किसान आंदोलन और लोकतंत्र की चुनौतियाँ

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— राकेश कुमार सिन्हा —

किसी भी आजाद देश की सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कानून, नीतियाँ और कार्यक्रम अपने देश की जनता के हितों के अनुरूप बनाएगी। यह देश की आम जनता का हक भी है और उसकी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी भी। जनता अपनी इस जिम्मेदारी को व्यवहार में निभा सके इसके लिए जरूरी है कि देश के कानून बनाने और सरकार की नीतियाँ और कार्यक्रम तय करने में जनता की भी सक्रिय और निर्णायक भूमिका हो। लेकिन हमने यूरोपीय लोकतंत्र के जिस मॉडल को अपनाया है उसमें जनता की भूमिका धीरे-धीरे पाँच साल में एक बार अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए वोट डालने तक सीमित होकर रह गयी है। यहाँ सरकार की नीतियाँ और कार्यक्रम उस वर्ग के पक्ष में होते हैं जो सरकारी पार्टी को राजनीति और चुनाव के लिए पूँजी उपलब्ध कराता है। इस तरह के योरोपीय लोकतंत्र को महात्मा गांधी ने नरम नाजीवाद और फासीवाद कहा था। या फिर साम्राज्यवाद की नाजी और फासीवादी प्रवृत्ति को ढकने वाला मुखौटा। (हरिजन 18-5-1940)

राजनीतिक दलों के लिए भी मतदाताओं के रूप में आम लोगों का महत्त्व सिर्फ इतना ही है कि वे ज्यादा से ज्यादा संख्या में उनके उम्मीदवारों को चुनकर उन्हें बहुमत दिलाने और उनकी सरकार बनवाने का जरिया होते हैं। किसी चुनाव में मतदाताओं का रुझान किस दल की ओर रहेगा यह उस समय व्याप्त राजनीतिक माहौल पर निर्भर करता है। चुनाव के समय का राजनीतिक माहौल बनाने में राजनेताओं के अलावा मीडिया की एक बड़ी भूमिका रहती है। बुद्धिजीवी भी अपना योगदान देते हैं और सरकारी तंत्र का अपना महत्त्व होता है क्योंकि चुनावी प्रक्रिया का संचालन उनके हाथ में होता है।

इन सभी की डोर अंततः उसी वर्ग के हाथ में होती है जिनके हाथ में देश की अर्थव्यवस्था की भी कमान होती है। चुनावी माहौल बनाने के लिए जनता का ध्यान उसके अपने मुद्दों, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, मकान, महँगाई आदि से हटा कर ऐसे भावनात्मक मुद्दों की ओर खींचा जाता है जिनका समाज के स्वस्थ विकास से कोई लेना-देना नहीं है।

इसके साथ ही कुछ खोखले नारे दिये जाते हैं और साथ-साथ जातीय समीकरण साधे जाते और साम्प्रदायिकता तथा धनबल का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है। इस सब के बावजूद अगर विपक्षी दलों की सरकार किसी भी राज्य में बन जाती है तो उसे गिराने के लिए खरीद- फरोख्त का खुला खेल भी होता है। और इस तरह के हथकंडों से बनी सरकार जब जन- विरोधी कानून और नीतियाँ बनाती है तो उनके विरोध को दबाने के लिए लोकतांत्रिक समर्थन से मिले नैतिक अधिकार का दावा किया जाता है।

जनता के वयस्क मताधिकार के माध्यम से भारी बहुमत से चुनी गयी सरकार भी जनता के व्यापक हितों के विरुद्ध नीतियाँ और कानून बनाती है यही भारत की जनता के सामने प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती है।

भारत की जनता का 70 फीसद हिस्सा अभी भी गांवों में ही रहता है और शहरी आबादी का भी लगभग आधा हिस्सा गांवों से जुड़ा हुआ है और पिछले कुछ दशकों में रोजगार की तलाश में शहर आकर विस्थापितों जैसी जिंदगी बसर कर रहा है। शहरी क्षेत्र में ये लोग छोटे-छोटे उद्योगों में, भवन निर्माण के काम में या फिर घरेलू नौकर की तरह काम करते हैं। देश की आबादी का शायद 90 फीसद तक हिस्सा इस चुनी हुई सरकार की नीतियों से त्रस्त है। पहले तो नोटबंदी ने कृषि और छोटे उद्योगों की कमर तोड़ दी और छोटे कारखानों में काम करनेवाले लाखों मजदूरों को बेरोजगार कर दिया। फिर जीएसटी की वजह से छोटे व्यापारियों और दुकानदारों का धंधा चौपट हो रहा है। बढ़ती ई-ट्रेडिंग से पारंपरिक बाजार बैठ रहे हैं। सरकारी नीतियों के कारण युवाओं को नयी नौकरियां नहीं मिल रही हैं, बल्कि बहुत-से लोगों की नौकरियां खत्म हो रही हैं। इस सब के बावजूद इस सरकार के विरूद्ध इन मुद्दों के आधार पर कोई मजबूत आंदोलन नहीं बन पाया है। जो छिटपुट आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों में हो भी रहे हैं उनको सरकारें या तो पुलिसिया कार्रवाई से दबा देती हैं या फिर पूरी तरह अनदेखा कर देती हैं।

यही वजह है कि इन आंदोलनों से सरकार को कोई खतरा अपने अस्तित्व पर नहीं लगता। एक तो अभी इस सरकार का कोई विश्वसनीय विकल्प नहीं नजर आता और उसे यह भी विश्वास है कि देश का पूरा धनबल उसके हाथ में है जिसके बिना कोई सरकार बन नहीं सकती और अगर बन भी गयी तो धनबल के आगे टिक नहीं सकती। इसके साथ ही वर्तमान सत्ताधारी दल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तथा एक फर्जी राष्ट्रवाद को अपने चुनावी हथियार के रूप में अधिक तेज धार देने में भी जुटा हुआ है।

समय-समय पर कुछ नागरिक संगठन सरकार की मनमानियों पर विरोध दर्ज कराते हैं लेकिन ये नागरिक संगठन भी समाज के संभ्रांत वर्ग के लोगों द्वारा संचालित हैं जिनका रास्ता मुख्यतः गैर-राजनीतिक है और जिनका कोई राजनीतिक या सामाजिक आधार नहीं है। इनके कार्यक्रमों से आम जनता जुड़ नहीं पाती है और सरकार भी इन्हें कानूनी दाँव-पेचों में घुमाती रहती है, कई बार फँसाती भी है। कुछ छोटी या बड़ी लड़ाई ये नागरिक संगठन कई बार जीत भी जाते हैं लेकिन उसका प्रभाव भी समाज के सीमित हिस्से पर ही पड़ता है और सत्ता की सेहत पर उसका कोई असर नहीं पड़ता।


ऐसी परिस्थितियों में अपनी अपराजेयता के अहसास से अति आत्मविश्वास से भरी सरकार ने कोरोना काल का फायदा उठाते हुए पहले अध्यादेश के रूप में लाये गये तीन कृषि कानूनों को संवैधानिक जामा पहनाने के लिए लोकसभा से और फिर बिना मत-विभाजन कराये राज्यसभा से पारित भी करा लिया। किसानों ने इन तीन कानूनों को कृषि को कॉरपोरेट के कब्जे में देनेवाला पहला कदम और अपने अस्तित्व पर हमला बताते हुए इसका विरोध किया। कई वर्षों से न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर हो रहे किसानों के विरोध को व्यापक आंदोलन का रूप नहीं मिल पाया था और सरकार उनको अनदेखा कर रही थी। तीन नये कृषि कानूनों के विरोध को भी उसी तरह अनदेखा करके खत्म करा देने का मन सरकार ने शुरू से बना लिया था। सरकार को अपनी सफलता का इसलिए भी भरोसा था क्योंकि किसानों का कोई अखिल भारतीय स्तर का मजबूत संगठन नहीं था। कुछ राजनीतिक दलों से जुड़े हुए किसान संगठनों के अलावा किसानों के संगठन न सिर्फ क्षेत्रीय आधार पर बँटे हुए थे बल्कि हर क्षेत्र में उनके कई अलग-अलग गुट बने हुए थे। किसानों की एक बड़ी संगठित पहल की संभावना उन्हें नहीं नजर आती थी।

लेकिन इस बार परिस्थितियाँ कुछ अलग थीं। राजनीति और रणनीति की गहरी समझ रखनेवाले कुछ किसान नेताओं ने कई साल पहले ही किसानों की समस्याओं को मजबूती से उठाने के लिए देशभर के किसान संगठनों के बीच समन्वय की  कोशिश शुरू कर दी थी और उसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली थी। नये कृषि कानूनों के खतरों को भाँपते हुए सबसे पहले के पंजाब के विभिन्न किसान संगठन समन्वय और एकता की इस मुहिम से जुड़े और पंजाब में इन काले कानूनों का मुखर, कुछ हद तक उग्र, विरोध शुरू हुआ। इस आंदोलन की मजबूती को देखते हुए पहले हरियाणा और फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान एक मंच पर आए और संयुक्त किसान मोर्चा का मूर्त रूप सामने आया।

ये वो इलाके हैं जहाँ अँग्रेजों ने कृषि राजस्व की ऐसी व्यवस्था लागू की थी जिसके तहत खेत तो खेती करनेवाले परिवारों के पास थे और लगान की सामूहिक व्यवस्था थी। इस इलाके के किसान खुशहाल भी थे और यहाँ सामाजिक सामूहिकता की भावना भी रही है। विशेषकर पंजाब के गुरुद्वारों के माध्यम से सामूहिकता की भावना बहुत मजबूत थी और किसान आंदोलन में एकजुटता का आधार बनी है। इसी एकजुटता के दम पर किसानों ने 26 नवंबर 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर धरना देने का कार्यक्रम शुरू किया और इसे अभी तक न सिर्फ चलाये रखा है बल्कि अनिश्चित काल तक चला सकने का हौसला भी बाँधा है। धीरे-धीरे इस आंदोलन से महाराष्ट्र, कर्नाटक और अन्य दक्षिणी राज्यों के किसान भी जुड़ने लगे। ये वो इलाके हैं जहाँ पहले रैयतवारी व्यवस्था लागू थी। यहाँ भी जमीन खेती करनेवालों के हाथ में थी लेकिन इसमें सामूहिकता नहीं है।

किसान आंदोलन के लिए सबसे कमजोर इलाके वो हैं जहाँ पहले जमींदारी व्यवस्था लागू थी। इनमें से बंगाल में भूमि का बँटवारा हो गया है लेकिन क्षेत्रफल के मुकाबले जनसंख्या बहुत अधिक है। इस क्षेत्र के किसानों का संगठन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा हुआ है और संयुक्त किसान मोर्चा का हिस्सा है। जय किसान आंदोलन ने भी यहाँ एक शुरुआत की है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ खेती की जमीन का एक बड़ा हिस्सा समाज के उस वर्ग के हाथ में है जो खुद खेती नहीं करता। खासकर बिहार के बारे में कहा जाता है कि यहाँ किसान तो लगभग नहीं के बराबर हैं, या तो जमींदार हैं या फिर कृषि मजदूर। इन इलाकों में कोई मजबूत किसान संगठन नहीं बन पाये हैं, राजनीतिक दलों के भी नहीं। इसीलिए इन क्षेत्रों में किसान आंदोलन की ज्यादा पैठ भी नहीं बन पायी है। लेकिन पूरे उत्तर प्रदेश में एक रणनीति के तहत एक अच्छी पहल शुरू हुई है और बिहार के बारे में भी जल्दी इसी तरह सोचना होगा।

(जारी)

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