संस्कृति है सत्याग्रह

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पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल


— नन्दकिशोर आचार्य —

त्याग्रह का तात्पर्य, सामान्यतः, अन्याय के अहिंसात्मक प्रतिरोध से लिया जाता है, जो निश्चय ही इस का एक आयाम- और जरूरत पड़ने पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दृश्यमान आयाम है। यह भी ठीक है कि इस पद का आविष्कार एक शताब्दी पूर्व महात्मा गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका के अपने हिंसात्मक संघर्ष के दौर में किया और अनन्तर भारतीय स्वाधीनता संघर्ष का केंद्रीय आधार भी सत्याग्रह ही रहा। स्वाधीनता मिलने के बाद भी राजनीतिक प्रतिरोध के एक उपाय के रूप में इस का इस्तेमाल वे लोग भी करते आये हैं जो, अन्यथा, महात्मा गाँधी के विचारों से घोषित असहमति रखते रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए भी सत्याग्रह के विविध रूप एक प्रभावी रणनीति के रूप में स्वीकार्य रहे हैं। सच तो यह है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौर में कांग्रेस ने भी सत्याग्रह को एक रणनीति के रूप में ही स्वीकार किया था, जब कि महात्मा गाँधी के लिए सत्याग्रह एक जीवन-दृष्टि, एक संस्कृति था।

संस्कृति सत्य का अन्वेषण है- केवल वैचारिक नहीं, अनुभूत्यात्मक अन्वेषण अर्थात् जीवन-प्रक्रिया। लेकिन सत्य क्या है, इसे ले कर कोई निश्चित और एकायामी धारणा नहीं स्वीकार की जा सकती। सभी दर्शन और धर्म-सम्प्रदाय सत्य के अन्वेषण की प्रक्रिया में ही विकसित होते हैं, लेकिन, सत्य की उन की अवधारणाएँ इतनी भिन्न, बल्कि विपरीत होती हैं कि उन में एकसूत्रता खोज पाना लगभग असम्भव हो जाता है।

ऐसी स्थिति में सत्य के आग्रह का तात्पर्य क्या किसी एक दर्शन या धर्म-सम्प्रदाय या जीवन-पद्धति के अपने सत्य का आग्रह ही नहीं हो जाता? वह क्या चीज है जो धारणाओं की भिन्नता के बावजूद जीवन को चलाये रखती है? एक तरह से क्या वही सत्य नहीं है? महात्मा गाँधी भी यह तो स्वीकार करते ही हैं कि सत्य के अनन्त रूप हो सकते हैं और इस लिए किसी एक रूप को दूसरे पर वरीयता देना भी सही नहीं कहा जा सकेगा। वह भी यह  समझते हैं कि निरपेक्ष सत्य को जानना मनुष्य के बस की बात नहीं है– और अब तो विज्ञान भी इसे लगभग स्वीकार कर चुका है- इस लिए यह मानने के सिवा कोई चारा नहीं रहता कि मनुष्य का कर्तव्य यह है कि, सत्य जैसा उसे दिखायी दे, उस का अनुगमन करे और ऐसा करते समय शुद्धतम साधन अर्थात् अहिंसा को अपनाये – क्यों कि अहिंसा ही वह साधन है जो सत्य के विभिन्न रूपों के अस्तित्व को स्वीकार करता है और यही वह उपाय है जिससे विभिन्न धारणाओं के पारस्परिक विरोध के बावजूद जीवन चलता रह सका है।

इस लिए गाँधीजी के विचारानुसार सत्य के आग्रह का तात्पर्य अहिंसा का आग्रह है। जब अहिंसक प्रतिरोध की बात की जाती है तो उस में भी बलबिन्दु प्रतिरोध से अधिक अहिंसा पर है। प्रतिरोध तो प्रसंगवश करना पड़ सकता है, लेकिन अहिंसा वह बोध है जो हर स्थिति में  वांछनीय अर्थात् सनातन मूल्य है। अहिंसा की इस सनातनता का आग्रह ही सत्याग्रह है।

अहिंसा, शब्द के निषेधात्मक रूप के बावजूद, एक धनात्मक बल्कि रचनात्मक बोध है। इस लिए अन्याय के प्रतिरोध के साथ-साथ वह अविरोध का बोध भी है। सत्याग्रह का लक्ष्य एवं प्रकार्य त्रिआयामी होता है। सत्याग्रह में अन्याय का प्रतिरोध या उसे मिटाना तो है ही; साथ ही, इस प्रक्रिया से गुजरते हुए वह सत्याग्रही के नैतिक उत्कर्ष के साथ-साथ उस के मन में भी अहिंसा और न्याय का बोध पैदा करने की कोशिश करता है, जिसे, सामान्यतः, प्रतिपक्ष  समझा जाता है।

दरअस्ल, सत्याग्रह में कोई प्रतिपक्ष होता ही नहीं- क्यों कि वहाँ कोई अन्यनहीं होता। सत्याग्रह प्रतिपक्ष के लिए भी एक नैतिक दायित्व का अनुभव करता है क्यों कि वह अपना ही एक रूप है। ऐसा न मानने पर अहिंसा केवल रणनीति रह जाती है, जीवन-मूल्य अर्थात् सत्य नहीं। अहिंसा की अनुभूति का आधार जीवन मात्र के एकत्व की अवधारणा है, जिस का व्यावहारिक रूप सब के प्रति दायित्व का निर्वाह करना है। इस लिए जिसे हम, सामान्यतः, अन्य या प्रतिपक्ष कह देते हैं, उस के प्रति दायित्व के निर्वाह के बिना जीवन मात्र के एकत्व के बोध या अहिंसा की अनुभूति सम्भव ही नहीं है।

जीवन मात्र या कहें कि अस्तित्व मात्र का एकत्व केवल एक अवधारणा ही रहेगा, यदि उसका प्रतिबिम्बन या व्यावहारिक प्रतिफलन हमारे निजी एवं अन्तर्वैयक्तिक व्यवहार और सभी प्रकार के सामाजिक व्यवहार एवं संस्थाओं यानी आर्थिक-राजनीतिक कार्य-व्यापार आदि में भी नहीं होता है। अस्तित्व के प्रति किसी भी प्रकार की हिंसा असत्य है, और इस लिए उस का अहिंसात्मक प्रतिकार एवं एक अहिंसक व्यवस्था की रचना सत्याग्रह की माँग करती है।

विकल्प का अन्वेषण और सिद्धि की प्रक्रिया रचनात्मक प्रतिकार है। इन्हीं अर्थों में सत्याग्रह संस्कृति हो जाता है- एक ऐसी संस्कृति जो राज्य, प्रौद्योगिकी, अर्थ-व्यवस्था, सामाजिक-सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक तथा हमारे निजी और अन्तर्वैयक्तिक व्यवहार की प्रेरक एवं कसौटी भी हो। संस्कृति प्रेरक होती है, साथ ही, प्रक्रिया एवं प्रतिमान भी। एक उस का साध्य-रूप होता है और एक साधन-रूप। इन दोनों में जितना अन्तर्ग्रन्थन होता है, उतना ही वह संस्कृति अपनी पूर्णता की ओर विकसित होती है। यदि साधन साध्य-मूल्य से विपरीत दिशा में जाते लगें तो घोषित मूल्य-निष्ठा के बावजूद हमारा व्यवहार विपरीत दिशा में जाने लगता है। दूसरे शब्दों में, हम एक सांस्कृतिक पाखण्ड के शिकार हो जाते हैं, जो कि आज हम होते जा रहे हैं।

इस लिए संस्कृति केवल धर्म-दर्शन, कला-साहित्य, रीति-रिवाज आदि का नाम नहीं है, और न सत्याग्रह केवल प्रतिरोध का एक तरीका- अहिंसात्मक तरीका ही सही। अहिंसा सत्यस्थानीय है और आग्रह केवल प्रतिरोध नहीं, रचना भी है। इस लिए तकनीकी, अर्थ- व्यवस्था, राजनीतिक व्यवहार एवं सामाजिक-धार्मिक व्यवहार एवं संस्थाएँ आदि सब संस्कृति  की अवधारणा के अन्तर्गत आ जाने के कारण सत्याग्रह के विषय हो जाते हैं। जो कुछ अपनी प्रेरणा, प्रक्रिया और परिणाम में हिंसक है, वह असत्य है, गाँधीजी की शब्दावली में कहें तो पाप है- और उसका प्रतिरोध तथा अहिंसक विकल्प का अन्वेषण और प्रतिष्ठा सत्याग्रह है। विनोबा ने इसी लिए विचार के माध्यम से परिवर्तन को भी सत्याग्रह- सौम्य या सौम्यतर सत्याग्रह की संज्ञा दी थी। लेकिन, प्रतिरोध के अर्थ में भी सत्याग्रह असौम्य नहीं होता क्यों कि कोई भी नैतिक कर्म असौम्य नहीं हो सकता।

जब हम किसी अन्याय या हिंसा का सक्रिय अहिंसक प्रतिरोध भी करते हैं तो वह न केवल अन्याय को मिटाने के लिए होता है, बल्कि अन्यरूपी आत्म और स्वरूपी आत्म के द्वैत को भी मिटाता है क्यों कि अन्य के प्रति उत्तरदायित्व अनुभव करने का तात्पर्य अन्य में निहित स्व की तलाश करने में प्रवृत्त होता है। आत्म के बिना उत्तरदायित्व किस का और किस के प्रति? सत्याग्रह अन्यत्व को भेद कर आत्म का अन्वेषण और बोध है- कहें कि अन्य में आत्मानुभूति की प्रक्रिया। यही तो अद्वैत है जो सत्याग्रह की संस्कृति की प्रेरणा, प्रक्रिया और परिणाम है- और इस का सभी मानवीय संबंधों, संस्थाओं और व्यवहार में प्रतिफलित होना ही अर्थ-व्यवस्था, समाज, राज्य और संस्कृति का सत्याग्रही होना है।

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