— सच्चिदानंद सिन्हा —
संस्कृति को कला, साहित्य, नाट्य, नृत्य और संगीत आदि की अभिव्यक्ति के रूप में सीमित करने का रुझान अब भी बरकरार है। संस्कृति को मनुष्य के सर्वांगीण विकास के कारण के रूप में देखने का प्रयास होना चाहिए। इस दृष्टि से किसान का कृषि कर्म या करघा पर और कारखाने में काम करनेवाले मजदूर का निर्माण कार्य उतना ही सांस्कृतिक है, जितना कवि की कविता या गायक का संगीत है। पुरानी दृष्टि के रूढ़ होने का एक और भी कारण हो सकता है। कवि अथवा कलाकार सदा एक सम्मानित समूह रहा है और वर्ग विभाजित समाज में एक श्रमिक के रूप में चिह्नित होना रुचिकर नहीं होता। हालांकि जब हम हस्तशिल्प की दुनिया में आते हैं तब यह फर्क कर पाना मुश्किल है कि शिल्पकार की कृति कितनी आवश्यकता पूर्ति का साधन है और कितनी कला। प्राचीन यूनान की कलाओं या मधुबनी चित्रकला को हम किस कोटि में रखेंगे?
अगर हम इस भेद को हटा दें तो शायद एक ऐसे भविष्य की कल्पना भी हो सकती है जिसमें आवश्यकताओं की पूर्ति के सारे कार्यकलाप कला का रूप धारण कर लें। आज ही उत्पादन प्रक्रिया में पर्यावरण के क्षय से मानव जीवन की सुरक्षा के लिए उद्योगों के विकास को कुछ वैसी ही दिशा देना जरूरी लगता है, जहां आदमी हस्तकला का केंद्रीय स्थान ग्रहण कर ले और हर तरह का निर्माण कार्य कलाकर्म बन जाए। बर्तानी कवि-कलाकार समाजवादी विलियम मॉरिस की कला संबंधी कुछ ऐसी ही कल्पना थी जो औद्योगिक क्रांति के बाद के उद्यमों में श्रम के बेगानेपन की समस्या से रूबरू होने से उपजी थी। दिलचस्प है कि मॉरिस भी महात्मा गांधी की तरह जॉन रस्किन के विचारों से प्रभावित थे। यह भी जानना दिलचस्प है कि 1843 और 1847 के बीच कार्ल मार्क्स ने अपने लेखों में जो दार्शनिक उड़ानें भरी थीं उनमें तत्कालीन श्रम विभाजन को भी मानव के व्यक्तित्व को खंडित करनेवाले कारक की तरह चिह्नित किया था। शायद वर्तमान औद्योगिक व्यवस्था में निहित मनुष्य के विखंडन से मार्क्स भी काफी व्यथित होते और इस आधार पर भी वर्तमान समाज व्यवस्था को अस्वीकार्य मानते।
इंसान की जीवन दृष्टि
शिल्प और औद्योगिक उत्पादन- जिसमें भोजन, वस्त्र, आवास आदि सभी का उत्पादन शामिल है- के बीच की दरार का एक आयाम यह भी है कि उत्पादन प्रक्रिया स्वयं खंडित है, जिसमें मजदूर अलग-अलग उत्पादक वस्तुओं के अलग-अलग हिस्से का ही उत्पादन करता है और इसमें उसकी जीवन दृष्टि भी खंडित हो जाती है या जीवन दृष्टि की शून्यता पैदा होती है। यह सर्वहारापन की स्थिति संपत्तिहीनता से कहीं अधिक विपन्न करनेवाली होती है क्योंकि इसमें उसकी मनुष्यता का लोप हो जाता है। मनुष्य की मनुष्यता का सबसे विशिष्ट आयाम यह है कि उसकी एक जीवन दृष्टि होती है। वह जो भी करता है एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य में उसका न सिर्फ एक भौगोलिक बल्कि नैतिक और ललित आयाम भी होता है। आदिम कबीलों से लेकर आधुनिक औद्योगीकरण से पहले तक के सभी समाजों में आदमी की एक जीवन दृष्टि होती रही है। संसार की समग्रता के बोध से आदमी स्वयं को इस संसार के एक आवश्यक हिस्से के रूप में देखता रहा है।
आधुनिक प्रचलन के हिसाब से समग्रता बोध को हम मनुष्य की विचारधारा कह सकते हैं। प्रत्येक समाज की एक विचारधारा होती थी। व्यक्तियों की विचारधाराएं अपने समाज की विचारधारा में समाहित होती थीं।जैसे हर व्यक्ति का इंद्रधनुष अलग-अलग और अपना होता है क्योंकि इनमें प्रत्येक अलग-अलग बूंदों से प्रत्यावर्तित प्रकाश से ही इसे देखता है वैसे ही वैयक्तिक भिन्नताओं के बावजूद आदिम समाजों से लेकर आधुनिक समाजों तक में विश्वदृष्टि की सामूहिकता भी सदा रही है।
वर्तमान समाज में पहली दफे एक विखंडन दिखाई देता है, जिसमें मनुष्यों के सारे अनुभवों को समेट कर किसी आख्यान के तहत लाने के प्रयास को हास्यास्पद माना जाने लगा है- मसलन तथाकथित उत्तर आधुनिकता के विचार में। इस दृष्टि से मानव अस्तित्व स्वयं अर्थहीन बन जाता है। एक आत्यंतिक अर्थ में इस दृष्टि को बिलकुल नकारा नहीं जा सकता। कहीं कोई मानवेतर चेतना का ऐसा केंद्र नहीं, जो हमें कहे कि हमारे अस्तित्व का पड़ोस में पड़े किसी पत्थर के टुकड़े से अधिक अर्थ है। लेकिन मनुष्य की जीवन दृष्टि ही अपनी केंद्रीयता से, चाहे वह धर्मदर्शन या किसी दूसरे आख्यान से आए, हमें जीवित रहने का हौसला देती है।
पूरे जीव जगत में एक जिजीविषा व्याप्त है, जो जीवों की आनुवंशिकी से आती है। मनुष्य में उसकी संस्कृति में इसकी उपस्थिति एक पूरक शक्ति के रूप में मिलती है। अगर संस्कृति में इस पूरक शक्ति का अभाव हो जाए तो व्यक्तिगत या सामूहिक आत्महत्या का रुझान पैदा होगा।अस्तित्ववादी दर्शन में, विशेषकर आल्बेयर कामू में ‘एबसर्ड’ की एक भावना और आत्महत्या को संबद्ध मानने का रुझान मिलता है। इस दृष्टि से विचारधारा की विशेष भूमिका मानव अस्तित्व के लिए हो जाती है। इस अर्थ में मानव संस्कृति जो विचारधारा की वाहक भी है जिजीविषा का एक अतिरिक्त स्रोत बन जाती है। यह अनुभूति ललित कलाओं से परे जा संस्कृति को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करने की मांग करती है।
तर्क नहीं, अनुभूति
ऊपर जिजीविषा की बात की गई है। लेकिन यह जिजीविषा हमारे लिए सबसे बड़ी पहेली है। एक अति सूक्ष्म कीटाणु से लेकर पूर्ण विकसित मनुष्य तक में जीवन को बचाए रखने का दबाव कहां से आता है? सभी स्तरों पर जीवित प्राणी के कार्यकलाप या प्राणियों की प्रजातियों का विकास जीवन पर बाह्य स्थिति के दबाव (चाहे वे आनुवंशिक हों या संस्कृति जनित) के प्रत्युत्तर (रेस्पांस) के रूप में आते रहे हैं। जीवों में इस अनुभूति का स्रोत क्या है? यह फिर हमें हजारों वर्षों से अनुत्तरित समस्या ‘जीवन क्या है?’ से रूबरू कर देती है। यह चेतना या इसकी अनुभूति मनुष्य की तर्कबुद्धि से भिन्न है। विख्यात दार्शनिक और गणितज्ञ रेने देकार्त (1596-1650) इस पहेली पर विचार करते हुए और सभी मान्यताओं पर संशय व्यक्त करते हुए इस नतीजे पर पहुंचे “मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं।” यह एक तर्कशास्त्री और गणितज्ञ का उत्तर हो सकता है। लेकिन मूल प्रश्न से यह भी किनाराकशी कर लेता है। सोचना और गणितीय ज्ञान एक तार्किक प्रक्रिया है और एक अतिविकसित कंप्यूटर भी बाहरी समस्याओं से सामना होने पर उसपर पूर्ण तार्किकता से विचार कर सकता है। लेकिन चेतना का मूल तार्किकता में नहीं है, बल्कि अनुभूति में है। दरअसल देकार्त को कहना यह चाहिए था कि “मैं अनुभव करता हूं और इसलिए मैं हूं।” इसमें एक-कोशीय जीव से लेकर अति विकसित मनुष्य तक सभी प्रजातियों में जीवन के अस्तित्व की मूल अभिव्यक्ति हो जाती है।
यह तर्कशक्ति नहीं अनुभूति का गुण है जो जीवन जगत को संसार की सभी सरल और जटिल वस्तुओं से अलग कोटि में डाल देता है। देकार्त ने चैतन्य मनुष्य के अस्तित्व को अनुभूति की बजाय मनुष्य की सोचने की शक्ति तर्कबुद्धि से जोड़ा। इससे वह संसार को दो खंडों में बांटने को विवश हुआ- एक तरफ मशीन की तरह कार्यशील आदमी का शरीर और दूसरी ओर चैतन्य आत्मा। इन दो अस्तित्वों को जोड़नेवाला कोई पुल नहीं था, क्योंकि जड़ और चेतन बिलकुल भिन्न अस्तित्व थे, जिन्हें जोड़नेवाला कोई समान तत्त्व नहीं था। इस तरह हम मशीन में बैठे हुए देव की कल्पना पर पहुंच गए। देकार्त के अनुसार पिनियल ग्लैंड में उपस्थित यह देव सारे मशीन के कार्यकलाप को प्रभावित करता है। वास्तव में यह कोई समाधान था नहीं। जड़ और चेतन के बीच संवाद का क्या सूत्र है, यह अज्ञात रहा।
सुखद और दुखद अनुभूतियों से युक्त जीवन का विकास कैसे हुआ, यह अब तक अनुत्तरित प्रश्न है। क्या फैलाव (एक्सटेंशन) और भार (मास) की तरह पदार्थ में चेतना का गुण भी एक स्थूल और अव्यक्त रूप में अनिवार्य उपस्थिति है जो पदार्थ के अति जटिल विकास मसलन सरल एक-कोशीय जीवन के डीएनए के विकास के साथ व्यक्त होता है?
जो भी हो, इस बात की चर्चा इसलिए कर देना जरूरी लगता है क्योंकि जीवन रक्षा के लिए और उनके विविध गुणों के विकास के लिए सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव में भी सुखद और दुखद या जीवन रक्षक और मारक स्थितियों के फर्क की पहचान की चेतना या वेदना जरूरी थी। इसके बगैर जीवन निश्चेष्ट रहकर और मारक स्थितियों को कबूल कर अपने अस्तित्व को मिटा देता। जीवन और संस्कृति के विकास के लिए यह अनुभूति एक अनिवार्य शर्त थी जिसमें कुछ स्थितियों के स्वागत और कुछ के निवारण का अंतर्भूत रुझान होता।
मादा की श्रेष्ठता
एक दूसरा प्रश्न नर-नारी संबंध का है, जिस पर संस्कृति के संदर्भ में कुछ बुनियादी समझ विकसित करना जरूरी लगता है। यह समझना मुश्किल लगता है कि जीवन बनाये रखने में एक दूसरे पर पूरी तरह निर्भर पुरुष और स्त्री के संबंध में आक्रामकता और हिंसा की स्थितियां क्यों लगातार बनती रहती हैं। हमें इस प्रश्न से जूझना ही होगा क्योंकि यह संबंध संस्कृति का वृहद हिस्सा है।
अगर हम विभिन्न स्तनपायी जीवों से मनुष्यों की तुलना करें तो स्थिति को समझने में कुछ सहायता मिलेगी। चूहे से लेकर मनुष्य के सबसे करीबी जीव चिंपाजी और फिर मनुष्य तक सभी स्तनपायी प्रजातियों में बच्चों का पोषण और भोजन प्राप्त करने तथा सुरक्षा का उनका प्रशिक्षण लगभग पूरी तरह प्रजाति की मादा पर निर्भर करता है। विकास के संदर्भ में इसका अनिवार्य पक्ष यह है कि मादाओं में मस्तिष्क का विकास नर से अधिक होगा। उनमें बुद्धि, अध्यवसाय और स्थितियों के आकलन की क्षमता नर से ज्यादा होगी क्योंकि संतान का जीवन इन गुणों पर पूरी तरह निर्भर है। उनमें बर्दाश्त करने का गुण भी अधिक होगा ताकि कठिनाइयां झेलकर भी संतान की रक्षा करें। यह बात शेर, चिंपाजी और दूसरे स्तनपायी जीवों के व्यवहार में भी दिखाई देती है। इसका अर्थ है कि सामान्यतः मादाएं बौद्धिक दृष्टि से श्रेष्ठ होंगी।
दूसरी ओर, सामूहिक जीवन होने से बच्चों की देखरेख से मुक्त नर पर ही दूसरे जीवों और स्वयं अपनी प्रजाति के दूसरे समूहों से रक्षा की जवाबदेही मूलतः रही है। इससे डील-डौल और शारीरिक शक्ति का विकास मर्दों में अधिक हुआ। यह बात ओलंपिक खेलों में औरत और मर्द प्रतिभागियों के शारीरिक डील-डौल और उपलब्धियों के आंकड़ों में साफ दिखाई देती है। संभवतः शारीरिक शक्ति की इस श्रेष्ठता का फायदा उठा मर्दों ने पूरे समाज पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया और अनेक जगह औरतों को घरों में बंद कर दिया। कहा जा सकता है कि शिक्षा के क्षेत्र में भी अब तक कुल मिलाकर मर्दों का स्कोर अधिक रहा है। इसका एकमात्र कारण यह दिखाई देता है कि प्रतिस्पर्धा की स्थितियां अब तक समान नहीं रही हैं। जहां स्थितियां समान रहती हैं, वहां प्रायः औरतों का प्रदर्शन बेहतर होता है। हाल के स्कूल-कॉलेजों की परीक्षा के नतीजे यही बताते हैं। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि पढ़ने-लिखने वाली लड़कियों को प्रायः वैसे घरेलू कामों में भी हाथ बंटाना होता है जिससे लड़के आजाद होते हैं।
शारीरिक बल की प्रधानता राज्य-व्यवस्था में भी प्रतिबिंबित होती है। क्योंकि राज्य-व्यवस्था अंततः बल के बूते राज्याज्ञा को आरोपित करने का ही माध्यम है और पशुबल का प्रतीक है। संस्थाओं और कार्यालयों मं महिलाओं को, संस्थागत वर्चस्व के साथ-साथ अगर बॉस पुरुष है, तो पुरुषत्व का दबाव भी झेलना पड़ता है। इस स्थिति से निजात संस्कृति के भीतर लोगों की दृष्टि में इस मूलभूत बदलाव से ही मिल सकती है कि पुरुष औरतों की समग्र श्रेष्ठता को कबूल करें और यह मानकर चलें कि किसी क्षेत्र में मर्द की श्रेष्ठता अपवाद है, नियम नहीं।
समाज में बल-प्रयोग का दायरा जैसे-जैसे घटेगा औरतों की स्थिति और औरत-मर्द संबंधों में बुनियादी बदलाव आएगा। लेकिन यह एक लंबी प्रक्रिया हो सकती है।औरतों की स्वाभाविक श्रेष्ठता को कबूल कर लेने पर यह दृष्टि जल्दी ही फैलेगी, यह आशा की जा सकती है। अभी तक तो यही हो रहा है कि उत्पादन और समाज व्यवस्था दोनों में विशाल संगठनों और नौकरशाही का विस्तार हो रहा है और इनमें वर्चस्व स्थापित करने की प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। इनमें मर्दानगी स्थापित करने का रुझान भी बढ़ रहा है। धीरे-धीरे वैयक्तिक और पारिवारिक संबंध कमजोर पड़ रहा है और संस्थाजन्य संबंध हावी हो रहा है- इसमें वर्चस्व का प्रतीक मर्दानगी बन रही है।
पुरानी कविता की यह पंक्ति ‘क्या खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी’ इसी संदर्भ में समझी जा सकती है। इसका संस्थागत रूप फौज में औरतों की बढ़ती संख्या और आत्मघाती आतंकवादी दस्तों में औरतों की बढ़ती भागीदारी है। यह जीवन देनेवाली, पालन-पोषण करनेवाली ममतामयी माता की तस्वीर को नष्ट करनेवाली प्रक्रिया है। यह महिलाओं द्वारा पुरुष के आक्रामक रूप को आत्मसात करना है। यह भावनात्मक स्तर पर हिंसक और आक्रामक मर्द की प्रतीकात्मक स्थापना है। एक तरह से वर्तमान समाज के आक्रामक तेवर को उन बचे हुए स्थानों में स्थापित करने का प्रयास है जहां मां की ममता और परोपकार जैसे भाव स्थापित थे। जब नर-नारी संबंध अमूर्त हिंसा की तस्वीर में बदल जाएगा, तो दोनों के संबंध कानूनी और अदालती होंगे और माधुर्य की भावना का लोप हो जाएगा।