ये कम्बख्त मन जो जो न करा दे!

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पेंटिंग : अशोक भौमिक


— जयराम शुक्ल —

व्यंग्य, निबंध, लेख तो रोज पढ़ते हैं, आज मेरा प्रवचन पढ़ें। प्रवचन पवित्र शब्द है जो आत्मसात करने की बजाय दूसरों को सुनाने के काम आता है। काम- क्रोध- मद- मोह-लोभ पर प्रवचन देनेवालों में कई आज भले जेल में हों पर उनके वचन निर्दोष व शाश्वत हैं। आप पूछ सकते हैं कि हजारों, लाखों के समागम में अच्छी बात कहनेवाले खुद ही गड्ढे में क्यों गिर जाते हैं?

उसके पीछे है मनुष्य का यही बेईमान मन, जिस पर इच्छाएं वैसे ही सवार होती हैं जैसे कि आर्टलरी के टैंक में फौजी।

मन बड़ा चिविल्ला, बड़ा शैतान है, इच्छाओं को वही भड़काता है। हमारे आचरण और संव्यवहार की लगाम उसी के पास होती है। वह सभी इंद्रियों का कैप्टन है। हमें वही हाँकता है।

यदि पूछा जाए कि शरीर के अंगों और चेतनाओं में सबसे गंदा क्या? तो सहज बुद्धि जाएगी मलमूत्र द्वार। यथार्थ यह कि यही वे द्वार हैं जो मन से संचालित नहीं होते। शरीर में इससे अनुशासित कोई और नहीं।

तो फिर मन का क्या..? क्या वाकई में यह इतना गंदा है! नहीं यह अच्छा भी है, गिरगिट की तरह जो अपना रंग और नेताओं की तरह ढंग बदलता रहता है। ये रंग ढंग अच्छे के लिए भी हो सकते हैं।

मन और बुद्धि की अदावत शायद मनुष्य के अस्तित्व के साथ ही शुरू हुई होगी। बुद्धि-विवेक कहता है ऐसे मत करो..मन जवाब देता मैं तुम्हारी बकवास में आनेवाला नहीं।

हम सिगरेट फूँकते हैं, तंबाकू खाते हैं, शराब पीते हैं, इनके रैपरों में कैंसर का कितना खतरनाक चित्र होता है। समान्यतः वैसे मरीज को साक्षात देख लें तो बेहोश हो जाएं। बुद्धि-विवेक कहता है गलत है बेटा..मर जाएगा ऐसा मत कर। मन ढ़ाढस बधाता है.. फूँक मार, मजा ले। मन जीत जाता है प्रायः।

मनुष्य में बुद्धि की हैसियत घर में उस बूढ़े बुजुर्ग की भाँति होती है जिसका पाँव छूकर आदर तो सभी करते हैं पर उसकी बात मानता कोई नहीं।

बड़े-बड़े योगी कैसे भोगी बन जाते हैं, इस संदर्भ की पुराणकथाओं में भरमार है। ययाति ने भोगविलास के लिए अपने पुत्र का यौवन ले लिया। किसी ऋषि को मल्लाहिन भा गयी। इंद्र की अप्सराओं से जुजबी ही ऋषि-मुनि बचे। अहिल्या और इंद्र के बीच पूरा खेल मन का ही तो था।

इंद्र जानता था कि गौतम छोड़ेगे नहीं। अहिल्या भी छद्मवेशी इंद्र को पहचान गयी…पर देंखे तो देवराज का पौरुष…बस इसी चाह के चलते गड्ढे में गिर गयी। मन और बुद्धि बराबरी में जाग्रत रहते हैं। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, बेचारा बुद्धि-विवेक निर्णय लेने के मामले में उस बुजुर्ग की तरह अलग-थलग पड़ जाता है…जिसका आदर तो है लेकिन आदेश का असर नहीं।

विवेक और मन के बीच द्वंद्व को प्रसिद्ध कहानीकार मोपासां ने एक कहानी में शानदार तरीके से बुना है..।

कहानी है – एक अपार्टमेंट में अगल-बगल के फ्लैट में दो महिलाएं रहती हैं। शाम ढलते ही एक महिला बालकनी में सजधज कर खड़ी हो जाती है..। हर रोज कोई न कोई बाँका जवान उसके फ्लैट में आकर कुछ घंटे बिताकर चला जाता है। दोनों की खिलखिलाहट पड़ोस की महिला रोज सुनती है।

पड़ोस की महिला का विवेक उसे बताता है कि यह जिस्मफरोशी करती है। यह गलत काम है। दूसरी महिला को पतित कहते हुए वह मन ही मन बहुत लानत मलामत करती है…। यह सिलसिला कुछ महीनों तक चलता है। एक दिन उसका मन सक्रिय होता है विवेक के समानांतर। मन जानना चाहता है कि उस महिला को कैसा अहसास होता होगा। वह खिलखिलाती है, निश्चित ही उस जवान का साथ आनंददायी होगा..।

बुद्धि उसे डांटती है- मूर्ख, वह महिला अनैतिक व पतित काम कर रही है और तू उसपर रश्क करने लगी..। मन कहता है उस बुद्धि के चक्कर में मत फँसना, वह खसूट न कुछ करता, न किसी को कुछ करने देता। मन और बुद्धि के बीच घमासान शुरू होता है। मन के मोर्चे की ओर से काम तीरकमान लेकर आ खड़ा होता है। इच्छाएं युद्धनाद करने लगती हैं। मन सुख को भी उकसाता। सुख बुद्धि की लानत मलामत करते हुए अंततः चुप रहने को मजबूर कर देता है।

बुद्धि की आँखें जैसे ही झपकती हैं मन डिस्को डांस करने लगता है। दूसरी को पतित कहनेवाली महिला की देह में सुरसुरी छूटने लगती है।

आज वह भी सजधज कर अपने फ्लैट की बालकनी पर खड़ी है। वह भी बाँके जवान को निहार रही है..। उसके दरवाजे की कॉलबेल बजती है…और वह भी पड़ोस की कथित पतिता की भाँति काम-सुख के सड़ांधभरे दरिया में उतर जाती है।

मन किनारे खड़ा झांझ बजाता उन्मादित करता रहता है…जब तक कि दरिया में उतार नहीं आता। काम, मोह, सुख इच्छाएं सब मन की पीठ पर सवार होकर चंपत हो जाती हैं। तब बुद्धि-विवेक प्रकट होता है लेकिन अब तो उसे कुछ करने के लिए बचा नहीं।

इसलिए सबसे कठिन काम है मन को साधना। हमारा समूचा वांग्मय मन को साधने के आख्यानों से भरा पड़ा है। मन को वश में करना ही योग संन्यास का परम है।

सारे झगड़े मन की उपज हैं। इसी ने रामायण व महाभारत रचा है। यही दो-दो विश्वयुद्धों का कारण बना। कमाल की बात तो यह कि मन की गति और नियति को जानता सब कोई है फिर भी बुद्धि-विवेक को पीछे धकेलते हुए गड्ढे में जा गिरता है। लाखों की भीड़ में प्रवचन देनेवाला वो संत भी और यह सबकुछ लिखकर दूसरों को पढ़ानेवाला कलमकार भी।

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