विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

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– संजय पारीख –

विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानव अधिकारों में सर्वाधिक बुनियादी तथा मूल्यवान है। अकेले इसके होने से अन्य सभी अधिकार अर्थपूर्ण हो जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति ने कहा था कि पारदर्शिता और जवाबदेही को सच्चाई में बदलने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक आवश्यक तत्त्व है। यह न सिर्फ मानव अधिकारों के संरक्षण और संवर्धन के लिए जरूरी है, बल्कि इसी से ऐसी स्थिति बनती है जिसमें समाज मानव अधिकारों का व्यापक रूप से उपयोग कर पाता है। (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताः अनुच्छेद-19, सामान्य टिप्पणी संख्या-34)

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना मानव स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए इसके विकास को जानना दिलचस्प है। हालांकि बेंजामिन फ्रैंकलीन ने 1731 में ही अपने लेख ‘एपोलॉजी फॉर प्रिंटर’ में विचार व्यक्त करते हुए कहा था, ‘प्रिंटर इस बात में विश्वास करते हैं कि जब लोगों के विचारों में मतभेद हो तो दोनों पक्षों के लोगों को जनता द्वारा सुने जाने का लाभ समान रूप से मिलना चाहिए……’ और फ्रैंकलीन डी.रूजवेल्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चार आवश्यक मानव स्वतंत्रताओं में पहले स्थान पर रखा था, इसके बाद ही उन्होंने धर्म की स्वतंत्रता, इच्छा और भय से मुक्ति को स्थान दिया था, फिर भी जब संयुक्त राज्य अमरीका का संविधान लिखा गया तो उसमें विचार की स्वतंत्रता के संबंध में कोई प्रावधान नहीं किया गया।

इसका प्रावधान किया गया 1791 में, ‘बिल ऑफ राइट्स’ के रूप में। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि कांग्रेस को विचार अथवा प्रेस की स्वतंत्रता को कम करनेवाला कोई कानून नहीं बनाना चाहिए। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद 1798 में राजद्रोह अधिनियम पारित किया गया। इसके अंतर्गत जनसेवक की आलोचना करने के आरोप में पत्रकारों, प्रिंटरों और संपादकों को निरुद्ध किया गया। राजद्रोह अधिनियम की क्रूरता को महसूस करते हुए और संवैधानिक शपथ के विरुद्ध मानते हुए इसे खत्म कर दिया गया। उस समय थामस जेफरसन ने अपना मशहूर वक्तव्य दिया था, “हमारी सरकार का आधार जनमत है, इसलिए उस अधिकार को बनाए रखना हमारा प्राथमिक उद्देश्य होना चाहिए,  और मुझे यदि यह तय करना हो कि एक अखबार के बिना सरकार हो या एक सरकार के बिना अखबार हो तो मैं निःसंकोच सरकार के बिना अखबार को प्राथमिकता दूँगा। मेरा आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति इन अखबारों को प्राप्त करने और उन्हें पढ़ने में समर्थ हो।”

हमारे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका विस्तार करते हुए इसमें  प्रेस की स्वतंत्रता सहित सूचना देने का अधिकार, सूचना प्राप्त करने का अधिकार शामिल किया। अपने एक निर्णय (भारतीय जीवन बीमा निगम बनाम मनुभाई) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “अपने विचार को व्यक्त करने की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक संस्था की जीवनरेखा है, इसे अवरुद्ध करने का कोई भी प्रयास लोकतंत्र के लिए मौत की घंटी है और इससे लोकतंत्र अधिनायकवाद अथवा तानाशाही की ओर बढ़ेगा।”

स्वतंत्र प्रेस से स्वस्थ आलोचना का माहौल बनता है। इससे जनता सरकार के कार्यों का मूल्यांकन करने में सक्षम होती है। यह खास मायने नहीं रखता कि यह पक्ष में है या विपक्ष में। प्रेस से ही लोगों को अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का मौका मिलता है। प्रेस से ही लोकतांत्रिक समाज बनता है। इसीलिए संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों को बचाने के लिए यह जरूरी है। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में ही इसे संवैधानिक नैतिकता भी बताया। यही कारण है कि प्रेस को चौथा खंभा कहा जाता है। लेकिन जब डर का माहौल बनता है तो क्या होता है? प्रेस दो हिस्सों में बँट जाता है। जो हिस्सा कमजोर और महत्त्वाकांक्षी होता है, दबाव के आगे झुक जाता है। जो लोग मूल्यों के साथ खड़े रहते हैं तथा जनता द्वारा सौंपे गए उत्तरदायित्व के प्रति निष्ठावान होते हैं, उन्हें परेशान किया जाता है। उनपर उत्पीड़न की कार्रवाई की जाती है, मानहानि का मुकदमा किया जाता है, आपराधिक मामलों यहाँ तक कि देशद्रोह के आरोप में फँसाया जाता है। उनपर हमला किया जाता है और मार दिया जाता है। दुर्भाग्य से आज हम इस स्थिति का सामना कर रहे हैं। फली नरीमन ने ठीक कहा है- “ आज मूल प्रश्न अभिव्यक्ति की आजादी का नहीं है, बल्कि अभिव्यक्ति के बाद की आजादी का है।” आज बुनियादी रूप से कानून के शासन पर ही हमले का माहौल है, जबकि कानून का दायित्व बिना भेदभाव के पूर्ण निष्ठा के साथ जनता को सुरक्षित रखना होता है।

 विचारों की अभिव्यक्ति के अधिकार में असहमति का अधिकार भी आता है। कोई भी लोकतंत्र तभी तक लोकतंत्र बना रह सकता है, जब तक लोग अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करते रहेंगे, चाहे वह राज्य के शासन की कितनी ही तीखी आलोचना क्यों न हो। जनता को सरकार की उन नीतियों, कार्रवाइयों की आलोचना का अधिकार है, जो संविधान के अनुरूप नहीं हैं या जनहित में नहीं हैं, या दमनकारी हैं, या भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वाली हैं।

हाल में ही निजता के अधिकार के एक प्रसिद्ध मामले में सर्वोच्च न्यायालय  की संविधान पीठ ने कहा कि प्रश्न करने, छानबीन करने और असहमति जताने का अधिकार संवैधानिक अधिकार का अभिन्न अंग है। इसी से नागरिक सरकार की कार्रवाइयों की छानबीन करने में सक्षम बनता है। लोकतांत्रिक राज्य में यही शक्ति उसे सजग और सतर्क नागरिक बनाती है, जिससे उसके अधिकार सुरक्षित रहते हैँ। इसी छानबीन के अधिकार से सामाजिक-आर्थिक लाभ उन गरीब लोगों तक पहुँच पाते हैं, जिनके लिए वे मायने रखते हैं। न्यायालय ने प्रोफेसर अमर्त्य सेन को उद्धृत करते हुए कहा कि कैसे 1943 के बंगाल के अकाल के दौरान रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध के कारण स्थिति खराब हुई। प्रोफेसर सेन ने लिखा है कि ‘आपदा में स्थिति इसलिए तो खराब हुई ही कि औपनिवेशिक भारत में लोकतंत्र नहीं था, इसलिए और भी खराब हुई कि भारतीय प्रेस को रिपोर्टिंग करने, आलोचना करने से गंभीर रूप से प्रतिबंधित किया गया था और ब्रिटिश स्वामित्व वाले मीडिया ने अकाल पर स्वैच्छिक रूप से ‘चुप्पी’ साध रखी थी।

अभिव्यक्ति का अधिकार केवल इसलिए जरूरी नहीं है कि यह संविधान से हमें मिला है, बल्कि मनुष्य होने के नाते हमारी जिम्मेदारी है कि व्यक्ति अथवा समाज के विरूद्ध हो रहे अन्याय, अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाएं। एक व्यक्ति की यह एकदम बुनियादी जरूरत है कि वह अपने अनुभवों, अपनी प्रतिक्रियाओं को किसी प्राधिकारी अथवा उसकी मनमानी कार्रवाइयों से डरे बिना व्यक्त कर सके। अपनी अभिव्यक्ति से वह निर्मित होता है, बनता है, पोषित होता है, उसे एक आकार मिलता है, उसके दिमाग को नई दिशाओं के लिए खुराक मिलती है और आत्मा में ऊपर उठने की आशा जगती है। उसकी अभिव्यक्ति कविता के रूप में हो सकती है, कहानी के रूप में हो सकती है, पेंटिंग के रूप में हो सकती है या फिर अन्याय अथवा दमन के विरूद्ध शक्तिशाली असहमति के रूप में। वह चाहता है कि दूसरे लोग उसके विचारों को जानें, इसके बिना ‘उसका’ कोई अस्तित्व नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ही उसका अस्तित्व है। इसी से उसका होना, ‘होना’ होता है। यह मानव अस्तित्व के लिए सबसे मूल्यवान संपत्ति है। बिना किसी भय के सत्य बोलने में सक्षम होना अत्यंत महत्वपूर्ण है, अन्यथा जीवन नीरस हो जाएगा, पिंजरे में बंद तोते की तरह (सर्वोच्च न्यायालय के शब्द) सिर्फ महत्त्वाकांक्षाओं, लालच, धन और अंतहीन इच्छाओं का दास बनकर रह जाएगा। आप वही बात कहेंगे जो आपका बॉस कहेगा।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्त्व और अंतर्मन से उसके संबंध को उन लोगों के अनुभवों से जाना जा सकता है, जिन्हें एकांत में बंद कर दिया जाता है। वे अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि ऐसे वक्त में शरीर में ज्यादा दर्द नहीं होता है। ज्यादा यातनादायक होता है अकेलापन और किसी से संवाद  न हो सकने की स्थिति। इससे आत्मा ही मर जाती है। भय से भी उसी तरह का अकेलापन पैदा होता है। ऐसे समाज में जहाँ मुक्त विचारों के संप्रेषण को हमेशा परिणाम भुगतने की धमकी मिलती है, दिमाग एक कैदखाना बन जाता है, निरंतर भय, आशंका और निगरानी से ग्रसित हो जाता है। विचार और अभिव्यक्ति के बुनियादी अधिकार के बिना समाज सामूहिक मानसिक मौत की ओर बढ़ता है और लोकतंत्र एक ढोंग बन कर रह जाता है।

वाशिंगटन की पत्रिका ‘हार्पर’ के संपादक टाम बेथेल ने अपने एक लेख में उन कारणों पर विचार किया है, जिससे आज प्रेस की स्वतंत्रता खतरे में है। उन्होंने लिखा है, “प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरा सीधे नहीं आता है, वह आता है नियमों को लागू करने के गलत तरीके से, उन देशभक्तों की तरफ से, जो सरकार के कुशासन को प्रकाशित होते नहीं देखना चाहते। जब ऐसा होता है, समाज के दक्षिणपंथी और रूढ़िवादी लोग प्रेस का मुँह बंद करने का शोर मचाने लगते हैं…..।”

कुछ हद तक अपने समाज में भी इसी तरह की स्थिति दिखाई पड़ रही है। मतांध ताकतों ने अलग-अलग नामों से खतरनाक रूप धारण कर लिया है। उन्हें कानून व्यवस्था का कोई डर नहीं है। उनका विश्वास है कि सरकार उनका कुछ नहीं बिगाड़ेगी, क्योंकि वे खास विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी निगाह में लिंचिंग अपराध नहीं है। वे समझते हैं कि उनके पास उन सभी को दंडित करने का अधिकार है, जो उनकी निगाह में पाप कृत्य करते हैं। पत्रकार साहसी और सत्यनिष्ठ होने की कीमत चुका रहे हैं। सरकारी कार्रवाइयों के प्रति आलोचनात्मक होने पर प्रेस और प्रकाशनों को कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी हम कानून के शासन से शासित लोकतंत्र में अपने टिके रहने पर भरोसा करते हैं।

सांविधान सभा के एक सदस्य देशबंधु गुप्ता ने उस समय जो कहा था, आज वह ज्यादा प्रासंगिक है- “हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि समाचार पत्रों के कार्य का एक ध्येय है और वे लोकतांत्रिक शासन के लिए अनिवार्य हैं। देश में लोकतांत्रिक सरकार को ठीक से चलाने और उनकी दिशा सही रखने के लिए मतदाताओं में जागरूकता लाने के लिए उनका होना अनिवार्य है। इस परिस्थिति में प्रेस को कमजोर करनेवाला कोई भी कदम सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को क्षति पहुँचाएगा। जनता की स्वतंत्रता दाँव पर लग जाएगी। इस परिप्रेक्ष्य में अमरीका के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की टिप्पणी गौरतलब है- “प्रेस को बेड़ी लगाना खुद को बेड़ी लगाने जैसा है।” इसलिए प्रेस की स्वतंत्रता और भविष्य में भारतीय पत्रकारिता की स्वतंत्रता  की दृष्टि से मैं इस सदन से अपील करता हूँ कि यह हमेशा ध्यान में रखा जाए कि समाचार पत्र विशेष व्यवहार के अधिकारी हैं। समाचार पत्र देश की भलाई के लिए तो जरूरी हैं ही, सरकार के लिए भी जरूरी हैं। हमें इसी रूप में उनका सम्मान करना चाहिए।”

अँगरेजी से अनुवाद—संजय गौतम

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