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गुरुदेव, गीतांजलि और उसके पद्यानुवादक व्यंकटराव यादव

by Rajendra Rajan
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— प्रतापराव कदम —

र्वभाषा कविसम्मेलन में कोलकाता जाने का अवसर मिला। वहां रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा हस्तलिखित गीतांजलि की छायाप्रति भेंट की गयी, एक तरफ बांग्ला में दूसरी तरफ अंग्रेजी में रवीन्द्रनाथ टैगोर हस्तलिखित गीतांजलि, दुर्लभ भेंट, इस टिप्पणी के साथ- ‘मूल स्क्रिप्ट की यह छायाप्रति अहमदाबाद के श्री मोहनिशभाई  पटेल के सौजन्य से प्राप्त हुई है और हावर्ड यूनिवर्सिटी की अनुमति से प्रिंटेड करवाई है।’

गीतांजलि के दसियों अनुवाद हुए, कुछ की चर्चा हुई, कुछ गुम हो गए। 2006 में, शब्दसृष्टि (शिल्पायन) नई दिल्ली से व्यंकटराव यादव का गीतांजलि का हिंदी पद्यानुवाद आया। ख्यात साहित्यकार डॉ राममूर्ति त्रिपाठी ने लिखा- नवजागरण की सांस्कृतिक चेतना का दार्शनिक स्वर विवेकानंद हैं और काव्यात्मक स्वर टैगोर। गीतांजलि उसी का सार्वभौम शिखर है। व्यंकटराव यादव  ने प्रयास किया है कि उस काव्य के मूल स्वर को पकड़कर अपनी भाषा में उस इत्र को उंडेल दिया जाए।

स्रोत-भाषा से लक्ष्य-भाषा में रूपांतरण मूल रचना से भी ज्यादा कठिन होता है।यादव जी में लय-बोध तो है, भाव-बोध की भी क्षमता है। यह अवश्य है कि जो रचना रचना को माध्यम बनाकर स्वतः स्फुरित होती है उसकी थाह लगाना अनुवादक के लिए चुनौती होता है। एक उदाहरण स्रोत भाषा से लें- प्रभु तुमने मुझे अनंत बनाया है, तुम्हारी लीला ऐसी विचित्र है, तुम इस क्षणभंगुर पात्र को बार-बार खाली करते हो और फिर फिर उसे नवजीवन से भरते हो। अब लक्ष्य भाषा में कमाल देखें- कैसी लीला प्रभो तुम्हारी, मुझे बनाते सीमाहीन? जर्जर घट रीता कर इसमें भरते जीवन  नित्य नवीन?

हिंदी, असमिया, कन्नड़, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगू, मलयालम में  अनुवाद, उर्दू में तर्जुमा, अंग्रजी में ट्रांसलेशन, इधर लिप्यंतरण भी चलन में है, खैर जो भी हो भाव  भाषा में व्यक्त होते हैं तभी अनुवाद की सीमा में आते है। कवि केशवदास कहते हैं ‘सुबरन को खोजत फिरत’ यानी लेखक जिस तरह से शब्दों की व्यवस्था करता है, व्याख्या करता है अनुवादक की पकड़ ठीक-ठीक वैसी ही  होनी चाहिए। कहते हैं गुरुवर रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी गीतांजलि का अनुवाद  स्वयं अंग्रेजी में किया था, जिसे अपने अनूदित रूप में ही नोबेल प्राइज से नवाजा गया जबकि मूल बांग्ला में रची गीतांजलि की छंद योजना, शब्द अलंकार अंग्रेजी अनुवाद में नहीं आ सका था यानी  यह अनुवाद नहीं आसां बस इतना समझ लीजे। डूबे बिना कुछ हासिल नहीं, विविधता के बीच धड़कते मानव को पकड़ना अनुवादक की सामर्थ्य का काम है। उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम या सुदूर ब्लैक लिटरेचर, दर्द कहीं भी, कैसे भी हांक लगाए, आदमी ही आदमी के दर्द को समझेगा, उसे अपनाएगा।

नदियों को जोड़ने की, गांव को सड़कों के माध्यम से जोड़ने की मुहिम चली है। अनुवाद की मार्फ़त भाषाओं को जोड़कर हम अपने बीच के विभाजन  को दरका सकते हैं। सामान्य व्यावहारिक अनुवाद की बनिस्बत साहित्यिक अनुवाद ज्यादा जटिल होते हैं, मूल लेखक तो अपनी  भाषा का जानकार होता है पर अनुवादक को मूल लेखक की भाषा की जानकारी  के साथ-साथ अनुवाद की जानेवाली भाषा की गहरी जानकारी होनी चाहिए। इस कसौटी पर गीतांजलि के हिंदी पद्यानुवादक व्यंकटराव यादव खरे उतरते हैं।

बकलम व्यंकट राव यादव- महान कृति गीतांजलि का देवनागरी लिपि में छपे मूल बांग्ला और उसके हिंदी रूपांतरण से उसे पद्यबद्ध करना कठिन था, यह  बताने के लिए मुझे महाकवि कालिदास से क्षमा-याचना सहित उनके ही शब्दों में कहना उपयुक्त लगता है -“तितीर्षु दुस्तरं घोरं उडुपेनास्मि सागरम” अर्थात यह कार्य  ऐसा है कि जैसे गरजते हुए घोर सागर को छोटी सी डोंगी के सहारे पार करने की इच्छा करना। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने गुरुदेव के काव्य  पर कबीर के रहस्यवाद का प्रभाव बताया है। यादव कहते हैं मुझे एक कवि की दो पंक्तियाँ याद आती हैं –

संतों की उच्छिष्ट उक्ति है मेरी बानी,

जानूँ उसका मर्म भला मैं क्या अज्ञानी?

यदि अनुवादक की धृष्टता क्षमा हो तो  वह यह कहने की जुर्रत कर सकता है कि कबीर के रहस्यवाद के दूध में, तुलसी के विनय का जामन डालकर जमाए हुए दही को, मीरा की मधुरा भक्ति की मथानी से यदि स्वयं कवीन्द्र रवीन्द्र द्वारा मथा जाए तो इस प्रकार मथकर निकला हुआ नवनीत ही गुरुदेव की गीतांजलि है। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान में खूब छपे व्यंकटराव यादव ने महाकवि कालिदास के खंडकाव्य मेघदूत का मालवी में अनुवाद किया, भर्तृहरि  के नीति शतक का हिंदी में अनुवाद किया, मालवी कहावत कोश पर भी कार्य किया। इसमें से बहुत सा प्रकाशित   हुआ, बहुत सा प्रकाशन की  बाट जोह रहा है। हिंदी पद्यानुवाद से बानगी के रूप में एक रचना –

     ‘मेरा अहं’

निकल पड़ा हूँ घर से बाहर

करने को तुमसे अभिसार,

कौन चल रहा साथ-साथ यह

यद्यपि घनीभूत अंधियार?

 

सन्नाटे से मैं डरता हूँ

चाहूँ इससे छूटे लक्ष्य,

आफत टले, सोच, टल चलता

किन्तु दीखता फिर प्रत्यक्ष।

 

चंचल, चपल, विषम चरणों से

चल करता धरणी कम्पित,

ऊपर रहे बात अपनी ही

सदा चाहता वह दर्पित।

 

अहं भाव यह मेरा ही है प्रभु!

इसको आती तनिक न लाज,

पर मैं लज्जित, आऊं कैसे

तेरे  द्वारे ले यह आज ?

 

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