— राममनोहर लोहिया —
जाति प्रथा ने कमाल किया है इसमें कोई शक नहीं। कमाल अच्छा नहीं, बुरा कमाल। देश के प्राण को एक मानी में खतरा करने का काम किया है, जितना संसार में और कहीं नहीं हुआ। इसका नतीजा है कि एक तरफ से हम बँधे हुए हैं, जल्दी बदले नहीं, जो अच्छी चीज है, हवा के हर झोंके के साथ बह नहीं जाया करते। हमारी अपनी भाषा, हमारा अपना संगीत, हमारे अपने सोचने के तरीके, हमारा अपना दर्शन, उसी की नींव के ऊपर हम आगे बढ़ने की कोशिश करें तो यह बहुत अच्छा।
लेकिन उसके साथ-साथ अगर हमेशा कीड़े, चींटी की तरह नन्हीं दूब की तरह झुक जाएँ और आत्मसमर्पण कर दें, मर्यादा न खींचें तो फिर वह उससे भी ज्यादा भयंकर होता है। इससे तो अच्छा है कि हम खतम हो जाएँ, रहें नहीं। आत्मसमर्पण की जो क्षति होती है, उसको खत्म करना हम सीखें और वह तभी होगा जब हिंदू धर्म में आप कुछ तेजस्विता लाने की कोशिश करोगे जो इस समय नहीं है। धर्म की तेजस्विता का कहीं यह मतलब मत समझना कि ईसाई धर्म के मुकाबले में, या बौद्ध धर्म के मुकाबले में, या इसलाम धर्म के मुकाबले में, बल्कि सच पूछो तो इन धर्मों के प्रति आदर रख कर के ही, उनको अपने से बुरा न कह कर ही आप तेजस्विता हासिल कर सकते हो। और वह तेजस्विता कौन-सी? मर्यादा के मुताबिक परिवर्तन करना, अपनी जनता को प्राणवान बनाना। यह जाति प्रथा, जिसने हमको दुख, अत्याचार, बेशर्मी, अपमान को सहने के लिए मजबूर किया है, तैयार किया है, उस जाति प्रथा को खतम करना, उस ब्रह्मज्ञान को पाने के सिवा मुझे और कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। एक तरफ तो अद्वैतवाद चला रहे हैं कि सब संसार एक है, सब समान हैं, पेड़ समान, गंध समान, आदमी समान, देवता समान और दूसरी तरफ अंदर ही ब्राह्मण, बनिया, चमार, भंगी, कहार, कापू, माला, मादीगा, न जाने कितने तरह के झगड़े खड़े करके, बटँवारा करके अपने देश को हम छिन्न-भिन्न कर रहे हैं।
आखिर में मुझे केवल एक बात कहनी है और वह हिंदुस्तानी, हिंदी भाषा के संबंध में। तेजस्विता लाने का एक सबसे बड़ा तरीका यह है कि किसी सामंती भाषा के चक्कर में मत फँसो। मैं अंग्रेजी का घोर शत्रु हो गया हूँ। उसे खतम करना चाहिए। अंग्रेजी भाषा नहीं। हमारे यहाँ अदालत, कचहरी, बही-खाता, पढ़ाई, लिखाई, सरकारी दफ्तरों में अंग्रेजी का जो प्रभाव हो गया है उसको हमेशा के लिए खतम करना चाहिए। उसके बिना हम प्राणवान हो ही नहीं सकते।
वैसे, आर्यसमाज ने अपने जमाने में बहुत अच्छे-अच्छे काम किये और जब किसी के यहाँ अतिथि बन कर जाओ तो बुरे का तो जिक्र होता नहीं, अच्छे का ही जिक्र होता है। मेरे जैसा आदमी आर्यसमाज से यह उम्मीद कर सकता है कि अँग्रेजी जबान को हिंदुस्तान से हटाने के लिए आप पूरा परिश्रम करो। हर तरह से परिश्रम करो। शांतिपूर्ण परिश्रम। यह बात सही है कि अंग्रेजी जबान को हटाने का काम आप हिंदी भाषा के प्रचार के साथ मत जोड़ देना। दोनों फरक है। मैं तो आप लोगों को एक सलाह दूँगा, और ये जो हिंदी प्रचार करते हैं उनको भी सलाह दूँगा कि हिंदी प्रचार बंद करो। यह अच्छा नहीं है, बहुत ज्यादा नुकसान हिंदी का किया है। हिंदी का जो रचनात्मक काम है उसको करो। जो लोग हिंदी नहीं जानते, उनको या उनके बच्चों को हिंदी पढ़ाने के लिए स्कूल चलाओ। लेकिन हिंदी का प्रचार कि तमिल को, तेलुगू को, बंगाली को हिंदी जाननी चाहिए और जगह-जगह लोग लेक्चर दे देते हैं कि हिंदी हिंदुस्तान की भाषा बननी चाहिए, यह सब बंद हो जाना चाहिए। इससे बहुत नुकसान हो रहा है, क्योंकि पैसा और इज्जत और शान आज अंग्रेजी में है। एक तरफ दिल्ली की सरकार और दूसरी सरकारें हिंदी का प्रचार करने के लिए करोड़ों रुपया खर्च करती हैं, लेकिन वह करोड़ रुपये तो एक धेले के बराबर है। उस प्रचार का कोई मतलब ही नहीं, क्योंकि नौकरी किसको बढ़िया मिलेगी? आप अपने बही-खातों को भी किस भाषा में अब रखने लग गये हो? यदि आपका व्यापार थोड़ा भी निकल चला है, बढ़ चला है तो अपने बही-खाते अब हिंदी में नहीं रखते हो। जो बहुत बड़े-बड़े कारखाने हैं उनके बही-खाते अँग्रेजी में रखे जाने लगे हैं। और सेठ लोगों के जो सबसे बड़े सेठ हैं, मैंने सुना है कि सलाह दी है कि अब अँग्रेजी में रखो और गला लंगोट लटकाओ। शान अंग्रेजी में, पैसा अँग्रेजी में, सब काम अँग्रेजी में, तो फिर दो-चार करोड़ रुपये खरच करके हिंदी का प्रचार करना तो मखौल उड़ाना है। वह प्रचार बंद हो जाना चाहिए। उससे तो बल्कि लोगों को एक झल्लाहट होती है। अगर मैं तेलुगू हूँ या तमिल हूँ, तो मुझे झल्लाहट होगी, क्योंकि किसी के बेटे-बेटी की उन्नति का सिलसिला, अँग्रेजी के द्वारा होगा तो आखिर अपने बच्चों को अँग्रेजी ही सिखाएगा और फिर, उसके साथ-साथ जहाँ-तहाँ, कुछ जगहों पर वह हिंदी को और अंग्रेजी को साथ-साथ देख लेगा जैसे डाकखाने में, तो उसका मन तिलमिला उठेगा। जिस तरह से उसने अंग्रेजी को साम्राज्य-शाही की भाषा 100-125 बरस तक समझा था, उसी तरह से वह हिंदी को भी साम्राज्यशाही की भाषा समझने लग जाता है। इसलिए हिंदी वालों को तो कसम खानी चाहिए कि हम अँग्रेजी को हरगिज हिंदी की बगल में बैठने नहीं देंगे। दस-पाँच बरस तक हिंदी न रहे तमिलनाडु में, आंध्र देश में और बंगाल देश में तो अच्छा। धीरे-धीरे हिंदी की तरक्की करने का यह तरीका तो बड़ा जहरीला तरीका है। हिंदी को अभी बंद रखो। हिंदी तो तब प्रतिष्ठित होगी जब अँग्रेजी हिंदुस्तान के हमेशा के लिए खतम हो जाएगी। हम अँग्रेजी के बगल में हिंदी को नहीं बैठा सकते। तब जाकर कहीं आप अपने देश को बढ़ा सकते हो। और अभी कोई तेलुगू, तमिल, बंगाली कहता है कि नहीं, हम अपना सब कामकाज बंगाली में करेंगे तो आप कहो कि भई खुशी से आप बंगाली में करो, आप तेलुगू में करो, आप तमिल में करो, हमको हिंदी की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि यह तो बिलकुल तय बात है कि दस बीस बरस तक ये बंगाली, मद्रासी तेलुगू तमिल काम करने लगें अपने भाषाओं में तो फिर खुद अपनी इच्छा से आएँगे और कहेंगे कि मेहरबानी करके अब हिंदुस्तानी को सारे हिंदुस्तान की भाषा बना कर चलाओ।
मैंने आपके सामने कुछ थोड़े बहुत विचार रखे। अंत में खाली यह याद रखना कि एक कोना है। सच हमेशा किसी एक कोने, किसी एक दृष्टि से देखो। अब तक सूरज शायद काहिरा में और फारस देश में कुछ थोड़ा सा ज्यादा तेज हो गया होगा, हमारे यहाँ अभी तेज हो रहा है। तो कोना है, एक दृष्टि है, लेकिन कोशिश यह करनी चाहिए कि हमारी दृष्टि जितनी ज्यादा सम्यक और संपूर्ण हो सके, उतना बनाया जाए।