— उमेश प्रसाद सिंह —
पारस का प्रत्यय न जाने कबसे मनुष्यजाति की स्मृति में बसा है। स्मृति की सत्ता सजीव सत्ता है। स्मृति में पड़ी हुई चीजें स्मृति से स्मृति में चलती चली आती रहती हैं। स्मृति में किसी भी रूप में सुरक्षित चीजों के जीवित होने में कोई संदेह नहीं किया जा सकता। मनुष्य जीवन के काम की न रह जाने वाली चीजें तो विस्मृति के विशाल गर्भ में हमेशा के लिए विलीन हो जाती हैं। जो विलीन हो जाने से बचा हुआ है, वह सब किसी न किसी तरह से मनुष्य के भविष्य के लिए अवश्य ही मूल्यवान है। हमारी सुदीर्घ जीवन यात्रा में जो विश्वास है, वे विचार ही हैं। परीक्षित होकर सामूहिक जीवन में अपने सहायक होने को सिद्ध कर चुके विचार विश्वास की पदवी प्राप्त कर लेते हैं।
पारस यथार्थ से अधिक मिथक है। मिथक यथार्थ नहीं है ऐसा कहने की धृष्टता करने का साहस मुझमें नहीं है। जो यथार्थ नहीं है, भला वह मिथक कैसे हो सकता है। नहीं कभी नहीं हो सकता। वह तो कुछ भी नहीं हो सकता। जो यथार्थ नहीं है, वह बस नहीं है। सृष्टि में सारी चीजें स्थिर नहीं हैं। सबकुछ गतिशील है। सबकुछ बदलता हुआ है। यथार्थ, कल्पना, मिथक, इन सबकी एक दूसरे में आने-जाने की अन्तर्यात्रा चलती रहती है। मनुष्य जीवन की मूल्यवान चीजें सतही नहीं होतीं। केवल सबसे ऊपरी सतह पर स्थित दिखाई देने वाली चीजें ही जीवन के लिए जरूरी नहीं होतीं। जीवन की सचाई बहुत व्यापक होती है।
व्यापक सत्य एक नहीं अनेक सतह पर कई-कई धरातल पर प्रतिष्ठित रहता है। मनुष्य की चेतना की भी अनेक सतहें हैं। बिल्कुल उथली और बहुत गहरी भी। जो सबसे ऊपर है। ऊपर-ऊपर है, वह भी अवास्तविक नहीं है। जो बहुत गहरे में है, वह भी झूठ नहीं है। हम जितने से परिचित हैं, उतना ही सच नहीं है। जिनसे हमारा परिचय नहीं है, वे स्वरूप भी सच के ही स्वरूप हैं। अपने परिचय को ही सच की सीमा मान लेने का आग्रह सोच की क्षुद्रता का निर्दशन है। मनुष्य की अस्मिता विराट अस्मिता है। किसी भी तरह की लघुता की उपासना विराटता के विपरीत है। यह मनुष्य से अधिक मनुष्यता के विस्तार का निषेध है। अवमूल्यन है। उपहास है। तिरस्कार है। किसी भी बात का निषेध, किसी भी विचार की अस्वीकृति हमेशा सीमा की स्थापना है। सारी सीमाएँ, असीम की अवलेहना की प्रायोजक सिद्ध होती हैं।

पेंटिंग – डॉ विजय सिंह
पारस की परिकल्पना मनुष्य के मस्तिष्क में पत्थर के रूप में है। अधिक मूर्त, अधिक ठोस और अधिक जड़ स्वरूप में। वैसे जड़ और चेतन की धारणा भी एक सापेक्षिक धारणा ही है। वैसे समूचा सृजन चेतना की, परम चेतन की ही अभिव्यक्ति है। जड़ में भी चेतनता का नितान्त अभाव परिलक्षित नहीं होता। चेतनता का रूप और आकार निर्धारित कर पाना बहुत कठिन और दुष्कर कार्य है। शायद इसलिए प्रज्ञावान पुरुषों ने अधिक सूक्ष्म अवबोध को इन्द्रियग्राह्य रूपाकारों में प्रकल्पित करने की परिपाटी का आविष्कार किया है। सूक्ष्मतम चेतनता में भी एक विचित्र प्रकार की स्थूलता संभावित रहती है। मनुष्य के मन में महत्तम चीजों को पकड़ रखने की लालसा हमेशा से ही बलवती रही है। हो सकता है, उनकी इसी वांछा ने पारस को ठोस, अचल और आसानी से हाथों में पकड़ रखने के योग्य पत्थर के छोटे सुघड़ टुकड़े के रूप में देखने का अपना आग्रह कल्पित कर रखा हो। जो भी हो अधिकार के साथ कुछ कह पाना सरल नहीं है।
मैंने पारस कभी देखा नहीं है। पत्थर के रूप में तो कत्तई नहीं। मैं ही नहीं मेरे जानने में आने वाले सारे लोगों में से किसी ने नहीं देखा है। इतना ही नहीं उन तमाम लोगों की जान-पहचान के दायरे में आने वालों में से भी किसी ने नहीं देखा है। बड़ा अजीब है, देखा किसी ने नहीं है। मगर पारस है, हर किसी के जेहन में। हर आदमी की स्मृति के किसी कोने में पारस सुरक्षित है।
किसी चीज का न होकर भी होना मनुष्य जीवन में उसके होने की महत्ता को प्रतिपादित करता है। उसके होने की मनुष्य की आन्तरिक अभीप्सा को उदघाटित करता है। ये बातें मिथक की अर्थवत्ता और उसकी जीवन में उपस्थिति को आधार प्रदान करती हैं। किसी जड़ वस्तु में संवेदना के गहरे स्रोत की उपस्थिति की झलक को देख पाने की अन्तर्चेतना का स्वभाव मनुष्य के व्यापक जीवन विस्तार का एक धरातल है। जीवन की गहन गहराई की एक सतह है। संवेदना की गहरी तरलता का जड़ होकर पत्थर बन जाने की विडम्बना, उसके पथरा जाने की पीड़ा की पहचान उसी व्यापक जीवन का दूसरा धरातल है। उसकी गहराई के किसी तल पर स्थित दूसरी सतह है। संवेदना के अलग-अलग तरह के धरातलों और सतहों पर फैले मनुष्य जीवन के रंगों और आस्वादों के मर्म सहेजने की मनुष्य की चेष्टा मिथक की गरिमा का आधार है।

पेंटिंग – मो. सज्जाद इस्लाम
संवेदना के अथक संवाहक शब्दों को कभी आपने पत्थर होते देखा है? मनुष्य देख पाता तो कितना सौभाग्यपरक होता। मगर हमारा समय शब्दों के पत्थर हो जाने के अभूतपूर्व दुर्भाग्य का समय बन गया है। हमारा समय न जाने किसके कठिन अभिशाप से अभिशप्त समय बन गया है। न जाने क्यों, न जाने कैसे आदमी के देखते-देखते हमारे समय में आदमी पत्थर बन गया है। सबकुछ देख रहा है, मगर कुछ भी नहीं देख रहा है। सबकुछ सुन रहा है, मगर कुछ भी नहीं सुन रहा है। हमारे समय के शब्द पत्थर बन गए हैं। हम पत्थर बन चुके शब्दों के अभिमानी समय के आदमी हैं। हम नहीं जानते कि यह हमारा सौभाग्य है या दुर्भाग्य। हमारे समय में पत्थन की जबान से आदमी पत्थर बन चुके शब्दों को आदमी के ऊपर फेंक रहा है। बड़ा गजब है, आदमी का सिर नहीं फूट रहा है। हाथ-पाँव नहीं टूट रहा है। आदमी, शब्दों की चोट खाकर भौचक देखता रह जाता है। वह देखता रह जा रहा है कि उसके भीतर का आदमी मामूली सी चोट से मर गया है। जीवन रस को जगाने वाले शब्दों का अकाल पड़ गया है हमारे समय में। आदमी के भीतर की पुलक को सहलाने वाले शब्द हमारे समय में कहीं नहीं हैं।
पत्थर का देवता बन जाना मनुष्य के सौभाग्य के अनन्त विस्तार का सूचक है। देवता का पत्थर बन जाना मनुष्य के असमाप्त दुर्भाग्य का जनक है। संवेदना की सरिता के कल-कल प्रवाह में पत्थरों से टकराकर फूटते शब्दों में अखंड आनन्द के स्रोत की तरफ संकेत मनुष्य के असीम सौभाग्य का सार्वजनिक उदघोष है। पत्थर का किसी को छूकर बदलने की अभिक्रिया का वाचक पारस बन जाना समय का परम सौभाग्य। पारस का स्पर्श से रूपान्तरण की सामर्थ्य को खोकर पत्थर बन जाना समय का दुर्वह अभिशाप है। वरदान और अभिशाप के दो सुदूर छोरों के बीच फैले मनुष्यजाति के जीवन का मार्मिक सत्य मिथक के प्राणों में समाहित है। जब तक मनुष्यजाति की जीवनयात्रा जय-पराजय, उत्थान-पतन, उत्कर्ष-अपकर्ष, दुख-सुख और वीरता-कायरता के विचारों के बीच प्रवाहित रहेगी, मिथक मरेंगे नहीं। मनुष्य की जिजीविषा का गौरवरगान मिथक में गूँजता रहेगा। मिथक मनुष्यजाति की अन्तर्चेतना में अमृत जिजीविषा के आलोक और वैभव के जीवित साक्ष्य हैं।
पारस, परस की अद्भुत महिमा की वाचक संज्ञा है। स्पर्श से सृजन की गरिमा जहाँ प्रगट हो उठती है, वहाँ पारस प्रगट हो उठता है। जिससे परस जाने भर से परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाय, वह सब पारस है। पारस मनुष्य की वह प्रकृति है, जिसमें आत्मा की गहराई प्रतिबिम्ब है। पारस मनुष्य का वह व्यवहार है, जिसमें उसका हृदय प्रवाहित है। पारस हमारे वे शब्द हैं, जिनमें हमारे अस्तित्व के मूल का रस समाहित है। पारस हमारी विरासत का वह साहित्य है, जिसमें हमारे स्रष्टा ने अपनी अस्मिता के सारे रसकोश को उलीच कर भर दिया है।
शब्दों में अर्थ पहले से मौजूद नहीं होते। शब्दों में रस पहले से उपलब्ध नहीं रहता। शब्दों में आकर्षण की शक्ति पहले से समाहित नहीं रहती। नहीं, शब्दों में अर्थ, रस और आकर्षण की अमिट शक्ति भरता है, अपने जीवन रस से, अपनी जीवन सम्पदा से, अपनी जीवन शक्ति से शब्दों का प्रयोक्ता। जिन शब्दों में मनुष्य का समूचा मन समाहित होकर सम्पुटित हो जाता है, शब्द मंत्र बन जाते हैं। जिन शब्दों में मनुष्य की प्राणधारा समावेशित हो जाती है, प्रार्थना के पुकार के स्रोत बन जाते हैं। जिन शब्दों में हमारी संवेदना समाकर उनको समावेशित कर लेती है, वे शब्द अपने स्पर्श से अन्तःकरण का पूरा स्वरूप बदल देते हैं। शब्दों की पुकार पर परमात्मा के प्रगट होने की सचाई, भुला देने के योग्य नहीं है।

पेंटिंग…. स्वप्न दास
राम के स्पर्श मात्र से पत्थर से अहिल्या के प्रादुर्भाव की सचाई, केवल कहानी नहीं है। जिनके लिए केवल कहानी है, उनके लिए पारस का कोई मलतब नहीं है।
कृष्ण के केवल छू देने भर से कंस की दासी कुब्जा का अपूर्व सौन्दर्य की स्वामिनी के रूप में रूपान्तरण की घटना का जिनके निकट कोई महत्त्व नहीं, उनके समक्ष पारस की महिमा का मर्म हमेशा अवगुंठित ही रहने योग्य है। जिनके लिए ये बातें सतयुग और त्रेता की बीती हुई बातें है, उनके बीच पारस के बारे में कोई भी वार्ता व्यर्थ है। जिन्होंने स्पर्श के जादू का चमत्कार जीवन में कभी नहीं देखा, उनकी दयनीयता का अनुमान भी अत्यन्त पीड़ाजनक है। दरिद्रता के अछोर विस्तार में पारस कहीं नहीं है। जहां भी पारस है, दरिद्रता असंभावित है।
हमारी विरासत दरिद्रता की विरासत नहीं है। क्या आपने प्राणों की विकल रसधारा से प्रकम्पित किसी हाथ से छू जाने से जड़ देह में पुष्पित हो उठी नारी चेतना को कभी देखा है? हाँ, तो आपके पास भी पारस है। पारस की महिमा धारण करने की दक्षता आपमें मौजूद है। हर मनुष्य के भीतर कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पारस के अनगिनत प्रकल्पों में से कोई न कोई प्रकल्प अवश्य स्थित है। अँधेरे कान्तर में ही सही मगर वह है जरूर।
पारस के अनेक प्रकल्पों के बीच साहित्य भी एक उत्कृष्ट प्रकल्प है। वह स्पर्श की अद्भुत महिमा का अथक उद्गाता है। वह स्वयं तो प्रकाशित है ही। दूसरे स्वरूपों में स्थित पारस की पहचान के लिए प्रकाश का प्रदाता भी है। साहित्य नाम, रूप और रस के स्पर्श के चमत्कार के वैभव का अमिट अभिलेख है। साहित्य कह रहा है कि मनुष्य जाति के पास अनमोल पारसमणि है। जब तक पारस है, वह दरिद्र होने से बची रहेगी, बशर्ते उसे पहचानने में प्रवृत्त रहे।
साहित्य जब तक रहेगा, पुकार पुकार कर कहता रहेगा, पारस को पत्थर नहीं होना चाहिए।