पिछले कोई साठ सालों से मैं भारत की राजनीति का निरीक्षक और कभी-कभी उसमें हाथ बंटानेवाला रहा हूं। इस कारण मेरे लिए यह स्वाभाविक था कि मैं एक लंबे समय से लोकनायक जयप्रकाश नारायण को जानता रहा। लेकिन सन 1973 के अंत तक सचमुच हम कभी एक दूसरे के निकट कभी आए नहीं थे। उस समय वे, मैं और दूसरे बहुतेरे लोग इस नतीजे पर पहुंचे थे कि देश की स्थिति करुण और चिंताजनक है। देश के लाखों लोगों के दुख-दर्द को किसी हद तक मिटाने या कम करने के लिए राष्ट्र के हित में कोई संयुक्त प्रयत्न किया जाना चाहिए, ऐसी हमारी राय बनी थी। इस प्रयत्न के एक अंग के रूप में जयप्रकाश जी एक ऐसा सामयिक पत्र प्रकाशित करना चाहते थे जो लोगों के सवालों और उनके हल के लिए समर्पित हो। उनका यह विचार तो प्रशंसनीय था, पर मैं यह मानता नहीं था कि जयप्रकाश जी स्वयं इतने व्यावहारिक हैं कि वे अकेले इस सारे काम को कर सकें। इस कारण मैंने उनके लिए ऐसा एक पत्र प्रकाशित करने और उसके लिए अपनी शक्ति-भर सब कुछ करने की अपनी तैयारी दिखाई।
‘एवरीमैंन्स’ नामक साप्ताहिक पत्र के निमित्त से हमारे बीच एक ऐसी मैत्री का आरंभ हुआ, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकूंगा। सन 1974 से लेकर पांच साल बाद उनके स्वर्गवास के समय तक जयप्रकाशजी और मैं बीच-बीच में मिला करते थे। कभी-कभी तो महीनों तक हम साथ ही रहते थे। वे दिल्ली और बंबई में मेरे साथ रहा करते थे। और जब कभी अपने कार्यक्रम के निमित्त से वे दक्षिण भारत की यात्रा करते, तो उस समय भी वे मेरे साथ रहते थे। इस अवधि में उनकी तबीयत बहुत कमजोर हो चुकी थी। उन्हें कई तकलीफें रहने लगी थीं। मैंने अस्पताल में उनकी सार-संभाल की थी। मई 1974 में जब उन्हें वेलोर अस्पताल से छुट्टी मिली, उस समय उनकी तबीयत अच्छी थी। जेल में उन्हें गुरदे की बीमारी शुरू हुई जो आखिर उनके लिए घातक बनी। उन्होंने एक संत की तरह अपनी शहादत को सह लिया। जिस किसी भी अस्पताल में उन्हें जाना पड़ता था, उस अस्पताल का शायद ही कोई नर्स या डॉक्टर ऐसा रहा हो, जिस पर उनके व्यक्तित्व के जादू ने अपना प्रभाव न डाला हो। वे सब उन पर प्रेम करते थे। सच तो यह है कि उनके संपर्क में आनेवाले सब लोग उनके प्रेमी बन जाते थे। खुद उनको तो कई बार कष्ट सहने पड़े, लेकिन जो भी उनके पास पहुंचता था, उसे वे सांत्वना और सुख देते थे। उनकी सौम्य मुखाकृति और संयत आवाज उनके चरित्र का सच्चा प्रतिबिंब प्रस्तुत करती थी।
उनके मुखमंडल की यह सौम्यता किसी राजा के वैभव की तरह शोभा देती, और जिस किसी से वे मिलते, उसी पर अपना जादू-भरा असर छोड़ती। कभी-कभी जब वे ऐसे लोगों का भी पक्ष लेते, जिनको सिवाय धूर्त कहने के और कुछ कहा नहीं जा सकता, तब मैं अकसर बेचैन हो उठता। वे खुद भी यह जानते थे कि ये लोग धूर्त हैं, लेकिन जब मैं उनके विरोध में कुछ कहता तो वे अपनी गंभीर मुस्कान के साथ कह उठते, ‘बहुरत्ना वसुंधरा’। लोगों को नौकरी दिलाने के लिए वे उनकी सिफारिश करते रहते। मुझसे भी करते। और जब उन लोगों का काम पूरी तरह असंतोषजनक सिद्ध होता, तो वे अपनी उस अनोखी मुस्कान के साथ कहते, ‘इसका कोई उपाय है?’ उनके ऐसे व्यवहार के कारण किसी हद तक उनकी साख कुछ गड़बड़ाती भी थी, फिर भी संतों की तरह उनके मन में एक ऐसी अटूट और अखंड श्रद्धा थी कि मनुष्य-मात्र में कुछ-न-कुछ भलाई तो होती ही है। एक बार जब वे मेरे मेहमान थे, तभी एक नक्सलवादी नेता, जिनके पीछे पुलिस पड़ी थी, नकली दाढ़ी-मूंछ और जुल्फों वाले बनावटी बालों के साथ एक दिन आधी रात को उनके पास आ पहुंचे। चूंकि आधी रात बीत चुकी थी इसलिए मैंने उनसे कहा कि वैसे भी जयप्रकाशजी को नींद बहुत कम आती है, इसलिए उनकी नींद में खलल पहुंचाना उचित नहीं होगा। लेकिन उन नक्सलवादी भाई ने कहा कि उनका काम राष्ट्रीय महत्त्व का है। इसलिए आखिर मुझे जयप्रकाशजी को जगाना पड़ा। मैंने उनकी बातचीत तो नहीं सुनी, लेकिन बाद में पता चला कि उन नक्सलवादी भाई को अपनी बेटी के ब्याह के लिए पांच हजार रुपयों की जरूरत थी। जब जयप्रकाशजी ने बड़े संकोच के साथ मुझसे इस रकम की मांग की, तो मैंने उनसे पूछा, ‘आप इन हत्यारों को किसलिए पोसना चाहते हैं?’ इसके जवाब में जयप्रकाशजी बोले, “ये लोग हत्या इसलिए करते हैं कि ये मानते हैं कि उन लोगों ने गरीबों और असहाय लोगों को कष्ट पहुंचाया है। अपने इन विचारों के कारण इन लोगों को कोई लाभ तो नहीं होता, कम-से-कम कोई व्यक्तिगत लाभ तो होता ही नहीं। ये लोग मानते हैं कि ऐसा करके ये दुखी-दरिद्री लोगों की मदद कर रहे हैं। आप से बन सके, तो आप जरूर इनकी मदद कीजिए।”
मैंने उन नक्सलवादी भाई को वचन दिया कि मैं अगले दिन उनका काम कर दूंगा। उन्होंने मुझसे कहा कि पुलिस उनके पीछे इस तरह पड़ी है कि वे नहीं जानते कि अगले दिन वे खुद कहां होंगे। इस समय मेरे पास पैसे नहीं थे। बड़े सबेरे मैं अपनी कार में एक ऐसे मित्र के पास पहुंचा, जिनसे मुझे अपेक्षित रकम मिल गई।
ऐसी घटनाओं से मैं प्रायः बेचैन हो उठता था। जयप्रकाशजी स्वभाव से गर्भश्रीमंत थे, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में उनकी भूमिका साधारणजन की रही। अगर कभी उनके लिए अच्छा भोजन बनाया जाता था, तो वे शिकायत करते थे, “जब देश में लाखों लोग भूखों मर रहे हैं, तब आप मुझे यह सब क्यों खिलाते हैं?” लेकिन अपने मेहमानों के बारे में वे खुद इस बात का आग्रह रखते थे कि जिस भोजन के लिए उन्होंने इनकार किया था, वैसा भोजन उनके मेहमानों को कराया जाए। वे अपनी जन्मघूंटी के समय से ही विनय सीखे थे, इसलिए वे किसी को भी तकलीफ देना चाहते नहीं थे। एक बार जब वे वेलोर में थे, उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गई थी। उन्हें जोर की दस्त लगी और कमजोरी के कारसण वे बहुत मुश्किल से ही बोल पाते थे। फिर भी बहुत धीमी आवाज में उन्होंने मुझसे कहा, “अगर मैं इस समय यहां मर जाऊं तो अंत्येष्टि के लिए मेरी देह को पटना ले जाने की तकलीफ मत उठाना। सारा काम यहीं निपटा देना। मुझे लोगों से खोटे खर्च किसलिए करवाने चाहिए?” लेकिन अगर दूसरा कोई बीमार पड़ कर मर गया होता तो उसके अजनबी होने पर भी जयप्रकाश जी ने उस की पूरी और व्यवस्थिक अंत्येष्टि का आग्रह रखा होता।
अपने देश से और लोगों से वे अपने जीवन में और सब बातों की तुलना में अधिक प्रेम करते थे। हिंदी के कवि दिनकर ने एक बार लिखा था कि अगर राष्ट्र को बचाने के लिए बलिदान देने की बात हो तो, जयप्रकाशजी उस ज्वाला में कूदकर सबस पहले अपनी आहुति देते। उऩ की यह बात सच थी। एक जमाने में वे मार्क्सवादी थे, अपनी बीसी के बीच में थे, और उस समय वे अमरीका में विद्यार्थी जीवन बिता रहे थे। उन दिनों वे अमरीका से रूस जानेवाले थे। लेकिन जब उन्होंने सुना कि रूस में व्यक्तिगकत स्वतंत्रता पर पाबंदी लगी हुई है, तो रूस के बारे में उनका भ्रम दूर हो गया। वे रूस जाने के बदले भारत आ गए। इससे देश को लाभ हुआ। अपने विचारों को जल्दी-जल्दी बदलते रहने की एक आदत-सी उन्हें पड़ गई थी, जो जचीवन-भर बनी रही। लेकिन किसी की बात सुनकर या केवल संक्रांति-काल की भावना से प्रभावित होकर उन्होंने अपने विचार कभी नहीं बदले। उनका मिजाज उनके अनुभव के कारण बदलता था। उदाहरण के लिए, आपातकाल से पहले वे जनसंघ को एक सांप्रदायिक पक्ष मानते थे और उसका विरोध करते थे। बाद में उन्हें अनुभव हुआ कि वह एक राष्ट्रवादी पक्ष है। इसलिए उन्होंने उसका समर्थन किया। वे कभी किसी सिद्धांत से बंधकर नहीं रहे।
अपने साठ से अधिक सालों के अनुभव में मुझे भारत के सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक जीवन से जुड़े हुए लगभग सब प्रकार के कार्यकर्ताओं के संपर्क में आने के अवसर मिले हैं। लेकिन जयप्रकाश नारायण और रफी अहमद किदवई के समान नीति-परायण दूसरे किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को मैंने जाना नहीं। उनकी करुणा कभी-कभी दोष की हद तक पहुंच जाती थी। इन दोनों की उदारता के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। लेकिन इस काम के लिए एक लेख काफी नहीं है। इसके लिए तो एक ऐसी पुस्तक लिखने की जरूरत हो सकती है जो कई खंडो में पूरी हो।
मुझे ऐसे एक मनुष्य को जानने का और उसके जीवन के कुछ अंतिम वर्षों में उसको बहुत निकट से देखने का और अपने एक घनिष्ठ मित्र के रूप में उसे प्राप्त करने का महान सौभाग्य मिला था। वे एक अंग्रेज कवि के स्वर में अपना स्वर मिलाकर कह सकते थे कि “मैंने श्रद्धा को संजोया है, गरीबों के लिए जो भी बन पड़ा है, सो बराबर किया है, सम्मान दिया है और सम्मान पाया है, मेरे आंगन से कोई कभी निराश नहीं लौटा है।” और अपनी मृत्यु-शैया पर से, दुर्भाग्यवश जहां मैं उनकी मृत्यु के बाद ही पहुंच पाया था, वे अपनी सहज नम्रता से विश्वासपूर्वक कह सके होते कि “अपने इस दास को विदा लेने दो। उसने तुम्हारा मोक्ष देखा है।” मैं चिरकाल तक उन्हें याद रखूंगा।
अद्भुत.
अभिनंदन और हार्दिक बधाई.
असीम शुभकामनाएँ .
मेरी बधाई व शुभकामनाएं !