संजय गौतम
किशन पटनायक की किताब ‘बदलाव की कसौटी’ में ‘चौरंगी वार्ता’ में प्रकाशित उनके चुनिंदे लेखों का संग्रह है। इन लेखों का चयन एवं संपादन वरिष्ठ पत्रकार गंगा प्रसाद ने किया है। ‘चौरंगी वार्ता’ का प्रकाशन कोलकाता से 1971-72 में शुरू हुआ और आपातकाल लगने के साथ 1975 में बंद हो गया। जाहिर है कि ये लेख इन तीन –चार वर्षों के बीच लिखे गए। राजनीतिक–सामाजिक विषयों से ताल्लुख रखने और इतने पुराने होने के बावजूद ये लेख वर्तमान राजनीति और लोकतांत्रिक विसंगतियों को समझने में हमारी मदद करते हैं, इसलिए प्रासंगिक हैं।
किशन पटनायक भारतीय राजनीति की विचारशील धारा में डॉ. राममनोहर लोहिया के बाद एक प्रखर द्रष्टा के रूप में आदरणीय हैं। उन्होंने महात्मा गांधी और डॉ. लोहिया के विचारों को सही अर्थ में समझा और पूरे जीवन सही जगह खड़े होकर भारतीय राजनीति में वैचारिक हस्तक्षेप करते रहे। यह अलग बात है कि जिस तरह गांधी के विचारों को छोड़कर नेहरूवाद ने अलग राह पकड़ ली, उसी तरह डॉ. लोहिया के वैचारिक मर्म को त्यागते हुए समाजवादी राजनीति भी तरह –तरह के दलदल में फँस गई। इसीलिए इस राजनीति ने किशन पटनायक जैसे प्रखर विचारक के महत्त्व को दरकिनार कर दिया। किशन पटनायक अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से भारतीय राजनीति की उस पतनशीलता को देख रहे थे, इसलिए छोटे से ऐसे समूह के साथ अलग राह पर चल पड़े, जो लोहिया के विचारों को सच्चे अर्थों में समाज और राजनीति के बीच रखना चाहता था। इस समूह में दिनेश दासगुप्ता, यमुना सिंह, ओमप्रकाश दीपक, डॉ. रमेशचन्द्र सिंह, राम अवतार उमराव, योगेन्द्र पाल, विद्यासागर गुप्त और अशोक सेकसरिया जैसे लोग थे। इसी समूह ने कोलकता से ‘चौंरगी वार्ता’ का प्रकाशन शुरू किया और समाजवादी विचारधारा को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के उत्तरदायित्व का निर्वाह किया। किशन पटनायक पहले डॉ. लोहिया के अंग्रेजी मुखपत्र ‘मैनकाइंड’ में काम कर चुके थे। ध्यान रखना होगा कि 1975 में आपातकाल लगा। ये लेख आपातकाल लगने के चार वर्ष पहले से लिखे जा रहे थे। विस्मित करनेवाली बात यह है कि इस संग्रह के कई लेखों में तानाशाही और आपातकाल की आशंका व्यक्त की गई है।
किशन पटनायक के भीतर विस्मित करनेवाली राजनीतिक संवेदना और तटस्थता थी। इसलिए वह न तो किसी पतनशील राजनीतिक विचार परंपरा के साथ जुड़ते थे, न ही सामयिक राजनीति की तात्कालिक लोभ वाली दलदली जमीन में फँसकर अपनी दृष्टि को धुँधली होने देते थे। इसीलिए सत्ता परिवर्तन की तात्कालिक तिकड़मों से वह दूर होते गये। उन्होंने देख लिया कि संख्यात्मक जोड़-तोड़ से तथा समीकरणात्मक राजनीति से सत्ता में परिवर्तन तो हो सकता है लेकिन इससे समाज की बुनियादी समस्याओं का हल संभव नहीं है। उन्होंने आजीवन बुनियादी सामाजिक–राष्ट्रीय समस्याओं पर अपनी दृष्टि जमाए रखी और प्रचलित विकृत राजनीति का विकल्प तैयार करने का प्रयास करते रहे। उनकी पुस्तक ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ में हमें इस विकल्प का ठोस रास्ता दिखाई पड़ता है। उनकी अन्य किताबों- ‘भारत शूद्रों का होगा’, ‘भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि’, ‘किसान आंदोलनः दशा और दिशा’- में वैकल्पिक राजनीति और समाज व्यवस्था के सूत्र उपलब्ध होते हैं।
1972-75 तक के इन लेखों को पढ़ते हुए महँगाई, बेरोजगारी, उत्पादक-उत्पादन संबंध, तत्कालीन समाजवादी तथा कम्युनिस्ट राजनीति का दिग्भ्रम, तानाशाही की ओर बढ़ते कांग्रेस सरकार के कदम, पूँजीवाद का साम्यवाद से अन्तर्संबंध, नेहरू और गांधी के बीच बुनियादी फर्क, पड़ोसी देशों से रिश्तों में कूटनीतिक विफलता, मध्यवर्गीय मानसिकता, चुनावी राजनीति की विसंगतियों पर हमारी दृष्टि साफ होती है।
इस पुस्तक में महँगाई पर तीन –चार लेख हैं— देश में सर्वग्राही महँगाई का रोग– कारण और उपचार, महँगाई— कारण और उपचार, मंहगाईः एक राजनीतिक समस्या, अध्यादेश की अर्थनीति। इनके अलावा अन्य लेखों में भी प्रसंगवश महँगाई की समस्या पर विचार किया गया है। पहले लेख ‘देश में सर्वग्राही महँगाई का रोग- कारण और उपचार’ में उन्होंने दो-तीन बातों की ओर ध्यान दिया है, जो महँगाई पर चर्चा करते हुए कभी नहीं कही जाती हैं। हमेशा ही वैश्विक लक्षण, माँग में वृद्धि, जमाखोरी इत्यादि की बात कहते हुए समस्या पर चर्चा खत्म कर दी जाती है। किशन पटनायक ने रेखांकित किया है कि भारत में महँगाई की दर अन्य देशों की तुलना में अधिक रहती है। कम होने का तो कभी नाम ही नहीं लेती, जबकि दूसरे देशों में कभी-कभी कम भी होती है। इसका कारण है उत्पादन की सही नीति नहीं होना तथा घाटे की अर्थव्यवस्था चलाना और उसके लिए रुपया अधिक छापना। उनका कहना है कि ऐसा जानबूझ कर किया जाता है ताकि पूँजीपतियों को लाभ दिया जा सके। होना यह चाहिए कि निम्नवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के इस्तमाल की वस्तुओं अर्थात मोटे कपड़े, चीनी, अनाज, दवाओं आदि के उत्पादन का लक्ष्य बनाना चाहिए। पूरे देश के लिए इनका उत्पादन पर्याप्त होना चाहिए, चाहे ये उत्पादन निजी क्षेत्र द्वारा किए जाएं या सरकारी क्षेत्र द्वारा। लेकिन इन वस्तुओं का उत्पादन लक्ष्य न निर्धारित कर कमी बनाए रखी जाती है, दूसरी ओर विलासिता की वस्तुओं और सेवाओं का विज्ञापन कर मध्यवर्ग को लुभाया जाता है। मध्यवर्ग या निम्न मध्यवर्ग के लड़के इनकी ओर आकर्षित होते हैं। परिणामस्वरूप परिवारों में पोषक भोजन पर कटौती होती है। इस अर्थव्यवस्था से पूँजीपति दोनों तरह की वस्तुओं को महँगा करने में सफल होता है और लाभ कमाता है। इसका नतीजा यह होता है कि पैसा उत्पादन के कामों में नहीं लग पाता है, सिर्फ खरीदने के काम में लगता है। ‘उत्पादन खर्च अनुपात से बहुत कम और उड़ाने के खर्च अनुपात से कई गुना अधिक। इससे महँगाई होगी।’ लेकिन हमारी अर्थनीति में इन बुनियादी बातों को न ठीक करके एक भ्रमजाल बनाया जाता है और कभी-कभी जमाखोरों पर ठीकरा फोड़ कर जनता को भरमाया जाता है। किशनजी इसे एक सूत्र के रूप में कहते हैं- ‘उत्पादन की कमी, उसके ऊपर घाटे की अर्थनीति तथा छिपे ढंग से और अधिक घाटे की अर्थनीति- नतीजा मुद्रास्फीति’। इसी अर्थव्यवस्था के चलते बेरोजगारी भी बढ़ती है और काले धन की भूमिका भी। इनसे बचने की कोई बुनियादी कार्रवाई नहीं की जाती है। महँगाई संबंधी अन्य लेखों में भी इसी तरह उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है और सरकार की अर्थनीति को प्रश्नांकित किया गया है। ये लेख आज की अर्थनीति को समझने में हमारी मदद करेंगे।
पुस्तक में एक लेख है ‘सामाजिक व्यवस्था का एक आर्थिक विश्लेषण- नव ब्राहमणवाद’। किशन पटनायक इस लेख में उस समय नवब्राह्मणवाद की प्रवृत्ति को विश्लेषित करते हैं, जब अन्य राजनीतिज्ञ इस तरफ से बिल्कुल बेखबर थे। उन्होंने इस लेख में यह रेखांकित किया है कि राष्ट्रीयकरण के साथ-साथ नवब्राहमणवाद भी पनप रहा है । उनके शब्दों में इसका अर्थ किसी एक जाति विशेष का एकाधिकार नहीं है, इसका अर्थ है, वह सामाजिक व्यवस्था, जिसमें ब्राह्मणों के नेतृत्व में अन्य द्विज जातियाँ (बनिया, कायस्थ, राजपूत) सारे आर्थिक साधनों पर प्रभुत्व कायम करती हैं। (पृष्ठ 31) इस लेख में उन्होंने बताया है कि कैसे द्विज प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व के शीर्ष पर हैं और शूद्र गाँव से निकल कर शहरों में भी निचले दर्जे का काम कर रहे हैं। इस बात का प्रयास किया जा रहा है कि अधिकांश जनता उच्च शिक्षा से वंचित रहे। उन्होंने कहा कि नवब्राह्मणवाद पूँजीवाद और जातिप्रथा के संयुक्त मोर्चे का ही दूसरा नाम है। इस लेख में उन्होंने भारत के नवनिर्माण के लिए चार कार्यक्रमों को महत्वपूर्ण माना है— 1. समान अनिवार्य प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा 2. संपूर्ण भूमि की सिंचाई और बँटवारा 3. विलासी खर्च और उत्पादन पर पाबंदी 4. सचेत प्रयास करके शूद्र, हरिजन आदि पिछड़ों को बड़े पदों और महत्त्वपूर्ण स्थानों पर जगह देना। आगे वे लिखते हैं- ‘अगर विरोधी दल इन कार्यक्रमों को प्राथमिकता नहीं देंगे, तो भारत के मौजूदा असंतोष को संगठित नहीं कर पाएंगे, और तब ब्राहमणवाद का फासीवादी विकल्प हमारे सामने एक वास्तविकता बन जाएगा’। (पृ.35)
उन्नीस सौ तिहत्तर के बाद की राजनीति को देखें तो इस लेख की दूरदर्शिता और सूक्ष्म विवेचना शक्ति का अंदाजा हो जाएगा।
इस किताब में संकलित कई लेखों में राजनीति और समाज को समझने के लिए बिल्कुल नई उद्भावना दिखाई पड़ती है। किशनजी की खासियत यह है कि वे गाँधी, लोहिया या जयप्रकाश के निरा भावुक प्रशंसक नहीं हैं, बल्कि उनकी दृष्टि के आलोक में अपने समय की चुनौतियों को परखते हैं। इसीलिए वह गांधी और नेहरू के नीतिगत भेद को तल्खी के साथ उजागर करते हैं और उसे गड्ड-मड्ड करने का विरोध करते हैं। वह समाजवादियों और मार्क्सवादियों की ‘व्यावहारिकता’ पर तो चोट करते ही हैं, उनकी सैद्धांतिक कमजोरियों, विसंगतियों, नासमझी को भी उजागर करते हैं। राजनीतिज्ञों में ऐसी निस्पृहता दुर्लभ है।
संभवतः इन्हीं कारणों से वह व्यवहारवादी राजनीति की धारा में प्रवहमान न होकर द्रष्टा बनते चले गए। सत्तर के बाद बीसवीं शताब्दी के अंत तक की राजनीतिक–सामाजिक समस्याओं पर सही दृष्टि की तलाश करनी है तो हमें किशन पटनायक के पास जाना होगा। जब कभी मौजूदा राजनीति में सही पटरी पर चलने के लिए प्यास जगेगी तो उसे किशन पटनायक की राह पर चलना पड़ेगा। सही राह के अन्वेषियों और मौजूदा राजनीति का विकल्प तलाशने वालों के लिए किशन जी का लिखा हुआ रोशनी की धारा की तरह है। इसीलिए उनके लिखे हुए को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य है। गंगा प्रसाद जी ने इस कर्तव्य का बखूबी निर्वाह किया है।
पुस्तक- बदलाव की कसौटी
संपादक- गंगा प्रसाद
प्रकाशक- सूत्रधार प्रकाशन
1,रमेश गोस्वामी रोड, मानिकतला
कांचरापाड़ा- 743145
मो. 974881717
मूल्य- 150.00 रुपए।