— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
डॉ. मस्तराम कपूर, दिल्ली विधानसभा के सचिवालय में पी.आर.ओ. के पद पर कार्यरत थे। मैं उस समय मुख्य सचेतक था, दिल्ली सरकार की ओर से एक पत्रिका ‘दिल्ली’ के नाम से प्रकाशित होती थी। उसमें कपूर साहब का एक लेख डॉ. लोहिया पर प्रकाशित हुआ। उसको पढ़कर मेरा गरूर जाग उठा कि दिल्ली में यह कौन व्यक्ति है, जिसे मैं नहीं जानता। पता लगाने पर मालूम हुआ कि ये हमारे ही सचिवालय में पी.आर.ओ. हैं। मैंने इंटरकॉम से संपर्क साधा तथा कहा कि मैं आपके पास आ रहा हूँ, उन्होंने कहा, नहीं, मैं ही आपके दफ्तर आ रहा हूँ। बातचीत करने पर पता चला कि कपूर साहब तो लोहिया के दीवाने हैं, परंतु उनका, पार्टी या किसी नेता से कोई संपर्क नहीं था।
काल के क्रूर पंजे ने 14 अगस्त 2000 को हरिदेव जी को हमसे छीन लिया। डॉ. हरिदेव जी की असामयिक मृत्यु के बाद डॉ. मस्तराम कपूर डॉ. लोहिया का समस्त साहित्य हरिदेव जी के घर से ले आए।
डॉ. हरिदेव शर्मा जी से कपूर साहब का परिचय मैंने करवाया, संयोग से दोनों ही हिमाचली थे। डॉ. हरिदेव जी अनौपचारिक रूप से पंजाबी में गप-शप करते थे।
मधु जी (मधु लिमये) को एक सक्षम हिंदी टाइपिस्ट की बेहद ज़रूरत थी। मैंने कपूर साहब से कहा कि किसी हिंदी टाइपिस्ट का इंतज़ाम करना है, उन्होंने कहा कि सचिवालय में एक बहुत ही एक्सपर्ट टाइपिस्ट है, वह पार्टटाइम भी काम करता है, मैं कल बात करके आपको बतलाऊंगा। अगले दिन उन्होंने बताया कि आज शाम को आप उसे, मधु जी के पास ले जाना, मैंने कहा कि कपूर साहब आपको भी चलना है, मधु जी से भेंट करवाऊंगा। शाम को मैं, कपूर साहब, टाइपिस्ट तीनों मधु जी के पंडारा रोड के घर पहुँच गए। मधु जी ने तभी कुछ टाइप करने के लिए दिया और खुश होकर कहा कि आज से ही तुम्हें कार्य करना है।
कपूर साहब के साथ मधु जी की ऐसी ताल बैठी कि कपूर साहब मधु जी के होकर रह गए।
मधु जी की किताबों, लेखों में कपूर साहब, पूरी शिद्दत के साथ कार्य करने लगे। ऐसे संबंध बने कि मधु जी कई बार आग्रह करके हरिदेव जी, डॉ. मस्तराम कपूर, उनकी पत्नियों को हुक्म देकर किसी दक्षिण भारतीय रेस्टोरेंट में ले जाकर जलपान करवाते थे।
डॉ. मस्तराम कपूर जो अपने आप में एक बड़े साहित्यकार थे, उनकी अनेक पुस्तकें बाल साहित्य, कविता, कहानी, उपन्यास के रूप में छप चुकी थीं, हिंदी-अंग्रेज़ी भाषा में उनको महारथ हासिल थी। मिजाज और रहन-सहन में वो बेहद सादगी पसंद तथा बाहरी दिखावे से परहेज रखनेवाले मृदुभाषी इंसान थे। दिल्ली सरकार में एक गजेटेड आफिसर के रूप में उनको लक्ष्मीनगर, दक्षिण दिल्ली में एक बड़ा सरकारी घर मिला हुआ था। उनके रिटायरमेंट के दो साल बचे थे, एक दिन उन्होंने मुझे सूचना दी कि मैंने डी.डी.ए. से एक क्वार्टर ख़रीद लिया है। मैंने उनसे जब पूछा कि किस जगह, तो उन्होंने बतलाया त्रिलोकपुरी डी.डी. ए. स्कीम में। डी.डी.ए.को इस स्कीम में कोई खरीदार नहीं आ रहा था क्योंकि एक तो वह यमुनापार की (झुग्गी झोंपड़ी) पुनर्वास बस्ती के बीच थी, दूसरे वहाँ जाने के लिए कई घंटों में, दो-तीन बसें बदलकर पहुँचा जा सकता था। डी.डी.ए. ने एक इश्तिहार निकाला, कि पैसा जमा करवाओ हाथ के हाथ चाभी ले जाओ। कपूर साहब ने बिना यह पता लगाए कि वह कहाँ पर है अपने रिटायरमेंट के फंड से शायद 25 हज़ार रुपये डी.डी.ए. में जमा करवाए और चाभी लेकर आए। कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि राजकुमार जी, मैं सरकारी घर छोड़कर त्रिलोकपुरी जाकर रहने वाला हूँ। मैंने कहा कि अभी आपकी दो साल की सर्विस है, उसके बाद भी छह माह तक आप उसमें रह सकते है, जहाँ आप जा रहे हैं वहाँ कोई सुविधा नहीं है, क्वार्टर भी खाली पड़े हैं। परंतु कपूर साहब सरकारी बड़े मकान को छोड़कर अपने घर में रहने चले आए।
जमना नदी पर पुल बनने तथा सोसायटी के हज़ारों की तादाद में फ्लैट बनने तथा त्रिलोकपुरी स्कीम की जगह मयूर विहार नामकरण होने, मैट्रो के पहुँचने के कारण अब वह एक संभ्रांत इलाका बन गया है।
हरिदेव जी के घर से लोहिया साहित्य को लाकर कपूर साहब ने अपने घर के एक छोटे कमरे में अपने आपको कै़द कर खपा दिया, सारे साहित्य को पढ़कर विषयानुसार वर्गीकरण, उनके शीर्षक तथा संपादकीय टिप्पणी के साथ डॉ. लोहिया के अनेकों अंग्रेज़ी में लिखित लेखों, पुस्तिकाओं का हिंदी में अनुवाद कर, विषय के जानकारों से सलाह-मशवरा कर नौ भागों में हिंदी तथा अंग्रेज़ी में राममनोहर लोहिया रचनावली का निर्माण कर छपवाने का कार्य कर दिया।
कपूर साहब को समाजवादी साहित्य के प्रचार-प्रसार की बेहद लगन लगी रहती थी। इसके लिए उन्होंने ‘समाजवादी साहित्य न्यास ट्रस्ट’ बनाया जिसका अध्यक्ष मरहूम कमल मोरारका तथा सचिव मुझे, कोषाध्यक्ष रविन्द्र मनचंदा, प्रो. आनन्द कुमार, मदनलाल हिंद, डॉ. हरीश खन्ना इत्यादि ट्रस्टी बनाए गए।
मुझे ऐसा लगता है कि बदरी विशाल पित्ती जी, डॉ. हरिदेव शर्मा तथा डॉ. मस्तराम कपूर की लोहिया के प्रति जो दीवानगी थी, उस गुरु भक्ति को चुकाने का काम इन तीनों ने हर प्रकार की दुश्वारियों को झेलते हुए निभाया।
कई बार मैं मधु जी से मज़ाक में कहता था कि आप मुझे नंबर दो या नहीं, परंतु इन दोनों हीरों को मैंने ही आपके पास पहुँचाया है।