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मुक्तिबोध की कविता

by Rajendra Rajan
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गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917 – 11 सितंबर 1964)

मुझे कदम-कदम पर

 

मुझे कदम-कदम पर

चौराहे मिलते हैं

बाँहें फैलाये!!

 

एक पैर रखता हूं

कि सौ राहें फूटतीं,

व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूं;

बहुत अच्छे लगते हैं

उनके तजुर्बे और अपने सपने….

सब सच्चे लगते हैं;

अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,

मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूं,

जाने क्या मिल जाए!!

 

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में

चमकता हीरा है,

हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,

प्रत्येक सुस्मित में विमल सदा नीरा है,

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में

महाकाव्य-पीड़ा है,

पल-भर मैं सबमें से गुजरना चाहता हूं,

प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूं,

इस तरह खुद ही को दिये-दिये फिरता हूं,

अजीब है जिन्दगी!!

बेवकूफ बनने के खातिर ही

सब तरफ अपने को लिये-लिये फिरता हूं;

और यह देख-देख बड़ा मजा आता है

कि मैं ठगा जाता हूं…

हृदय में मेरे ही,

प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है

हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,

कि जगत्…स्वायत्त हुआ जाता है।

 

कहानियां लेकर और

मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते

जहां जरा खड़े होकर

बातें कुछ करता हूं…

…उपन्यास मिल जाते।

 

दुख की कथाएँ, तरह-तरह की शिकायतें,

अहंकार-विश्लेषण, चारित्रिक आख्यान,

जमाने के जानदार सूरे व आयतें

सुनने को मिलती हैं।

 

कविताएँ मुसकरा लाग-डाँट करती हैं,

प्यार बात करती हैं।

मरने और जीने की जलती हुई सीढ़ियाँ

श्रदाएँ चढ़ती हैं!!

 

घबराये प्रतीक और मुसकाते रूप-चित्र

लेकर मैं घर पर जब लौटता…

उपमाएँ, द्वार पर आते ही कहती हैं कि

सौ बरस और तुम्हें

जीना ही चाहिए।

 

घर पर भी, पग-पग पर चौराहे मिलते हैं,

बाँहें फैलाये रोज मिलती हैं सौ राहें,

शाखा-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं

नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय

रोज-रोज मिलते हैं…

 

और, मैं सोच रहा कि

जीवन में आज के

लेखक की कठिनाई यह नहीं कि

कमी है विषयों की

वरन् यह कि आधिक्य उनका ही

उसको सताता है,

और, वह ठीक चुनाव नहीं कर पाता है!!

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