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शोक समाचार : मेजर खान नहीं रहे

by Rajendra Rajan
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18 मई। किसान आंदोलन ने सोमवार को अपने एक नायाब साथी मेजर खान को खो दिया। पटियाला के झंडी गांव के रहनेवाले मेजर खान पगड़ी पहनते थे, सो सिख जैसे दिखते थे लेकिन थे मुसलमान, जैसा कि उनके सरनेम खान से भी जाहिर है। वह एक गरीब परिवार में जनमे थे। फौज में भर्ती हुए और चौबीस साल फौजी की नौकरी की। नायब सूबेदार के पद से सेवानिवृत्त हुए। मेजर खान उनका दूसरा नाम हो गया।

जो लोग किसान आंदोलन को दूर से या केवल मीडिया के जरिए जानते हैं, उनके लिए यह समझना मुश्किल होता है कि इतनी बड़ी भागीदारी के साथ यह आंदोलन इतने लंबे समय से कैसे चल रहा है। ऐसे लोग मेजर खान के जज्बे के उदाहरण से किसान आंदोलन की ताकत को समझ सकते हैं।

मेजर खान के पास एक टुकड़ा भी जमीन नहीं थी फिर भी वह न सिर्फ किसान आंदोलन में शामिल हुए बल्कि समर्पण की मिसाल बन गए। पिछले साल 26 नवंबर से, जब से दिल्ली की सरहदों पर धरना शुरू हुआ, वह उसमें शामिल रहे। वह एक दिन के लिए भी घर नहीं गए। चाहे मीडिया से बात करनी हो, साफ-सफाई या भोजन की तैयारी में लगना हो या मीटिंग आयोजित करना हो, मेजर खान हर काम के लिए तत्पर रहते थे और करते थे। उनकी जिंदादिली,‌ मिलनसारिता और खुशमिजाजी ने भी उन्हें किसान आंदोलन में सबका चहेता साथी बना दिया था। इसलिए स्वाभाविक ही मेजर खान की मौत की खबर सुनकर किसानों के धरना स्थलों पर सभी लोग गहरे सदमे में थे।

मेजर खान ने संकल्प कर रखा था कि किसान आंदोलन की जीत होने पर ही वह घर लौटेंगे। और वह 26 नवंबर से लगातार सिंघु बार्डर पर ही जमे रहे। कोविड ने ‌किसान आंदोलन के इस अनमोल रत्न को छीन लिया।

मेजर खान के निधन पर संयुक्त किसान मोर्चा ने जहां शोक व्यक्त करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की है वहीं उनके अटूट संकल्प को भी याद किया है।

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