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अज्ञेय की कविता

by Rajendra Rajan
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अज्ञेय (7 मार्च 1911- 4 अप्रैल 1987)

उड़ चल, हारिल

 

उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका।

ऊषा जाग उठी प्राची में – कैसी बाट, भरोसा किनका!

 

शक्ति रहे तेरे हाथों में – छुट न जाय यह चाह सृजन की;

शक्ति रहे तेरे हाथों में – रुक न जाय यह गति जीवन की!

 

ऊपर-ऊपर-ऊपर-ऊपर – बढ़ा चीरता चल दिग्मंडल :

अनथक पंखों की चोटों से नभ में एक मचा दे हलचल!

 

तिनका? तेरे हाथों में है अमर एक रचना का साधन –

तिनका? तेरे पंजे में है विधना के प्राणों का स्पन्दन!

 

काँप न, यद्यपि दसों दिशा में तुझे शून्य नभ घेर रहा है,

रुक न, यद्यपि उपहास जगत् का तुझको पथ से हेर रहा है;

 

तू मिट्टी था, किन्तु आज मिट्टी को तूने बाँध लिया है,

तू था सृष्टि, किन्तु स्रष्टा का गुर तूने पहचान लिया है!

 

मिट्टी निश्चय है यथार्थ, पर क्या जीवन केवल मिट्टी है?

तू मिट्टी, पर मिट्टी से उठने की इच्छा किसने दी है?

 

आज उसी ऊर्ध्वंग जाल का तू है दुर्निवार हरकारा

दृढ़ ध्वज-दंड बना यह तिनका सूने पथ का एक सहारा।

 

मिट्टी से जो छीन लिया है वह तज देना धर्म नहीं है;

जीवन-साधन की अवहेला कर्मवीर का कर्म नहीं है!

 

तिनका पथ की धूल, स्वयं तू है अनन्त की पावन धूली –

किन्तु आज तूने नभ-पथ में क्षण में बद्ध अमरता छू ली!

 

ऊषा जाग उठी प्राची में – आवाहन यह नूतन दिन का :

उड़ चल हारिल, लिये हाथ में एक अकेला पावन तिनका!

 

गुरदासपुर, 2 अक्टूबर 1938 

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