— प्रेम सिंह —
तीन विवादास्पद कृषि-कानूनों के सरकार द्वारा वापस ले लिये जाने के बावजूद मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के तेवर नरम नहीं पड़े हैं। 2 जनवरी को हरियाणा के चरखी दादरी शहर में एक सामाजिक समारोह में बोलते हुए उन्होंने बताया कि जब एक बार वे किसान आंदोलन के सवाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले और 500 किसानों की मौत हो जाने का मुद्दा रखा, तो उनका रुख घमंड से भरा था। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी वह मुलाकात झगड़े पर खत्म हुई। यानी श्रोताओं को यह संदेश दिया कि उन्होंने किसानों के सवाल पर एक घमंडी प्रधानमंत्री से झगड़ा तक मोल ले लिया।
किसान आंदोलन को लेकर सरकार के प्रति सत्यपाल मलिक के विरोधी तेवर की आंदोलनकारी किसानों और आंदोलन समर्थकों के बीच काफी सराहना होती रही है। भाजपा सरकार के तहत पदासीन कोई राज्यपाल स्तर का नेता सरकार के किसी फैसले या रवैये का इशारे भर में भी विरोध करता है, तो उसका स्वागत होना चाहिए। सत्यपाल मलिक ने तो आंदोलन के शुरू से ही सरकार के कृषि कानूनों को लागू करने के फैसले और आंदोलन के प्रति दुर्भावनापूर्ण रवैये का स्पष्ट रूप से विरोध किया है।
मोदी-शाह-भागवत की भाजपा जहां देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कड़ा पहरा बिठाये हुए है, वहां भाजपा के अंदर के लोकतंत्र की हालत को समझा जा सकता है। आलम यह है कि सरकार में शामिल भाजपा के सहायक दलों/नेताओं की भी सरकार के किसी फैसले पर विरोध में बोलने की हिम्मत नहीं होती है। कृषि-कानूनों पर राजग के एक घटक शिरोमणि अकाली दल ने पंजाब में बड़ा आंदोलन उठ खड़ा होने पर चुनावी चिंता के चलते विरोध का स्वर उठाया, तो उसे सरकार और गठबंधन से बाहर का रास्ता देखना पड़ा। मुख्यधारा और सोशल मीडिया पर दिन-रात यह जाप चलता ही रहता है कि नरेंद्र मोदी किसी भी आलोचना से परे हैं। ऐसे माहौल में सत्यपाल मलिक के सरकार और प्रधानमंत्री के खिलाफ सतत विरोधी तेवर की सराहना की ही जानी चाहिए।
हालांकि मलिक की प्रशंसा करते वक्त यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद भाजपा को पश्चिम उत्तर प्रदेश में अपूर्व चुनावी फायदा हुआ था। भाजपा ने उस उपलब्धि के इनाम में, और उसे आगे बनाये रखने के लिए, क्षेत्र की मुसलमानेतर किसान जातियों के तुष्टीकरण का सोचा-समझा उद्यम किया था। सत्यपाल मलिक को राज्यपाल बनाना भी उसी उद्यम का हिस्सा था। अगर भाजपा किसान आंदोलन के चलते आगामी विधानसभा चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश में दंगों के चलते हुई कमाई गंवा बैठती है, तो संभावना यही है कि वह सत्यपाल मलिक का विरोध एक दिन भी बर्दाश्त नहीं करेगी। हालांकि वैसी स्थिति में सत्यपाल मलिक का सत्ता के गलियारे में बने रहने का रास्ता खुला रह सकता है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार के बाद सपा-रालोद अवसर आने पर उन्हें राज्यसभा में भेज सकते हैं। समाजवादियों में एक विशेष प्रवृत्ति देखने को मिलती है। भाजपा, कांग्रेस या अन्य किसी दल में शामिल कोई समाजवादी रहा नेता कभी दबी जुबान से कोई जन-हित की बात कह देता है, तो बाकी समाजवादी नेता के वैसे व्यवहार को उसके समाजवादी अतीत से जोड़कर प्रशंसा के पुल बांधते हैं। सत्यपाल मलिक भी पूर्व-समाजवादी कहे जाते हैं। किसान आंदोलन के प्रति समर्थन और सरकार के प्रति उनके विरोधी तेवर की कुछ समाजवादी लोग उनके अतीत से जोड़कर प्रशंसा करते हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है। अगर सत्यपाल मलिक के विरोध में कुछ भी समाजवादी विरासत से जुड़ा होता, तो वे इस सरकार द्वारा किये जा रहे अंधाधुंध निगमीकरण-निजीकरण पर भी अपना कुछ न कुछ विरोध जरूर दर्ज करते। कहना न होगा कि इस सरकार द्वार बनाये गए सभी श्रम और कृषि कानून उसकी हर क्षेत्र के निगमीकरण-निजीकरण की नीति की संगति में हैं। सरकार ने चुनावी दबाव में कृषि-कानून वापस लिये हैं, अपनी नीति नहीं बदली है। सरकार और उसकी नवउदारवादी नीतियां रहेंगी, तो कृषि-कानून भी देर-सबेर थोड़े बदले रूप में लागू होंगे।
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