(आज देशद्रोह कानून, रासुका और यूपीपीए से लेकर अफस्पा यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून तक, ऐसे सभी कानूनों का दुरुपयोग चरम पर पहुँच गया है और इन कानूनों को समाप्त करने की माँग भी फिर से उठने लगी है। आतंकवाद से लड़ने और राष्ट्रीय सुरक्षा के तर्क पर बनाये गये ये कानून अपने घोषित मकसद में कितना सफल रहे और घोषित उद्देश्य से अलग जाकर नागरिक स्वाधीनता को कुचलने के लिए किस कदर इस्तेमाल होते रहे हैं इसपर बहस लाजिमी है। इस सिलसिले में प्रख्यात विधिवेत्ता प्रशांत भूषण का यह लेख बहुत उपयोगी है। मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद यह लेख लिखा गया था और हिंदी में सामयिक वार्ता के जनवरी 2009 के अंक में प्रकाशित हुआ था। लिहाजा इसमें कुछ तत्कालीन संदर्भ जरूर आते हैं पर मूल विवेचना और मूल स्थापनाएँ गौरतलब हैं।)
मुंबई के दो पाँच सितारा होटलों पर हमले हुए तो मीडिया ने आगे बढ़कर अपनी आस्तीनें चढ़ा लीं। सड़क चौबारों पर भी शोर मचा कि ‘बहुत हो चुका’ अब ‘और कीमत नहीं चुकाने वाले’ और ‘हमें पाकिस्तान में कायम आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों को तो हर हाल में अब खत्म करके ही दम लेना है।’ यें बातें बार-बार कही और सुनी गयीं और इसी तेवर में समाधान सुझाया गया कि आतंकवाद के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएँ।
कड़े कदम उठाने का मतलब है कड़े कानून बनाना। यूपीए सरकार ने चार साल पहले पोटा कानून को इस बिना पर हटाया था कि ये कानून इंसाफ के मामले में जैसा को तैसा की मंशा से प्रेरित हैं, इसका दुरुपयोग हुआ है और लाभ की जगह इस कानून से घाटा हुआ है। और उसी यूपीए सरकार ने बदले हुए माहौल में मीडिया का मिजाज ताड़कर पहले से मौजूद एक कड़े गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून में संशोधन करके उसे और कड़ा बनाया और लागू कर दिया। 15 दिसंबर को कानून में संशोधन के प्रस्ताव पेश किये गये और अगले ही दिन बिना किसी बहस के उसे पास कर दिया गया। नागरिक समाज को मौका तक नहीं मिला कि वह संशोधनों पर कुछ सोच-विचार करे, उसे कायदे से समझे और यह विचारे कि आखिर इन संशोधनों के परिणाम क्या होंगे।
जो लोग कड़े कानूनों की दुहाई दे रहे हैं, दरअसल वे नहीं जानते कि कोई कानून कैसे बनता है और कड़े कानून से आतंकवाद पर आखिर लगाम कैसे लगेगी। पहली बात तो यही कि कानून सिर्फ गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को हिरासत में रखने, उस पर मुकदमा चलाने और सजा दिलाने में मदद कर सकता है। कोई भी कानून चाहे वह कितना भी कठोर क्यों न हो, उस आत्मघाती हमलावर को रोक पाने में कामयाब नहीं हो सकता जो गिरफ्तार होने से पहले ही मर जाने पर आमादा होता है। जमानत नहीं मिलेगी और सजा होकर रहेगी जैसे प्रावधान से कम से कम वैसे आतंकवादियों को नहीं डराया जा सकता जिन्होंने मुंबई पर हमला बोला।
दरअसल इराक में सुरक्षा बल या फौज किसी आदमी को जितने दिनों तक चाहे उतने दिनों तक हिरासत में रख सकती है और चाहे तो किसी को मनमर्जी से गोली भी मार सकती है। अब पुलिस या फौज को इससे ज्यादा जुल्मी और क्या अधिकार दिये जा सकते हैं! लेकिन इसके बावजूद पुलिस या फौज को मिले इन अधिकारों से इराक में आतंकवाद पर लगाम नहीं कसी जा सकी। इसके उलट हालात ऐसे बन गये कि ज्यादा से ज्यादा लोग आतंकवाद की राह पर निकले और इन लोगों ने अपने को तो मारा ही, अपने साथ बाकी लोगों को भी मारा।
जब पोटा हटाया गया था तो उसके कुछ कठोर प्रावधान गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून में जोड़ लिये गये थे।
इन प्रावधानों और छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम- जिसके प्रावधान कहते हैं कि किसी प्रतिबंधित संगठन अथवा प्रतिबंधित संगठन के व्यक्ति को किसी प्रकार की सहायता देना अपराध है- का इस्तेमाल पीयूसीएल के महासचिव बिनायक सेन को जेल में डालने के लिए हुआ। अब इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि बिनायक सेन निस्वार्थ सेवा भावना से भरे कार्यकर्ता हैं और उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ के दूरदराज के इलाकों में बीमारों के लिए क्लीनिक खोलने के लिए लगाया है। बिनायक सेन पिछले डेढ़ साल से बंद हैं। उन पर आरोप है कि उन्होंने जेल में बंद माओवादियों से चिट्ठी लेकर उसे माओवादियों के साथी कामरेडों को दिया और इस तरह माओवादियों की मदद की।
कानून को इस बात से कोई मतलब नहीं कि जिस चिट्ठी को पहुँचाने का आरोप बिनायक सेन पर लगाया गया है, उसमें कोई ऐसी-वैसी बात नहीं थी। बिनायक सेन पर लगाये गये कानून के हिसाब से उन पर दोष मढ़ने के लिए इतना ही काफी है कि उन्होंने किसी तथाकथित माओवादी से चिट्ठी ली और इस तरह एक गैरकानूनी संगठन (माओवादी) को मदद देकर एक आतंकवादी कृत्य किया। पोटा कानून में जमानत की मनाही है। और इस मनाही से जाँच एजेंसियों को निर्दोष लोगों को पकड़कर जेल में बंद करने की छूट मिल गयी। भले ही उनके खिलाफ आतंकवाद का कोई सबूत न हो।
किसी व्यक्ति के खिलाफ आतंकवादी गतिविधि में लिप्त होने का कैसा भी सबूत हो तो कोर्ट ऐसे भी उसे जमानत नहीं देती। आज तक किसी भी सरकार के सामने ऐसा मामला पेश नहीं आया, जिसमें किसी व्यक्ति को आतंकवादी गतिविधि में लिप्त होने के आरोप में पहले गिरफ्तार किया गया हो और बाद में कड़े कानूनों के अभाव में रिहा कर दिया गया हो। ठीक इसी तरह हर कोई जानता है कि पुलिस यातना देकर या यातना की धमकी देकर किसी से भी इकबालिया बयान हासिल कर सकती है। ऐसे बयान विश्वास के काबिल नहीं होते और आरोप लगाने के लिए ऐसे बयान पुख्ता आधार का भी काम नहीं करते।
पोटा और उसके पहले बने टाडा के क्रूर प्रावधानों से पुलिस को बल मिला कि वह निरपराध लोगों को पकड़कर अनियतकाल के लिए हिरासत में रखे, उनके ऊपर इकबालिया बयान के आधार पर आरोप मढ़े जा सकें और फिर उन पर सालों तक मुकदमा चले। कोई व्यक्ति एक बार गिरफ्तार हो जाए और उसके ऊपर आरोप मढ़ दिए जाएँ तो टाडा और पोटा के क्रूर प्रावधानों के आधार पर पुलिस दावा करती है कि हमने केस सुलझा लिया। इस बीच गिरफ्तार व्यक्ति को हिरासत में यातना दी जाती है और उससे जबरन गुनाह कबूल करवाया जाता है। आरोपी को जेल में इतने दिन गुजारने पड़ते हैं कि उसकी साख पर हमेशा के लिए बट्टा लग जाता है और उसका पूरा परिवार आर्थिक मोर्चे पर टूट जाता है।
इन क्रूर कानूनों के आधार पर पकड़े गये अधिकतर लोग निर्दोष थे। इस बात को साबित करने के लिए यह तथ्य ही काफी है कि जिन्हें पकड़ा गया उनमें से 90 फीसदी को छोड़ना पड़ा। ये बात अलग है कि पुलिस की गिरफ्त से छूटनेवाले लोगों की साख पर गहरी चोट पड़ी। उनकी सेहत पर असर पड़ा और उनका परिवार दाने-दाने के लिए मोहताज हुआ। जाँच एजेंसियों के हाथों नाजायज तरीके से गिरफ्तार ऐसे हजारों निर्दोषों के साथ भारी अन्याय हुआ ही, साथ ही अल्पसंख्यकों में पुलिस, न्याय व्यवस्था और चाहे तो कह लें कि देश के सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ रोष पनपा, उनके मन में असुरक्षा और पराया होने की भावना घर करती चली गयी।
क्रूर प्रावधानों के शिकार हजारों लोगों की आपबीती सुनने के बाद कई पीपल्स ट्राईब्यूनल भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। पोटा को लेकर बने पीपल्स ट्राइब्यूनल में राम जेठमलानी, न्यायमूर्ति सुरेश, न्यायमूर्ति डीके बासु, केजी कन्नबीरन जैसे कानून के जानकार तथा अन्य कई जानी-मानी हस्तियाँ शामिल थीं। इस ट्राइब्यूनल ने 2004 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि पोटा के इस्तेमाल के साथ उसका दुरुपयोग नाभिनाल बद्ध है। यह कानून बना ही है खौफ पैदा करने के लिए। इस कानून से आतंकियों में कम खौफ पैदा हुआ और गरीब तथा वंचित लोग खासकर दलित, धार्मिक अल्पसंख्यक, आदिवासी और मेहनतकश लोगों में ज्यादा।
( जारी )