— नरेश गोस्वामी —
भारत के बहुभाषिक परिदृश्य में अंग्रेजी और हिंदी के बीच रानी और दासी का या मालिक और नौकर का संबंध है- ये बात हम सुनते-गुनते और देखते बड़े हुए हैं। लेकिन मैं इस समाजशास्त्रीय सी बात को सिर्फ हिंदी के परिप्रेक्ष्य तक में सीमित करके नहीं देखना चाहता। भारत की कोई भी आंचलिक भाषा हो अंग्रेजी के साथ उसका रिश्ता कमोबेश ऐसा ही है। घर–परिवार और आस-पड़ोस की दुनिया में आंचलिक भाषा ही चलती है, लेकिन जैसे ही हम स्थानीयता की परिधि के परे जाना चाहते हैं वैसे ही वह आंचलिक भाषा साथ छोड़ने लगती है।
हमारे देश में ऐसा क्या है कि व्यक्ति का अपनी भाषा के अलावा न केवल सिर्फ अँग्रेजी जानने से काम चल जाता है बल्कि उसे सम्मान का नजर से देखा जाता है। अँग्रेजी जानना एक ऐसी क्षमता मानी जाती है कि कोई और काबिलियत न भी हो तो भी वह आंचलिक भाषा की बनिस्बत रोजी-रोटी का बेहतर जुगाड़ कर लेता है। यहाँ शायद अँग्रेजी के राजनीतिक अर्थशास्त्र में जाने का मौका नहीं है। पर बुनियादी सच्चाई को जरूर देखा जाना चाहिए।
अँग्रेजी के वर्चस्व का शायद मूल कारण ये है कि देश में जीविका के सारे स्रोतों की कुंजी अँग्रेजी वालों के हाथों में चली गयी। और ये कोई आजकल की घटना नहीं है। औपनिवेशिक दौर में नौकरी पाने और सामाजिक गतिशीलता हासिल करने का यह एक खास तरीका था। अपना राजकाज होने के बाद भी अगर स्थिति जस की तस है तो इसका मतलब बहुत ही साफ है कि संसाधनों के सही बँटवारे का काम नहीं हो पाया है।
एक घटना के हवाले से बात रखी जाए तो वह शायद सैद्धांतिक सूत्रपात करने से ज्यादा कारगर रहेगी। कुछ सल पहले राजस्थान सरकार ने पंचायतों के लिए एक आदेश जारी किया। इसमें सरपंचों को कहा गया था कि अगर उन्हें गाँव के पशुओं के लिए चरागाह भूमि बढ़वाने की जरूरत है तो वे इसके लिए एक प्रस्ताव पारित करें और उसे तहसीलदार को सौप दें। राज्य में पारिस्थितिक संरक्षण के लिए काम कर रही एक संस्था ने इस काम के लिए एक योजना तैयार की। तय किया गया कि राज्य की समस्त पंचायतों के सरपंचों को एक चिट्ठी लिखी जाए, जिसमें उन्हें बताया जाए कि सरकारी आदेश का पालन किस तरह किया जाना है।
जाहिर है कि एक हिंदी भाषी प्रदेश में यह चिट्ठी हिंदी में ही लिखी जानी थी। सो संस्था के कार्यकर्ता बैठे और एक चिट्ठी तैयार कर दी गयी। इसके बाद उसे संस्था प्रमुख के अनुमोदन के लिए भेज दिया गया। कुछ ही देर बाद प्रमुख की तरफ से फोन आया कि वह हिंदी नहीं पढ़ पा रहा है। जबकि उस संस्था में हिंदी भाषियों की संख्या अच्छी-खासी थी। प्रमुख चाहते तो उन लोगों से बात समझ सकते थे। लेकिन उन्हें चिट्ठी की बात सिर्फ अँग्रेजी में समझनी थी। लिहाजा उसका अनुवाद कराया गया। प्रमुख को अँग्रेजी पाठ समझ आया तो उन्हें मूल चिट्ठी में कई सारी खामियाँ नजर आने लगीं और उन्होंने उन गलतियों को दुरुस्त करने की ताकीद की। ध्यान रहे कि यह सारी कवायद अँग्रेजी में ही हुई। चिट्ठी के तेवर से संतुष्ट होने के बाद प्रमुख ने कहा कि अब इस चिट्ठी को हिंदी में तैयार किया जाए।
संस्था के कार्यकर्ता ने लगकर उसका हिंदी में अनुवाद तो कर दिया लेकिन वे उससे बहुत मुतमईन नहीं थे। अँग्रेजी के कई शब्द हिंदी के मिजाज में नहीं ढल पा रहे थे। वाक्य अनावश्यक रूप से लंबे और संस्कृतनिष्ठ हो गये थे।
अगर इस चिट्ठी का मजमून हिंदी में ही सोचा-लिखा जाता तो भाषा इतनी नकली और अटपटी नहीं होती। लेकिन किसी को चिंता नहीं थी कि अगर संदेश भाषा में ही अटका रह जाएगा तो सरपंच क्या तो खुद समझेंगे और क्या गाँव वालों को समझाएँगे। कई लोग खीझे हुए जरूर थे। पर उनकी खीझ काम बढ़ जाने से पैदा हुई थी। शायद ही किसी को इस बात से आपत्ति थी कि हिंदी जनपद में जानेवाली सामग्री का अँग्रेजी से अनुवाद क्यों किया जाए, खासतौर पर जब उस सामग्री की सारी अंतर्वस्तु हिंदी से वास्ता ऱखती हो।
इस घटना को एक रूपक की तरह देखा जाए तो अँग्रेजी और आंचलिक भाषाओं के सत्ता संबंधों का पूरा स्थापत्य उजागर हो जाता है। यह ज्ञात है कि देश के ज्यादातर संस्थान अंग्रेजी में ही काम करते हैं। और यह बात भी सभी जानते हैं कि अर्थ की झंझट होने पर हमेशा मूल अँग्रेजी के पाठ को ही मानक माना जाता है। क्या अँग्रेजी और भारतीय भाषों के बीच यह संबंध पूरी तरह औपनिवेशिक नहीं है? आखिर ऐसा क्यों है कि इस महादेश में उच्चस्तरीय कहा जानेवाला हर काम अँग्रेजी में किया जाता है और उसके बाद भारतीय भाषाओं के कुलियों को उसका उल्था करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है। अँग्रेजी को केंद्र की तरह देखने का अनिवार्य अर्थ यह निकलता है कि भारतीय भाषाओं के प्रयोक्ताओं के पास सोचने-समझने की सलाहियत नहीं है।
संस्था प्रमुख के फैसले तक सीमित होकर देखा जाए तो उन्हें हिंदी पट्टी में 25 साल काम करने के बावजूद यह जरूरत क्यों महसूस नहीं हुई कि वे लोगों की भाषा-बोली सीखें?
विचित्र किंतु सत्य की तर्ज पर यह तर्क फिर अँग्रेजी के वर्चस्व और देश की बौद्धिक संरचना पर उसके कब्जे की याद दिलाता है।
यह कब्जा इसलिए बरकरार रहता है क्योंकि देश का मध्यवर्ग इसी के इर्द-गिर्द खाता-कमाता है। यह भयानक ढंग से अपमानजनक स्थिति है कि देश के किसानों, आम कामकाजी लोगों, दलितों-आदिवासियों को इस काबिल नहीं समझा जाता कि वे अपनी बात अपने तरीके से कहें।