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जेपी की कारावास की कहानी – पाँचवीं और अंतिम किस्त

by Rajendra Rajan
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(26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई तो जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर तत्कालीन सरकार ने जेल में डाल दिया। विपक्षी दलों के तमाम नेता भी कैद कर लिये गए। कारावास के दौरान जेपी को कुछ लिखने की प्रेरणा हुई तो 21 जुलाई 1975 से प्रायः हर दिन वह कुछ लिखते रहे। जेल डायरी का यह सिलसिला 4 नवंबर 1975 पर आकर रुक गया, वजह थी सेहत संबंधी परेशानी। इमरजेन्सी के दिनों में कारावास के दौरान लिखी उनकी टिप्पणियां उनकी मनःस्थिति, उनके नेतृत्व में चले जन आंदोलन, लोकतंत्र को लेकर उनकी चिंता, बुनियादी बदलाव के बारे में उनके चिंतन की दिशा और संपूर्ण क्रांति की अवधारणा आदि के बारे में सार-रूप में बहुत कुछ कहती हैं और ये ‘कारावास की कहानी’ नाम से पुस्तक-रूप में सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी से प्रकाशित हैं। आज जब लोकतंत्र को लेकर चिंता दिनोंदिन गहराती जा रही है, तो यह जानना और भी जरूरी हो जाता है कि जेपी उन भयावह दिनों में क्या महसूस करते थे और भविष्य के बारे में क्या सोचते थे। लिहाजा कारावास की कहानी के कुछ अंश हम किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। यहां पेश है पाँचवीं और अंतिम किस्त।)

6 सितम्बर

विरोधी राजनीतिक दलों के साथ बिहार आन्दोलन तथा अन्य ऐसे आन्दोलन का सम्बन्ध जुड़ने का जो प्रश्न है, उसने हमारे बहुत सारे बौद्धिक मित्रों तथा शुभेच्छुओं को चिन्तित किया है। मुझे भी इससे कम चिन्ता नहीं है। जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो अपने आप से पूछता हूँ कि क्या मैंने गलती की। अगर हाँ, तो वह गलती क्या थी? आन्दोलन के दौरान भी मैंने यह प्रश्न अपने आप से बार-बार पूछा। इसके उत्तर क्या थे और क्या हैं? इसमें सन्देह नहीं कि यदि विरोधी दलों के साथ यह आन्दोलन जुड़ नहीं जाता तो उसका चरित्र, उसकी प्रायोगिक उपयोगिता उसका शिक्षणात्मक मूल्य अक्षुण्ण रहता। साथ ही जनता में ऐसी सामर्थ्य पैदा करने की उसकी क्षमता भी अक्षुण्ण रहती, जिससे कि वह अपनी समस्याओं को अपनी आँखों से (दलों की आँखों से नहीं) देख सके और उन्हें हल करने के लिए यथाशक्त्ति प्रयत्न करने का दायित्व-बोध उसको हो सके। इसके साथ ही वह अपने-आपको तथा अपने भौतिक एवं सामाजिक परिवेश को बदल सके और यदि इस प्रक्रिया में शान्तिमय प्रतिकार या असहयोग आवश्यक हो तो वह भी अकेले या सामूहिक रूप से अर्थात् बहुसंख्यक जनता के साथ (उदाहरणार्थ जनान्दोलन के द्वारा) कर सके।

परन्तु जब आदर्श कार्यरूप में परिणत किया जाता है, तो वह कुछ धूमिल हो ही जाता है। पहली कठिनाई यह थी कि किसी मुक्त जनान्दोलन में राजनीतिक दलों को शामिल होने से रोकना सम्भव नहीं है। जब कभी ऐसी कोशिश होगी, यह कठिनाई सामने आएगी। यह सच है कि यदि आन्दोलन केवल सर्वोदय कार्यकर्ताओं तक सीमित रहता और उसका सिद्धान्त सत्तारूढ़ दल सहित सभी राजनीतिक दलों से अलग रहने का ही होता तो उन्हें अलग रखा जा सकता था। लेकिन तब वह जनान्दोलन नहीं होता।

इस कठिनाई का दूसरा पहलू यह है कि आन्दोलन मैंने शुरू नहीं किया। जो आन्दोलन चल रहा था, उसका नेतृत्व मैंने ग्रहण किया और उसे दिशा, विस्तार और गहराई दी। मुझे भय है कि किसी दूसरी जगह, दूसरे समय में जो दूसरे लोग भी जनान्दोलन खड़ा करना चाहेंगे, उन्हें ऐसी ही स्थितियों का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा शुरू में बिहार का यह छात्र-आन्दोलन सचमुच एक निर्दलीय आन्दोलन था और उसके कार्यक्रमों में भाग लेनेवाले 80 से 90 प्रतिशत युवकों और युवतियों का किसी राजनीतिक दल से सम्बन्ध नहीं था। उस समय उसका नेतृत्व निश्चय ही ऐसे छात्र एवं छात्रेतर युवकों के हाथ में था जिनका विभिन्न दलों से शक्तिशाली सम्बन्ध था और जो निस्संदेह बाहरी दलीय नेताओं से मार्ग-दर्शन प्राप्त करते थे।

जो दल आन्दोलन में शामिल थे, वे मुख्यतः चार थे- जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोकदल और संगठन कांग्रेस। कई विश्वविद्यालय–केन्द्रों में जनसंघ सबसे शक्तिशाली घटक था, तो कहीं भालोद तथा सोपा का प्रभाव अधिक था। संचालन समीति (छात्र संघर्ष समिति की) में कांग्रेस संगठन का नेतृत्व काफी प्रौढ़ तथा प्रभावकारी था, यद्यपि संख्या की दृष्टि से वह कमजोर था।

यही थी परिस्थिति जब मेरा सम्बन्ध बिहार के छात्र-आन्दोलन से जुड़ा। राजनीतिक दल वहाँ पहले से मौजूद थे। वास्तव में, सभी वस्तुनिष्ठ प्रेक्षक यह स्वीकार करेंगे कि मेरे प्रभाव के कारण दलों का प्रभाव कम रहा और एक आम राय विकसित करने में मदद मिली। साथ ही आन्दोलन को, अर्थात् शुरू के छात्र आन्दोलन और बाद के जनान्दोलन को एक निर्दलीय राजनीतिक स्वरूप प्राप्त हुआ।

दलों के साथ-साथ एक निर्दलीय जनान्दोलन की इस समस्या का एक दूसरा और सिद्धान्ततः सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू भी है। यह सुविदित है कि गुजरात और बिहार में आन्दोलनों की शुरुआत कुछेक माँगों से या राज्य सरकार पर लगाये गये आरोपों से हुई। जैसे, भ्रष्टाचार (विशेषकर शासनगत), बेरोजगारी, शैक्षिक सुधार (या क्रान्ति) तथा परीक्षा, प्रवेश, छात्रावास आदि के सम्बन्ध में छोटी-छोटी शिकायतें इन आन्दोलनों का आधार बनीं। जैसा कि मैंने पहले इन टिप्पणियों में कहा है, यह राज्य सरकार के ही ऊपर था कि वह मैत्रीपूर्ण ढंग से छात्रों को बुलाकर उनकी माँगों के बारे में बातचीत करती और उनकी पूर्ति के लिए कुछ कदम उठाती। परन्तु जब इन दोनों राज्यों में सरकार ने संघर्ष का रास्ता चुना तो सरकार के विरुध्द संघर्ष अनिवार्य हो गया।

इस परिस्थिति ने विरोधी दलों को तत्काल उसी तरह आकर्षित किया, जिस तरह शहद मक्खियों को आकर्षित करता है। ऐसी स्थिति में कोई क्या करता? इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि सरकार के साथ संघर्ष टालने की कोशिश की जानी चाहिए, जैसा कि विनोबाजी मुझसे चाहते थे। (अवश्यमेव उनके कारण भिन्न थे जैसा कि मैंने इन्हीं पृष्ठों में पहले बताया है।) प्रश्न यह है कि क्या आप ऐसा कर सकते हैं? देश की वर्तमान स्थिति में जिस ढंग की सरकार हमारी है, उसके साथ कोई भी व्यक्त्ति, कम से कम ऐसा कोई भी व्यक्त्ति संघर्ष टाल नहीं सकता, जिसका किसी दल से सम्बन्ध नहीं है और इसलिए दलीय उद्देश्यों के लिए हर परिस्थिति का शोषण करने की जिसमें प्रेरणा नहीं है, और जो शान्तिमय क्रान्तिकारी आन्दोलन अर्थात् एक ऐसा आन्दोलन शुरू करने के लिए उत्सुक है जो समाज में तथा सामाजिक मानसिकता में बुनियादी परिवर्तन लाने वाला हो। परन्तु अगर एक ऐसा चमत्कार होता है कि शासन तथा सत्तारूढ़ दल ऐसे क्रान्तिकारी आन्दोलन के साथ सहयोग करने के लिए आगे बढ़ता है तो यह एक खुशी की बात होगी, अफसोस की नहीं।

लेकिन मैं नहीं देखता कि श्रीमती गांधी के अधीन कांग्रेस कभी भी ऐसा आचरण करेगी। विरोधी दलों के बारे में अभी क्या कहा जाय? क्या वे इससे बेहतर ढंग से पेश आयेंगे? यह अभी देखना बाकी है। मैं व्यक्त्तिगत रूप से समझता हूँ कि कम से कम बिहार में और सम्भवतः दूसरे राज्यों में भी वे ऐसा आचरण करेंगे, बशर्ते कि उन राज्यों में भी परिवर्तन के लिए लोकप्रिय आन्दोलन हुए हों। अब हम इस सवाल के आखिरी हिस्से पर पहुँचते हैं।

क्या बिहार की तरह के जनान्दोलन में राजनीतिक दलों का शामिल होना अमिश्रित बुराई है? इसमें जो दोष हैं वे बिलकुल स्पष्ट हैं। उन दोषों की तरफ संक्षेप में ऊपर संकेत किया गया है और उन पर विशद रूप से हर मैत्रीपूर्ण एवं समझदार आलोचक ने प्रकाश डाला है। परन्तु पहली बात तो यह है कि एक ऐसे मुक्त आन्दोलन से जिसमें कालेज के छात्रों और जनता का एक बड़ा हिस्सा शामिल हो, किसी को अलग रखना असम्भव ही है जैसा कि मैं ऊपर बता चुका हूँ। आखिर जो दल बिहार के आन्दोलन में आये, वे दलों के रूप में तो नहीं आये। उनके नेता, कार्यकर्ता और उऩके हमदर्द व्यक्तिगत रूप से आये। इन दलों ने सहज ही आन्दोलन के बाहर आयोजित अपनी औपचारिक बैठकों में आन्दोलन का पूर्ण समर्थन करते हुए प्रस्ताव पारित किये थे और वक्त्तव्य प्रसारित किये थे।

लेकिन फिर यह सवाल उठता है कि क्या विरोधी दलों का शामिल होना अमिश्रित बुराई था। बिना किसी हिचकिचाहट के मेरा उत्तर है- नहीं। क्योंकि उनके शामिल होने का पहला परिणाम तो यह है कि इससे आन्दोलन को बल मिला है, और यह बात इतनी स्पष्ट है कि इसमें बहस की कोई गुंजाइश हो ही नहीं सकती। परन्तु इससे भी महत्व की बात यह है कि इस प्रक्रिया से गुजरने वाले दल पूरी तरह परिवर्तित हो जाते हैं। यह ठीक है कि ऐसा उस प्रदेश में नहीं होगा, जहाँ आन्दोलन का शक्त्तिशाली निर्दलीय नेतृत्व नहीं है। परन्तु बिहार में तो ऐसा हुआ है। यहाँ सभी संलग्न दल सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए तथा परिवर्तन के प्रक्रिया-स्वरूप संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।

अपने बौद्धिक मित्रों को इस महान सम्भावना पर विचार करने के लिए मैं आमंत्रित करता हूँ। अभी तक हमने शासन से टकराव के रूप में छात्र-संघर्ष और जन-संघर्ष देखा है। इस बात की हर सम्भावना है कि बिहार में अगले चुनाव के बाद हम एक ऐसा जन-संघर्ष देखेंगे जो राज्य सरकार के सहयोग से चलेगा। मुझे आशा है कि बिहार में जिस अग्नि-परीक्षा से विरोधी पक्ष गुजरा है, वह सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए उनकी प्रतिबद्धता को फौलादी रूप प्रदान करेगी। यदि वैसा होने के पहले ईश्वर ने मुझे उठा लिया तो वह सपना ही रह जायेगा, यह मैं स्वीकार करता हूँ। परन्तु यह अनुभव व्यर्थ नहीं जायेगा और बाद में कोई और इस अधूरे काम को पूरा करने के लिए आगे आयेगा।

9 अगस्त 1975

(जेपी की चंडीगढ़ में नजरबंदी के दौरान लिखी गयी कविता)

जीवन विफलताओं से भरा है,

सफलताएं जब कभी आयीं निकट,

दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से!

तो क्या वह मूर्खता थी?

नहीं।

सफलता और विफलता की परिभाषाएं

भिन्न हैं मेरी।

इतिहास से पूछो

कि वर्षों पूर्व बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या?

किन्तु मुझ क्रान्तिशोधक के लिए

कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे

पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के;

पथ संघर्ष के, सम्पूर्ण क्रांति के।

जग जिन्हें कहता विफलता,

थीं शोध की वे मंजिलें।

मंजिलें वे अनगिनत हैं,

गंतव्य भी अति दूर है।

रुकना नहीं मुझको कहीं

अवरुद्ध जितना मार्ग हो।

निज कामना कुछ है नहीं,

सब है समर्पित ईश को।

तो, विफलता पर तुष्ट हूँ अपनी

औ’ यह विफल जीवन

शत-शत धन्य होगा –

यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का

कंटकाकीर्ण मार्ग

यह कुछ सुगम बना जाए।

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