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आंबेडकर की सिखावन : बहुसंख्यकों की मनमानी नहीं है लोकतंत्र – योगेंद्र यादव

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आंबेडकर मानते थे कि लोकतंत्र की पहली और सबसे जरूरी शर्त है कि बड़े पैमाने की गैर-बराबरी ना हो, हर नागरिक के साथ शासन-प्रशासन बराबरी का बर्ताव करता हो। महान शख्सियतों को अपने हिसाब से छोटा करके आंकने-देखने की एक प्रवृत्ति है हम भारतीय लोगों में। हम गांधीजी को एक भोले-भाले परम दयालु संत में बदल देते हैं, ऐसा संत जिसने लोगों को अहिंसा का उपदेश दिया। हम भगतसिंह को गर्म-मिजाज राष्ट्रवादी क्रांतिकारी के रूप में देखते हैं और चौधरी चरण सिंह को जाति-विशेष के नेता के रूप में। बाबासाहब भीमराव आंबेडकर की बौद्धिक विरासत के साथ भी हमने कुछ ऐसा ही किया है।

दशकों की उपेक्षा के बाद अब बाबासाहब का चिंतन बेशक मंजर-ए-आम पर आया है और उससे हमारी आशनाई बढ़ी है लेकिन उनके चिंतन को हमने महज जाति-व्यवस्था के प्रतिकार के सीमित दायरे में पढ़ा है। अब वक्त है कि हम उनके विचारों के कुछ दूसरे और ज्यादा गहरे पहलुओं की ओर अपना रुख मोड़ें और विचारों के इतिहास के प्रतिमान पर उन्हें उस मुकाम पर प्रतिष्ठित करें जिसके वे सचमुच हकदार हैं। ऐसे ही उपक्रमों की एक अच्छी मिसाल है, लोकतंत्र के विषय में बाबासाहब के चिंतन पर गौर करना।

बाबासाहब आंबेडकर बीसवीं सदी के पहले और ठीक-ठीक कहें तो एकमात्र भारतीय थे जिन्होंने मूलगामी लोकतंत्र का सिद्धांत दिया, एक ऐसे मूलगामी लोकतंत्र का सिद्धांत जो 21वीं सदी में हमारी रहबरी कर सकता है। इस बात को याद रखना इस वजह से भी जरूरी है क्योंकि उनकी बौद्धिक और राजनीतिक विरासत का जब हम उत्सव मनाते हैं तो हमारा सारा ध्यान बस इस एक बात पर टिका रहता है कि उन्होंने जाति-व्यवस्था में अंतर्निहित अन्याय की आलोचना की थी।

आज जब बाबासाहब की जयंती के उत्सवों का सिरमौर बने सत्ताधीशों के हाथों भारत के लोकतंत्र की बखिया उधेड़ी जा रही है तो हमारे लिए इस बात को याद करना और भी ज्यादा जरूरी है। डॉ. आंबेडकर लोकतंत्र पर विचार करनेवाले कोई पहले भारतीय नहीं हैं। लेकिन लोकतंत्र के सिद्धांत को जिन तीन बुनियादी सवालों से टकराना होता है, उनके मौलिक उत्तर गढ़ने वाले वे पहले भारतीय हैं।

इन तीन बुनियादी प्रश्नों में एक तो यह है कि लोकतंत्र के किसी भी सिद्धांत के पास एक मानक होना चाहिए, कोई ऐसा आदर्श जो बताए कि लोकतंत्र को कैसा होना चाहिए। दूसरे, लोकतंत्र के सिद्धांत के लिए जरूरी है कि वो लोकतंत्र की मौजूदा दशा का अपने आदर्श के आलोक में मूल्यांकन और समीक्षा करे। तीसरे, लोकतंत्र के सिद्धांत के लिए यह बताना भी जरूरी है कि निर्धारित आदर्श तक पहुंचने का रास्ता क्या हो, हम उस रास्ते पर कहां पहुंचे हैं और हमें कहां होने का लक्ष्य बाँधना चाहिए।

डॉ. आंबेडकर के उत्तर मौलिक थे क्योंकि उन उत्तरों की एक ठोस जमीन है, वे किसी अमूर्तन से पैदा नहीं। उनका चिंतन भारतीय संदर्भों से उपजता है।

डॉ. आंबेडकर के वक्त में लोकतंत्र को लेकर सोचने-विचारने की दो धाराएं प्रभावी थीं और उनका चिंतन इन दोनों ही धाराओं से अलग एक विशिष्ट पहचान रखता है। एक तरफ जवाहरलाल नेहरू सरीखे उदारवादी थे जिन्हें विश्वास था कि लोकतंत्र की जो परिकथा पश्चिम ने बना और चला रखी है कुछ वैसा ही भारत में भी होगा, भले ही इसमें कुछ वक्त लगे। ऐसे उदारवादियों की समझ थी कि पश्चिमी लोकतंत्र ही आदर्श रूप है और भारत ने संविधान लागू कर तथा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के जरिए इस आदर्श की तरफ यात्रा शुरू कर दी है।

दूसरी तरफ थे इस सोच के आलोचक, खासकर वामधारा के आलोचक, जो मानकर चल रहे थे कि भारत में लोकतंत्र को अपनाना एक ढोंग है, यह कुछ और नहीं बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की ओट में पूंजीपति वर्ग का शासन है।

वेस्टमिंस्टर शैली के इस लोकतंत्र को महात्मा गांधी भी बुरा समझते थे। डॉ. आंबेडकर ने सतर्क और सशर्त आशावाद का रास्ता अपनाया, यह आशावाद लोकतंत्र के अमूर्त वादे से उपजा था और सतर्कता के बर्ताव की बात उनकी सोच में भारतीय संदर्भों को लेकर थी।

लोकतंत्र का मौलिक आदर्श

आंबेडकर ने लोकतंत्र की एक मौलिक परिभाषा दी। यह परिभाषा बीसवीं सदी में प्रचलित लोकतंत्र के सिद्धांतों की प्रक्रियागत परिभाषा से मौलिक अर्थों में भिन्न थी। ऐसा नहीं कि लोकतंत्र के प्रक्रियागत पक्षों का उन्हें ध्यान न था लेकिन उनका मानना था कि चुनाव और संसद सरीखी प्रक्रियागत चीजों का एक निश्चित लक्ष्य है और ‘वह लक्ष्य है लोगों का कल्याण करना…’

उन्होंने हमारे अपने वक्त के लिए लोकतंत्र की एक परिभाषा गढ़ी जो उन्हें लोकतंत्र के प्रभुत्वशाली सिद्धांतकारों से अलग करती है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र ‘शासन का वह रूप और पद्धति है जिसमें बिना रक्तपात के लोगों के आर्थिक और सामाजिक जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाया जाता है।’ (कंडीशन्स प्रीसिडेंट फॉर सक्सेलफुल वर्किंग ऑफ डेमोक्रेसी, 1952)

लोकतंत्र की पश्चिमी परिकल्पना से, जो स्वतंत्रता को अपने परिदृश्य में आगे रखकर चलती थी, अलग रुख अपनाते हुए आंबेडकर ने समानता और बंधुता को लोकतंत्र के मर्म के रूप में चिह्नित किया। वे लिखते हैं, ‘लोकतंत्र की जड़ सरकार के रूप, संसद या ऐसी किसी चीज में नहीं। लोकतंत्र सरकार के रूप से कहीं ज्यादा गहरी शय है। यह सहकार-भाव से जीने का तरीका है। लोकतंत्र का मूल सामाजिक संबंधों में खोजा जाना चाहिए, लोगों के सहकारी जीवन में, जो समाज का निर्माण करते हैं।’ (प्रास्पेक्ट्स ऑफ डेमोक्रेसी इन इंडिया, 1956) इस आदर्श के लिए आंबेडकर बौद्ध परंपरा की ओर मुड़े। उन्होंने जोर देकर कहा कि बौद्ध-संघ संसदीय लोकतंत्र का मॉडल थे।

मौजूदा लोकतंत्र की आलोचना

इस आदर्श के आलोक में, आंबेडकर ने अपने को लोकतंत्र बताने वाले तमाम समाजों की आलोचना की। यों उनकी यह आलोचना सामान्यतया सभी समाजों के लिए है लेकिन उसका मुख्य विषय भारतीय समाज है। लोकतंत्र जिस तरह के ‘सहकारी जीवन’ की अपेक्षा रखता है, वैसा भारत में मौजूद नहीं। जाति-व्यवस्था ने यहां समाज को कई समानांतर, खुद में बँधे हुए समुदायों में बदल दिया है जिसकी वजह से किसी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जैसा संवाद अनिवार्य है, वह संभव ही नहीं हो पाता।

इस तरह देखें तो जान पड़ेगा कि आंबडेकर की जाति-व्यवस्था की आलोचना में सिर्फ यही निहित नहीं कि यह व्यवस्था ‘दलित वर्गों’ के लिए अन्यायी और शोषणकारी है, बल्कि इस आलोचना में यह भी निहित है कि जाति-व्यवस्था राष्ट्रीय एकता में बाधक है और उसने लोकतंत्र को असंभव बना दिया है।

डॉ. आंबेडकर ने इस आलोचना को कामयाब लोकतंत्र की एक पूर्वशर्त के रूप में बरता। उन्होंने याद दिलाया कि, ‘लोकतंत्र हर जगह उगने वाला पौधा नहीं।’ वे अकसर इटली और जर्मनी का उदाहरण देते थे जहां सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र नाकाम हुआ।

आंबेडकर मानते थे कि लोकतंत्र की पहली और सबसे जरूरी शर्त है कि बड़े पैमाने की गैर-बराबरी ना हो, हर नागरिक के साथ शासन-प्रशासन बराबरी का बर्ताव करता हो। ऐसे बर्ताव के लिए जरूरी होता है कि संविधान-प्रदत्त नैतिकता में लोगों का विश्वास हो, लोक-विवेक जाग्रत हो और समाज की नैतिक व्यवस्था कायम रहे।

इस सिलसिले में आंबेडकर ने याद दिलाया कि विपक्ष की मौजूदगी और उसके प्रति सम्मान के अभाव में लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती, बहुसंख्यकों की तानाशाही लोकतंत्र के एकदम विपरीत है।

लोकतांत्रिक भविष्य की राह

वर्तमान दशा से निकलकर अपने वांछित भविष्य की तरफ कैसे जाएं— इसे लेकर आंबेडकर की दृष्टि अनूठी कही जाएगी। अपने वक्त के सामाजिक क्रांतिकारियों के विपरीत उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था को हिंसक या फिर अहिंसक तरीके से पलट देने की बात नहीं कही। दरअसल, एक दफे तो उन्होंने यह भी कहा था कि आजाद भारत में सत्याग्रह या सिविल नाफरमानी का रास्ता अख्तियार नहीं किया जाना चाहिए। लोकतंत्र के एक मूलगामी सिद्धांतकार के लिए यह बात तनिक परंपरावादी लगती है। लेकिन गहराई से विचार करें तो लगेगा कि आंबेडकर की इस बात में बड़ी महीन मूलगामिता का भाव है।

आंबेडकर राजनीतिक संस्थाओं के सामाजिक प्रभावों के पहले गंभीर भारतीय अध्येता हैं। वे इस बात को समझते थे कि हर सांस्थानिक बनावट में कुछ ना कुछ ऐसा होता है जो अनपेक्षित नतीजे देता है, ऐसे नतीजे जिसकी कल्पना संस्था रचने वालों ने नहीं की होती। बात चाहे लोकतांत्रिक शासन की राष्ट्रपति केंद्रित प्रणाली के ऊपर संसदीय प्रणाली को चुनने की हो या फिर किसी गांव की निर्वाचित पंचायत की शक्ति और भूमिका तय करने की बात या फिर भाषा के आधार पर राज्य बनाने अथवा देश का बंटवारा करने की बात- आंबेडकर ने बड़ी पैनी नज़र से इन प्रसंगों को देखते हुए बताया कि इनमें से हरेक मामले में जो फैसले लिये गए उनका समाज के हाशिए के लोगों पर क्या दुष्प्रभाव होने जा रहे हैं।

स्टेट्स एंड मायनॉरिटीज में उन्होंने जिस तरह की संस्थागत बनावट की बात कही उसमें यह झलकता है कि सामाजिक बदलाव के लिए राजनीतिक रूपाकारों का किस महीनी से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। कहना ना होगा कि सुधार-परिष्कार की इन तमाम बातों के बीच जाति-व्यवस्था के समूल खात्मे का उनका संकल्प अडिग बना रहा।

आज के भारत में जातिगत गैर-बराबरी समेत असमानताओं के अन्य प्रसंगों के जारी रहने तथा बहुसंख्यक-परस्त लोकतंत्र के उभार पर आंबेडकर क्या कहते— इस बात को जानने के लिए हमें कल्पना की लंबी छलांग लगाने की जरूरत नहीं। बस सावधानीपूर्वक सोच-विचार और तनिक कल्पना के जोर के सहारे हमें आंबेडकर के मौलिक चिंतन में आये इन विचार-सूत्रों को 21वीं सदी के मूलगामी लोकतंत्र के सुसंगत सिद्धांत में बदलने की जरूरत है। यह काम उनके कंधों पर है जो बाबासाहब की जयंती के अवसर पर मनाये जा रहे उत्सवों के पार जाते हुए उनकी बौद्धिक विरासत को गंभीरता से लेता।

( द प्रिंट से साभार )

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