ। बिना पूछे ही मेज के सामनेवाली कुर्सी पर विराजमान हो गया।

“क्या नाम है?” मुस्कुराते हुए पूछा। क्या करते हैं?”

“पढ़ता हूं जी, दिल्ली विश्वविद्यालय में”, मैंने जवाब दिया।

“कैसे आना हुआ? कलकत्ता में क्या कर रहे हैं? “जी सर, यहां घूमने आया हूं। कुछ पढ़ने-लिखने का शौक है… पता चला आप यहां हैं…”

“बहुत बढ़िया… आपने मेरा क्या क्या पढ़ा है?” “एक किताब की कहानियां पढ़ी हैं…”

“कैसी लगीं कहानियां?”

“मारे गए गुलफाम पढ़ी है। कई बार पढ़ी है। ‘तीसरी कसम’ भी देखी है।”

“मारे गए गुलफाम के बारे में क्या सोचते हैं?” “बहुत जबरदस्त कहानी लिख डाली है आपने…” “अच्छा?

शुक्रिया…सिगरेट पीते हैं…?”

“जी, पीता हूं …”

“कितनी?”

“दिन भर में पांच-सात सिगरेटें पी लेता हूं…” “अच्छा… वैसे यह उम्र नहीं है सिगरेट पीने की…”

फिर उन्होंने गोल्ड फ्लेक का पैकेट खोल कर एक सिगरेट मुझे पेश कर दी।

“मारे गए गुलफाम में खास बात क्या लगी?” “मुझे लगता है उससे बेहतरीन कहानी आप दोबारा नहीं लिख पाएंगे…”

“ऐसा?” रेणु जी हंसने लगे। “लेकिन, ऐसा क्यों?” “मैंने कहीं पढ़ा है अच्छी कहानियां बार-बार नहीं लिखी जाती…”

“तो आपको लगता है कि मैं ‘मारे गए गुलफाम’ से अच्छी कहानी दोबारा नहीं लिख पाऊंगा?”

“जी, बिल्कुल,” मैंने जवाब दिया।

“लेकिन मैं तो उससे भी अच्छी कहानी लिखना चाहूंगा,” रेणु जी ने सहज भाव से मुस्कुराते हुए कहा।

तभी गिरीश रंजन भड़क गए। “अब आप यहां से चले। आप काम में खलल डाल रहे हैं। अभी छोटी उम्र के हैं। कम बोला कीजिए…”

“अरे नहीं, गिरीश जी। रेणु जी ने बीच-बचाव किया।” यह काफी उत्साहित युवा हैं… क्या पता इन्हें ऐसा ही लग रहा हो…”

लेकिन गिरीश रंजन के चेहरे की तमतमाहट देखकर मैं कुछ दुबक सा गया था। मैंने कुर्सी से उठकर दरवाजे का रुख कर लिया था और लगभग बाहर बरामदे पर आ चुका था।

बाहर चिलचिलाती धूप में आकर मैं शायद सोच रहा था कि कहीं महीने कोई गलत बात नहीं कर दी थी?

बाद में सड़क पर मुझे रेणु जी के शब्द याद आए : “अच्छा लगा देवेंद्र जी, आपसे बात करके। अच्छा बोलते हैं आप…स्पष्ट… अवसर लगा तो फिर मिलेंगे कहीं …”

लेकिन जब वे मुझसे यह कह रहे थे, मैं सहमा हुआ था। उनके इन शब्दों की गूंज बाद में महसूस की। पछतावा हुआ, मैं उन्हें धन्यवाद तक न कह सका।

स्टूडियो के बाहर कुछ लड़के मुझसे पूछ रहे थे कौन सी फिल्म की शूटिंग देखी? उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन कैसे लग रहे थे?

मैं उन्हें बताना भूल गया था कि शूटिंग बिस्वाजीत के साथ हो रही थी, उत्तम और सुचित्रा के साथ नहीं। और मैं अभी-अभी जिससे मिलकर बाहर निकला था वह किसी और ही तरह का सितारा था…

बहुत बड़ा सितारा जिससे मैं फिर कभी मिल नहीं पाया…और जिसे फिर कभी लिखा नहीं गया!

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