— नंद भारद्वाज —
स्वदेश लौटने के बाद मोहनदास गांधी ने अनुभव किया कि बैरिस्टर कहलाना जितना आसान है, हिन्दुस्तान में बैरिस्टरी करना उतना ही मुश्किल। फिर भी अपनी वकालत शुरू करते हुए उन्होंने इस उसूल को कानून के धर्म-सिद्धान्त की तरह अपना लिया था कि ‘अपनी सम्पत्ति का उपयोग तुम इस तरह करो कि जिससे दूसरे की सम्पत्ति को हानि न पहुँचे।’ जबकि वकालत के व्यावहारिक पेशे में इसका पालन करना कतई आसान नहीं था। उन्होने हिन्दू शास्त्र और इस्लामी कानूनों को यहाँ हिन्दुस्तान आकर वकालत के पेशे के दौरान ही व्यावहारिक रूप से समझा। इस दृष्टि से उन्हें हिन्दुस्तान के नामी वकील फिरोजशाह मेहता से बहुत प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला। फिरोजशाह मेहता और बदरुद्दीन तैयबजी उन दिनों हिन्दुस्तान के मशहूर वकीलों में गिने जाते थे।
गांधीजी की आत्मकथा का दूसरा अध्याय रायचन्द भाई के जिक्र से आरंभ होता है, जिनसे वे स्वदेश लौटते ही डॉ प्राणजीवनदास मेहता के घर उनके भाई रेवाशंकर जगजीवन झवेरी से तो मिले ही, जो आजन्म उनके मित्र बने रहे, लेकिन वहीं डॉ मेहता के भाई के दामाद रायचंद भाई (राजचन्द्र) से भी हुई, जो रेवाशंकर के व्यवसाय में साझीदार तो थे ही, वे सर्वधर्म, दर्शन, समाजविज्ञान, मनोविज्ञान और भाषा-शास्त्र में निष्णात व्यक्ति के रूप में भी अपनी विशिष्ट पहचान रखते थे, बल्कि गांधीजी से उनका परिचय कवि रायचन्द के रूप में कराया गया था। उनसे इस पहली मुलाकात में ही बातचीत के दौरान गांधीजी को अहसास हो गया कि वे कितने सर्वज्ञ, सहज और उदार पुरुष से मिल रहे हैं। उस मुलाकात के बाद, बेशक वे एक जगह पर करीब न रहे हों, लेकिन अगले दस वर्ष तक उन दोनों के बीच सामयिक मुलाकातों और पत्र-व्यवहार के माध्यम से जो आत्मिक संबंध बना रहा। ये वही रायचंद भाई थे, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में प्रवास पर रहनेवाले मोहनदास गांधी को इस बात के लिए आगाह किया कि वे कस्तूरबाई के साथ अपने व्यवहार में आवश्यक सुधार लाएँ और उनकी सलाह का आदर करते हुए गांधीजी ने पत्नी के प्रति अपने रवैये में पूरा सुधार किया।
यद्यपि रायचंद भाई और उनकी उम्र में कोई बड़ा अंतर नहीं था, रायचंद भाई उनसे सिर्फ दो वर्ष बड़े थे, लेकिन गांधीजी के मन में उनके प्रति गहरा आदरभाव सदैव बना रहा। श्रीमद् राजचन्द्र जी के निधन के पच्चीस वर्ष बाद जब रेवाशंकर जी ने उनके पत्रों और आलेखों से संबंधित पुस्तक की प्रस्तावना के लिए गांधीजी से निवेदन किया तो इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार करते हुए उन्होंने इस बात को विशेष रूप से रेखांकित किया कि “मुझ पर तीन पुरुषों ने गहरा प्रभाव डाला है। टॉलस्टॉय, रस्किन और रायचंद भाई। टॉलस्टॉय ने अपनी एक पुस्तक-विशेष द्वारा और उनके साथ मेरा थोड़ा-सा पत्र-व्यवहार हुआ उसके द्वारा, रस्किन ने अपनी एक ही पुस्तक ‘अण्टु दिस लास्ट’ के द्वारा, जिसका गुजराती नाम मैंने ‘सर्वोदय’ रखा है, और रायचंद भाई ने अपने निकट संपर्क के द्वारा। जिस समय मेरे मन में हिन्दू धर्म के बारे में शंका उत्पन्न हुई, उस समय उसके निवारण में मदद देने वाले रायचंद भाई ही थे।” (संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 32 पृ 1 से 11)
स्वदेश लौटने के बाद मोहनदास गांधी सबसे पहले अपनी माँ से मिलना चाहते थे, लेकिन हिन्दुस्तान पहुँचकर जब उन्हें पता लगा कि उनकी माँ का कुछ अरसा पहले ही देहावसान हो गया है तो इस बात को सुनकर वे सन्न-से रह गये। परिवार के लोगों ने उन्हें इसलिए खबर नहीं दी थी कि वे विदेश में शायद इस दुख को अकेले न वहन कर सकें, इसलिए बड़े भाई ने उनके घर लौटने के बाद ही यह दुखद सूचना देना उचित समझा। माँ की मुत्यु का समाचार जानकर उन्हें गहरा दुख तो हुआ, लेकिन ऊपरी तौर पर वे शान्त ही बने रहे।
विलायत से बैरिस्टर की शिक्षा पूरी कर स्वदेश वापसी और यहाँ अपनी वकालत शुरू करने के प्रसंग से लेकर दक्षिण अफ्रीका जाने और वहाँ के भारतीय समुदाय की लोकसेवा का महाव्रत अंगीकार करने से जुड़े वे तमाम प्रसंग इसी बात की साख भरते हैं कि किस तरह गुजरात के एक साधारण वणिक परिवार में जनमा मोहनदास अपने जीवन में सच्चाई, सादगी और सत्याग्रह को आधार बनाकर आत्मसंयम, त्याग और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर एक साधारण लोकसेवक से महात्मा (अपने युग की महान् आत्मा) की अवस्था तक पहुँचता है।
करीब 400 पृष्ठों की यह आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ वर्ष 1922 से 1925–26 के दौरान अहमदाबाद से प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र ‘नवजीवन’ में मूल गुजराती में धारावाहिक कॉलम के रूप में प्रकाशित होती रही। इसकी सारी किस्तें छप जाने के बाद नवजीवन प्रकाशन से ही यह पुस्तक के रूप में सामने आयी, जो बाद में अंग्रेजी, हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषा में अनूदित होकर पाठक समुदाय को उपलब्ध हो सकी। इस कृति के शीर्षक में ‘सत्य के प्रयोग’ के साथ ‘अथवा आत्मकथा’ पद का प्रयोग बेशक जोड़ा गया हो, लेकिन स्वयं गांध जी ने अपनी प्रस्तावना में इस बात का उल्लेख अवश्य किया है कि “मुझे आत्मकथा कहाँ लिखनी है? मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किये हैं, उनकी कथा लिखनी है। यह सच है कि उनमें मेरा जीवन ओत-प्रोत होने के कारण कथा एक जीवन-वृत्तान्त जैसी बन जाएगी। लेकिन उसके हर पन्ने पर मेरे प्रयोग ही प्रकट हों, तो मैं स्वयं उस कथा को निर्दोष मानूँगा।”
गांधीजी की आत्मकथा के रूप में यह कृति इस अर्थ में अधूरी ही कही जाएगी, क्योंकि इसमें सन् 1925 तक की उनकी जीवन-यात्रा के प्रसंग ही आ पाये हैं और वे भी आधे-अधूरे। जबकि देश की आजादी के आन्दोलन में एक नेतृत्वकारी भूमिका निभानेवाले गांधी की कथा तो सही मायने में सन् 1915में दक्षिण अफ्रीका से उनके लौटने के बाद ही आरंभ होती है, जहाँ पहले रेलयात्रा से देश-भ्रमण और बाद में सन् 1917 में बिहार के चम्पारण क्षेत्र में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ किसानों के आन्दोलन से आरंभ होती है। चंपारण में किसानों से उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हीं की जमीन पर जबरन नील की अलाभकारी खेती करवायी जा रही थी और उन्हें नील की कोठियों के गोरे मालिकों (निलहों) की मनमानियाँ सहन करनी पड़ती थीं। उनका जीवन-निर्वाह दिन-ब-दिन कठिनतर होता जा रहा था। गांधीजी उन्हीं दिनों अपनी वकालत और कांग्रेस महासभा की कार्यवाही में भाग लेने लखनऊ आये थे, जहाँ चंपारण के ही एक पीड़ित किसान राजकुमार शुक्ल ने उन्हें चंपारण चलकर किसानों की इस समस्या का हल करने में मदद करने का आग्रह किया था।
गांधीजी ने चंपारण पहुँचकर पूरी समस्या को समझा और उस समस्या का हल करवाने में जुट गये तो क्षेत्र के बाकी किसान भी उनके साथ जुट गये और इसी कारण स्थानीय प्रशासन ने उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई कर मुकदमा दायर कर दिया, जबकि एक अनुभवी बैरिस्टर के रूप में तब तक गांधीजी की ख्याति सब जगह फैल चुकी थी। वे भारत में अंग्रेजी राज के वायसराय और प्रशासन में सहयोग देने के लिए प्रशासन को आवश्यक निर्देश भी जारी कर दिये। इस प्रकार चंपारण में किसानों की जो आंशिक जीत हुई, उसका आजादी की मुख्य लड़ाई पर गहरा प्रभाव पड़ा और गांधीजी राष्ट्रीय आन्दोलन के अगुवा नेता के रूप में शामिल मान लिये गये। यहाँ से गांधी के नेतृत्व में आगे राष्ट्रीय स्तर पर जो घटनाक्रम चला, वही एक तरह से गांधीजी की अगुवाई का आगाज था। चंपारण के किसानों की समस्या के समाधान के बाद गांधीजी वापस गुजरात लौट आए, जहाँ कुछ अरसे तक वे खेड़ा के मजदूर-किसानों की समस्या का हल निकालने में व्यस्त रहे और उसके बाद कोचरब (अहमदाबाद) के पास दक्षिण अफ्रीका से उनके साथ आए लोगों की आवास समस्या के निवारण के लिए आश्रम स्थापित करने और उसकी बुनियादी व्यवस्थाओं में जुट गये।
( जारी )