विकल्प के प्रश्न

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पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल


— मणीन्द्र ठाकुर —

मारी पीढ़ी के लिए कौनसे ऐसे विचारणीय प्रश्न हैं, जो रचनात्मक सोच की दिशा तय करेंगे? यह सवाल हमें अपने आपसे और ऐसे सभी लोगों से पूछना चाहिए जो वैचारिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध हैं। ऐसे कुछ प्रश्नों का उल्लेख भर कर पाना ही इस लेख का उद्देश्य है। इसके लिए शायद स्थापित अकादमिक संस्थागत फोरम के बाहर ही थोड़ी संभावना है, क्योंकि अकादमिया में लीक पर चलने की परंपरा हावी होती जा रही है। लब्धप्रतिष्ठ विद्यालय अब अपने सामाजिक सरोकार से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय रेटिंग के लिए लालायित दिखते हैं। इस चक्कर में वहाँ शैक्षणिक स्वतंत्रता का भी काफी ह्रास हो रहा है। ऐसा लगता है कि राज्य ने विश्वविद्यालयों में उठनेवाले विरोध के स्वर को मौन में बदलने का निर्णय ले लिया है। इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद जैसे सारे रास्ते अपनाये जा रहे हैं। लेकिन सौभाग्य से भारत और लैटिन अमेरिका जैसे समाज में संकट गहराने के साथ-साथ अकादमिया के बाहर भी सोचने की प्रक्रिया तेज होती दिखती है। इससे इस बात की आस बनती है कि भविष्य के समाज की संकल्पना के लिए कुछ रचनात्मक सोच और सिद्धांतों का मंथन भी हो रहा है।

भारतीय समाज में इस तरह के प्रश्नों में सबसे महत्त्वपूर्ण है प्राकृतिक संसाधनों की व्यवस्था का। इस बात से तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि मनुष्य होने के नाते हम सभी का प्राकृतिक संसाधनों पर बराबर का अधिकार है। यहाँ तक कि आनेवाली संतति और मानवेतर प्राणियों को भी इसके ऊपर बराबर का अधिकार है। पूँजीवादी व्यवस्था में मनुष्य का प्रकृति के साथ जो संबंध बन रहा है, उसमें यह अधिकार धीरे-धीरे सिमट कर कुछ ही लोगों के पास रह गया जान पड़ता है। इससे दुनिया भर में बड़ी संख्या में लोग हाशिये पर जमा हो रहे हैं।

समाजवाद का जो प्रयोग इस कुव्यवस्था से निकलने के लिए किया गया था, उसमें प्रारंभिक सफलता के बाद बहुत-सी समस्याएँ आ गयीं और कालांतर  में इस दर्शन पर यदि लोगों की आस्था बनी भी हुई है, तो प्रारंभिक प्रयोगों के प्रति विश्वास बना रहना मुश्किल सा है। इसलिए आनेवाले समय में सामाजिक  चिंतकों को दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों में प्राकृतिक संपदाओं के प्रबंधन की धारणाओं के बारे में अध्ययन कर कुछ ऐसी व्यवस्था की संभावना की खोज करनी चाहिए कि उसमें सर्वे भवन्तुः सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु की स्थिति बन सके।

इस खोज की पहली शर्त है, सामाजिक चिंतन के पश्चिमी प्रभाव से बाहर निकल कर अन्य संस्कृतियों में झाँकने की। समस्या यह है कि पश्चिमी चिंतन का कुछ ऐसा प्रभाव है कि समाजशास्त्र में किसी और समाज के विचारों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से धनी देश में भी समाजशास्त्र पूरी तरह से पश्चिमी विचारों के प्रभाव में है; जबकि भारतीय समाज की सामूहिक चेतना पर अभी भी यहाँ के दर्शन का पूरा प्रभाव है। आज जब पश्चिम के बहुत से चिंतन भी ऊँची आवाज में आधुनिक चिंतन की सीमाओं का उद्घोष कर रहे हैं, पश्चिमेतर समाज को अपने पारंपरिक चिंतन के बारे में सचेत होना चाहिए।

इस संदर्भ में जो प्रक्रिया औपनिवेशिक समाज में स्वतंत्रता संघर्ष के समय प्रारंभ हुई थी, उसे पुनः जागृत करने की आवश्यकता है। गांधी जैसे चिंतकों ने जिस कारण से भारतीय चिंतन परंपरा में वापस जाने की आवश्यकता महसूस की थी शायद अब उससे कहीं ज्यादा इसकी जरूरत है।

हर समाज में मुक्ति और शोषण दोनों ही धाराएँ एकसाथ बहती हैं और समाज को अपनी मुक्ति का आंदोलन अपनी परंपरा में खोजने की जरूरत है। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि किसी और समाज के विचारों के साथ हमें संवाद नहीं करना चाहिए। इसका मतलब केवल इतना है कि इस संवाद में बराबरी का भाव होना चाहिए। वर्चस्व का नहीं। दर्शनों के बीच इस तरह के संवाद से शायद आनेवाले समय के लिए दर्शन के कुछ अनसुलझे सवाल हल हो पाएँगे।

इन अनसुलझे सवालों में कुछ का जिक्र करना उचित होगा। एक तो सवाल है मनुष्य के स्वभाव का। पश्चिमी चिंतन में मनुष्य के स्वभाव के किसी एक पक्ष को लेकर ही संपूर्ण सिद्धांत गढ़ने की परंपरा सी है। इसलिए जितने भी सिद्धांतकार मनुष्य को इकाई मानकर सिद्धांत की रचना करते हैं सब अंत में एक अंधे मोड़ पर पहुँच जाते हैं। कुछ भारतीय चिंतक, जिन्होंने इस विषय पर सोचा-समझा है, उनकी विडंबना यह है कि एकपक्षीय सोच पर सवाल तो उठाते हैं, लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए भारतीय दर्शन तक नहीं पहुँच पाते हैं। इसका कारण तो शायद यह है कि उन्हें शिक्षा जगत ने भारतीय ज्ञान परंपरा से दूर रखा है या फिर शायद पश्चिमी जगत से अपने वार्तालाप में भारतीय दर्शन को लाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हों। यह कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है।

आज भी जब कुछ पश्चिमी चिंतक भारतीय दर्शन को सामाजिक चिंतन का आधार बनाने की बात करते हैं, तो उन्हें पश्चिम क्या भारत में भी विरोध का सामना करना पड़ता है। इसके बावजूद यह सच है कि भारतीय दर्शन में मनुष्य मात्र के स्वभाव को समझने के बेहतर सूत्र उपलब्ध हैं। इस दर्शन में यह मान्यता है कि मनुष्य स्वभाव चार पुरुषार्थ- अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष, एवं छह विकारों- काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और माया के संतुलन पर निर्भर करता है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार यह संतुलन बदलता रहता है। किसी एक समय में मनुष्य का स्वभाव संतुलन की इस स्थिति पर निर्भर करता है। अब इस समझ के कारण निश्चयात्मक सामाजिक दर्शन के निर्माण में जितनी भी कठिनाई हो इस सत्य को स्वीकार किये बिना किसी यथार्थवादी सामाजिक चिंतन पर पहुँचना मुश्किल है।

यदि हम मनुष्य के स्वभाव के इस सूत्र को मान लें, तो पश्चिम के चिंतन की एक और समस्या, जिसने आधुनिक जीवन के लिए बहुत सी कठिनाइयाँ उत्पन्न की हैं और जिसे लेकर उनके बीच बहुत मंथन भी चल रहा है, का समाधान भी संभव है। इस समस्या को दर्शनशास्त्र में मन और शरीर की समस्या के नाम से जाना जाता है। पश्चिमी आधुनिक चिंतन के मूल में देकार्त का यह विचार है कि ये दोनों अलग-अलग तत्त्व हैं। पश्चिमी विज्ञान ने फिर शरीर या भौतिक जगत के विषय में गहरा अध्ययन किया। कालांतर में मनोविज्ञान का विकास भी हुआ, लेकिन इससे जो ज्ञान-मीमांसा बनी उससे मनुष्य को उसकी पूर्णता में समझ पाना संभव नहीं है। भारतीय यथार्थवाद में यह संभावना है कि दोनों के अन्योन्याश्रय संबंध को समझा जा सके। इस तरह की कई संभावनाओं को अपने तार्किक निष्कर्ष तक ले जाना इस पीढ़ी के चिंतकों के लिए एक महत्त्वपूर्ण काम है।

मन और शरीर के द्वंद्व की समस्या के समाधान से भारत जैसे समाज की एक और समस्या का समाधान हो सकता है। आज जो विवाद यहाँ धार्मिक उन्माद और धर्मनिरपेक्षता के बीच चल रहा है; उसका एक पक्ष यह भी है कि धर्म की सही समझ नहीं बन पा रही है। या तो हम यह मान बैठे है कि धर्म अविकसित समाज की सामूहिक चेतना है और आधुनिक समाज को उससे मुक्ति पानी चाहिए। या फिर यह मानते हैं कि धर्म ही हमारी अस्मिता है। धर्मों रक्षितं रक्षितः का अर्थ गलत लगा लेते हैं।

धर्म तो प्रकृति के नियमों की सही समझ है और उस पर आधारित जातिगत, सामाजिक, वैयक्तिक, नियम-कानून हैं। उनकी रक्षा और पालन से हमारी रक्षा होगी क्योंकि इससे हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर, चल सकेंगे। इस मायने में हम धर्म को एक ज्ञान व्यवस्था मान सकते हैं। गांधी इस बात को बखूबी समझते थे। हिंद-स्वराज को यदि गौर से पढ़ें तो उसमें उपपाठ के रूप में गांधी की धर्म की यह समझ स्पष्ट होती है। धर्म को ज्ञान व्यवस्था मानने का एक परिणाम यह होगा कि भारत जैसे देश की ज्ञान परंपरा को धार्मिक कह कर खारिज करना संभव नहीं होगा। साथ ही उसे अस्मिता के सवाल के रूप में नहीं देखा जा सकेगा। इस ज्ञान परंपरा को मानव हित में आलोचनात्मक और रचनात्मक रूप से समझना संभव हो पाएगा।

प्राकृतिक संपदा का लोकहितवादी प्रबंधन, विभिन्न समाजों के दर्शनों के बीच संवाद, मनुष्य के बारे में उसकी पूर्णता में समझ और धर्म को ज्ञान परंपरा के रूप में देखना, इन सबका एक नीति निर्धारक आधार भी होना चाहिए। इस आधार की खोज हमें दुनिया भर में मुक्ति के लिए चल रहे संघर्षों में करनी होगी, क्योंकि मनुष्य दर्शन के मूल तत्त्वों का अन्वेषण, राजनीतिक संगठनों की खोज, सबकुछ अपने इस संघर्ष के क्रम में ही करता है। संघर्षों के वर्तमान स्वरूप, उनकी विचारधारा, उनकी रणनीति से सहमत या असहमत होना संभव है। लेकिन यह भी सच है कि संघर्ष ही मनुष्य की रचनात्मकता को जागृत करता है और इसलिए इसी क्रम में वह नवीन ज्ञान सृजन में सर्वाधिक सक्रिय रहता है। 

एक आखिरी, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल भाषा का है, जिस पर सजग चिंतन की आवश्यकता है। भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, बल्कि समाज की ज्ञान परंपराओं का संचय स्थल भी है। समाज अपने आप को भाषा के माध्यम से निरंतरता में बनाये रखता है। किसी समाज को यदि गुलाम बनाना हो तो उसकी आवश्यक शर्त है, उसे उसकी भाषा से काट देना। अपनी  भाषा में कथाओं, गीतों, के माध्यम से भी संकलित ज्ञान का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरण होता है। उनसे कटना अपने इतिहास से कटना है।

भाषा और समाज के शक्ति संतुलन में सीधा संबंध है, इस बात को किसी प्रमाण की जरूरत भी नहीं है। कई भाषाओं का ज्ञान संस्कृति के उन्नयन के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन अपनी भाषा के प्रति असम्मान निश्चित रूप से खतरनाक है। नयी पीढ़ी में हिंदी होना एक मुहावरे के रूप में प्रकट होने लगा है, जिसका अर्थ हैमिट्टी पलीद होना। हिंदी पट्टी के अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में हिंदी में कम नंबर प्राप्त करने को एक तरह से गर्व के साथ सुनाया जाने लगा है। इस विषय पर शोध की जरूरत है।

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि समकालीन परिस्थिति यह माँग करती है कि मनुष्य का प्रकृति, समाज और स्वयं अपने आपके साथ संबंधों को नये सिरे से सोचा-समझा जाए। इस नयी सोच से ही शायद पूँजीवाद के विकल्प की संभावना उभर पाएगी। यदि यह सब कुछ पूँजीवाद के विनाशकारी प्रकोप के पहले हो जाए और उसके माकूल राजनीति में लोगों की रुचि पैदा हो जाए तो शायद मानव जाति के लिए बेहतर होगा।

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