— रामस्वरूप मंत्री —
छत्तीसगढ़ के सुकमा क्षेत्र में शनिवार को नक्सलियों ने सुरक्षाबलों पर बड़े हमले को अंजाम दिया। इस हमले में अब तक 22 जवान शहीद हो चुके हैं और 30 जवान घायल हुए हैं। कुछ जवान अब भी लापता हैं। एक सप्ताह पूर्व भी नक्सलियों ने ऐसा ही हमला किया था जिसमें सुरक्षाबलों के कई जवान शहीद हुए थे। यह दूसरा हमला था और इतना भयावह था कि दो हजार सुरक्षाकर्मियों में से चार सौ की टीम को घेरकर नक्सलियों ने गोलीबारी की। शनिवार दोपहर को बीजापुर-सुकमा सीमा पर तार्रेम क्षेत्र में अचानक पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) ने चार सौ जवानों की एक मजबूत टीम पर घेरकर हमला कर दिया। यह इलाका प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) की झागरगुंडा क्षेत्र समिति की सक्रियता वाला है जिसका प्रमुख पापा राव है।
इससे पहले पिछले महीने मार्च में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जवानों से भरी एक बस को आईईडी ब्लास्ट से उड़ा दिया था जिसमें पांच जवान शहीद हो गए थे, जबकि दस जवान घायल हुए थे। नारायणपुर इलाके में घात लगाकर नक्सलियों ने इस घटना को अंजाम दिया था। सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, हर बार दावा करती है कि नक्सली समस्या को बहुत कुछ काबू में कर लिया गया है, लेकिन हर बार कोई नया हमला उन दावों को खोखला साबित कर देता है। बजट की एक बड़ी राशि इस समस्या के नाम पर खर्च करने के बावजूद समस्या जस की तस बनी हुई है।
आखिर नक्सली समस्या का मुख्य कारण क्या है और उसका क्या समाधान हो सकता है इसपर विचार करना बहुत जरूरी है। एक तरफ जहां गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी को हथियार बनाकर नक्सली अपने पैर जमाए हुए हैं, वही सरकारें और राजनेता अपने निहित स्वार्थों में डूबे हैं, इन समस्याओं के हल में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं जान पड़ती। परिणाम यह होता है कि गरीब और निर्दोष लोगों की मौत होती है तथा सुरक्षा बलों के जवानों को भी जान गंवानी पड़ती है।
क्यों है समस्या, क्या है समाधान
नक्सलवाद अन्याय और गैरबराबरी के कारण पनपा है। देश में फैली सामाजिक और आर्थिक विषमता के कई नतीजों में से एक नतीजा माओवाद भी है। बात चाहे छत्तीसगढ़ के बस्तर और सुकमा की करें या ओड़िशा के मलकानगिरी की, भुखमरी और कुपोषण एक सामान्य बात है। गरीबी और बेरोज़गारी के कारण बहुत निचले स्तर पर जिंदगी जीने की मजबूरी और स्वास्थ्य-सुविधा के अभाव में गंभीर बीमारियों से जूझते इन क्षेत्रों में असामयिक मौत कोई आश्चर्य नहीं। लेकिन, वहीं देश का एक तबका सुख-सुविधाओं से लैस है। अमूमन यह कहा जाता है कि भारत ब्रिटिश राज से अरबपति राज तक का सफर तय कर रहा है। वहीं विश्व असमानता-रिपोर्ट के अनुसार, भारत की राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी भाग सिर्फ एक फीसद लोगों के हाथों में पहुँचता है और यह असमानता लगातार तेजी से बढ़ रही है।
अंतरराष्ट्रीय अधिकार समूह आक्सफैम के मुताबिक भारत के एक फीसद लोग देश के 73 फीसद धन पर काबिज हैं। यकीनन इस तरह की असमानताएं हमेशा असंतोष के बीज बोती हैं, जिनमें विद्रोह के अंकुरित होने की क्षमता होती है।
यह भी एक सच्चाई है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार भ्रष्टाचार सूचकांक में पिछले तीन सालों में हम 5 पायदान फिसल गए हैं यानी देश में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हुई हैं।
भ्रष्टाचार कई समस्याओं की जड़ है। साल 2019 के मार्च महीने में हमने नासिक से मुंबई तक लंबी किसान यात्रा भी देखी। मंदसौर में पुलिस की गोली से पाँच किसानों की मौत की खबर ने भी चिंतित किया था। पिछले चार महीने से ज्यादा समय से चल रहे देशव्यापी किसान आंदोलन से जाहिर है कि कृषि क्षेत्र में संकट काफी गहरा गया है।
ये सभी वो पहलू हैं जो गरीबों और वंचित समूहों में असंतोष बढ़ा रहे हैं और वे गरीबी और भुखमरी से मुक्ति के नारे बुलंद कर रहे हैं। इन्हीं असंतोषों की वजह से नक्सलवादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है।
दूसरी तरफ, सरकार के कई प्रयासों के बावजूद अभी तक इस समस्या से पूरी तरह निजात नहीं मिलने की बड़ी वजह यह है कि हमारी सरकारें शायद इस समस्या के सभी संभावित पहलुओं पर विचार नहीं कर रहीं। हालाँकि, सरकार की पहलों से कुछ क्षेत्रों से नक्सली हिंसा का खात्मा जरूर हो गया है लेकिन अभी भी लंबा सफर तय करना बाकी है।
नक्सली हिंसा में कितनी कमी आई है?
नक्सली समस्या को लेकर ढेर सारी चुनौतियों के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पहले के बरक्स कमी आई है।
गौरतलब है कि 2008 में 223 जिले नक्सल प्रभावित थे। लेकिन तत्कालीन सरकार के प्रयासों से इनमें कमी आई और 2014 में यह संख्या 161 रह गई। 2017 में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या और घटकर 126 रह गई।
गृह मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि 44 जिलों को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया है जबकि 8 नए ज़िलों में नक्सली गतिविधियाँ देखी जा रही हैं। लिहाजा, नक्सल प्रभावित कुल जिलों की संख्या अब 90 हो गई है। ये सभी जिले देश के 11 राज्यों में फैले हैं जिनमें तीस सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित बताए गए हैं।
छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और बिहार को सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्यों की सूची में रखा गया है।
आँकड़ों पर गौर करें तो, पिछले एक दशक में नक्सली हिंसा में कमी आई है और कई जिलों को नक्सल गतिविधियों से मुक्त भी कराया गया है। लेकिन गौर करने वाली बात है कि कई नए जिले ऐसे भी हैं जिनमें नक्सली गतिविधियाँ शुरू हो गई हैं।
इसी साल गृह मंत्रालय द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक आठ जिले ऐसे हैं जहाँ पहली दफा नक्सली गतिविधियाँ देखी गई हैं। केरल में ऐसे तीन, ओड़िशा में दो और छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश तथा आंध्र प्रदेश में एक-एक जिले पाए गए हैं।
ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि जब एक तरफ नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के सिमटने के दावे हो रहे हैं तो, दूसरी तरफ नए जिलों को यह रोग क्यों लग रहा है? लिहाजा, इस पहलू पर भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है।
दरअसल, अपने वर्तमान रूप में नक्सल आंदोलन ने अपनी प्रकृति और उद्देश्य दोनों में महत्त्वपूर्ण रूप से बदलाव किया है। एक तरफ जहाँ इस समस्या की वजह आर्थिक और सामाजिक विषमता समझी जाती रही है, वहीं दूसरी ओर इसे अब एक राजनीतिक समस्या भी समझा जाने लगा है।
पिछले छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में नक्सल समस्या पर राजनीतिक बयानबाजी इसी का एक पहलू है। यही कारण है कि जानकारों की नज़रों में नक्सलवाद सियासी दलों का एक ‘चुनावी तवा’ है जिस पर मौका मिलते ही रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है।
ऐसा इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि हमारी सरकारें लगातार संविधान की पाँचवीं अनुसूची को तरजीह देने से कतराती रही हैं। गौरतलब है कि इस अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से जुड़े मामले आते हैं।
चिंता का विषय है कि आजादी के 70 सालों बाद भी अब तक अनुसूचित क्षेत्रों को प्रशासित करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। पाँचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में ट्राइब्स एडवाइजरी काउंसिल की स्थापना की बात की गई। दरअसल, इन क्षेत्रों में एडवाइजरी काउंसिल एक तरह की पंचायत है जो आदिवासियों को अपने क्षेत्रों में प्रशासन करने का अधिकार देती है। इस काउंसिल में अधिकतम बीस सदस्य होते हैं जिनके तीन-चौथाई सदस्य वे होते हैं जो संबंधित राज्य की विधानसभा में अनुसूचित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आदिवासियों को अधिकार नहीं मिलने के कारण भी इनमें असंतोष पनपता है और नक्सली इसी का फायदा उठाकर आदिवासियों को गुमराह करते हैं।
1996 के पेसा अधिनियम, ट्राइबल ऐक्ट्स, बीआरजीएफ यानी बैकवर्ड रीजन ग्रांट फंड जैसे कार्यक्रमों को सही रूप से लागू करने की जरूरत है। बीआरजीएफ पंचायती राज मंत्रालय का एक कार्यक्रम है जो गोवा को छोड़कर देश के 272 चिह्नित पिछड़े जिलों में विकास की विषमता को खत्म करने के लिए बनाया गया है।
इसके अलावा एक समस्या राज्यों के बीच तालमेल की कमी को लेकर है। इसके तहत एक दूसरे से लगे राज्यों को नक्सली घटनाओं के मद्देनजर बेहतर आपसी सहयोग से काम करने की जरूरत है।
इन सब उपायों के अलावा, हमारी सरकारों को कतई नहीं भूलना चाहिए कि नक्सलवाद के मूल कारण कुछ और हैं। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसे मसलों पर जब तक युद्धस्तर पर काम नहीं होगा, तब तक इस समस्या से निजात नहीं मिल सकती।
हिंसा की घटनाओं के साथ-साथ ग्रामीणों के अधिकारों और उनकी समस्याओं को भी प्रकाश में लाने की ज़रूरत है। स्थानीय लोगों को भरोसे में लेना और हथियार उठा चुके लोगों से बात कर मसले का हल निकालने की कोशिश करनी होगी।
गरीबी और भुखमरी जैसे मुद्दों पर जोर देने का मतलब हिंसा का समर्थन करना नहीं है, लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति को गरिमापूर्ण ढंग से जीने का वास्तविक हक मिले, जिसका आश्वासन संविधान में दर्ज है। सवाल है हम उस आश्वासन को अमली जामा पहनाने के लिए क्या कर रहे हैं।