(1 मई 2021 से समाजवादी नेता और चिंतक मधु लिमये की जन्मशती शुरू हो रही है। उनका सार्वजनिक जीवन स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सेदारी से शुरू हुआ था। फिर गोवा मुक्ति आंदोलन, मुंबई के श्रमिक आंदोलन और समाजवादी आंदोलन के नेता से लेकर सांसद के रूप में निभाई गई बेहद तेजस्वी भूमिका, उनकी अगाध विद्वत्ता, वक्तृता, प्रखर चिंतन और विपुल लेखन तक, मधु जी की शख्सियत को असाधारण, यादगार और प्रेरक बनानेवाले कई पक्ष हैं। जाहिर है, जन्मशती वर्ष में इन सब के बारे में लिखा जाएगा। लेकिन यहां हम मधुजी की जन्मशती पर एक ऐसा लेख भी दे रहे हैं जो सबसे अलग है। यह दरअसल संस्मरण है जो उनके सुपुत्र ने अपने माता-पिता के बारे में लिखा था, एक किताब में संकलित किए जाने के मकसद से। यह संस्मरण हमें उपलब्ध कराने के लिए हम लेखक के आभारी हैं।)
मेरे पिता की लिखी ढेर सारी पुस्तकों में से उनकी अपूर्ण ‘आत्मकथा’ को छोड़ दें (जिसका केवल पहला भाग मराठी में लिखा जा सका था और मरणोपरांत प्रकाशित हुआ, फिर उसका हिंदी अनुवाद भी छपा) तो यह पुस्तक- गोवा लिबरेशन मूवमेंट ऐंड मधु लिमये- उनकी सबसे ‘वैयक्तिक’ पुस्तक है। यह किताब भी मरणोपरांत प्रकाशित हुई थी, 1996 में, गोवा मुक्ति आंदोलन की स्वर्ण जयंती पर, जिस आंदोलन का आगाज डॉ. राममनोहर लोहिया ने 18 जून 1946 को किया था।
चूंकि यह किताब मधु जी की जन्मशती पर पुनर्प्रकाशित की जा रही है, मुझसे कहा गया कि इस किताब में शामिल करने के लिए मैं अपने माता-पिता के बारे में एक छोटा-सा निबंध या लेख लिख दूं। फिर मैंने सोचा कि उनके आपसी रिश्ते के बारे में अपना एक संस्मरण लिखना ज्यादा ठीक रहेगा।
मेरे पिता (स्व.) मधु लिमये और मेरी मां (स्व.) चंपा लिमये (विवाह-पूर्व उनका नाम चंपा गुप्ते था) ने जैसा प्रफुल्लित और परस्पर पूरक दांपत्य जीवन जीया और जीवन-भर उनके रिश्ते में जैसा आपसी समान तथा अद्भुत साथीपन था वैसा बहुत कम देखने में आता है। मुझे अब भी उनके विवाह को लेकर विस्मय होता है, और यह बात भी किसी चमत्कार से कम नहीं लगती, कि उन्होंने साथ-साथ सार्थक जीवन जीया, हालांकि उनका जीवन नाटकीय उतार-चढ़ाव से भरपूर था।
बचपन से ही मेरी मां कुछ नाजुक थीं। सात साल की उम्र तक उनके पांवों के तलुवों से जब-तब खून रिसने लगता था और वह बड़ी मुश्किल से चल पाती थीं। उन्हें उठा कर ले जाना पड़ता था। उनके पांव ताउम्र छोटे और नाजुक ही रहे। बचपन में वह दो बार टाइफाइड की चपेट में आईं। दूसरी बार उनकी हालत बहुत ज्यादा बिगड़ गई थी और डॉक्टरों ने उनके बच पाने की उम्मीद छोड़ दी थी। लेकिन चमत्कारिक ढंग से वह बच गईं। तब टाइफाइड के इलाज के लिए पेनिसिलिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन और क्लोरोमाइसेटिन जैसे एंटी बायोटिक नहीं थे। वह बच तो गईं पर टाइफाइड की इस चपेट के चलते उनका पाचन तंत्र जिंदगी-भर कमजोर ही रहा। विवाह के बाद उन्होंने बड़ी सहजता से जो कष्ट झेले और मुश्किलें उठाईं उनका शरीर वैसा नहीं था। कष्टों और मुश्किलों का सामना उन्होंने अपनी संकल्पशक्ति और मेरे पिता के प्रति अपने समर्पण की बदौलत किया।
मां का जन्म और लालन-पालन उत्तरी महाराष्ट्र के जलगांव जिले के अमलनेर कस्बे में एक खाते-पीते परिवार में हुआ था। उनके पिता एक कामयाब और प्रतिष्ठित वकील थे। उनका परिवार धार्मिक और कर्मकांडी था। परंपरानिष्ठ, अलबत्ता सामाजिक रूप से कट्टर नहीं। काफी संरक्षणशील और जोखिम से बचनेवाला। आरंभिक युवावस्था में मां की रुचि मराठी, हिंदी और संस्कृत साहित्य, काव्य, वक्तृता और रंगकर्म में थी, राजनीति में नहीं। उनका पारंपरिक विवाह होने की ही संभावना अधिक थी। पर वह तो होना नहीं था।
मेरे पिता को, जिन्होंने आजादी की लड़ाई और समाजवादी आंदोलन में भाग लेने के लिए कॉलेज छोड़ दिया था, धुले जिले में राजनीतिक काम शुरू करने का जिम्मा सौंपा गया था। उन्होंने धुले-जलगांव जिलों में (तब दोनों को जोड़कर खानदेश कहा जाता था) 1940 से लेकर 1947-48 तक अपना काम जारी रखा। फिर वह अचानक राष्ट्रीय फलक पर आ गए और मुंबई चले गए, जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया था और सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ। इस तरह खानदेश में, जहां मेरे पिता कई साल सक्रिय रहे, उन्हें एक अनूठी पत्नी पाने का सौभाग्य मिला।
मां अपेक्षया बहिर्मुखी तथा अधिक मिलनसार थीं, जबकि पिताजी शर्मीले, अंतर्मुखी और संकोची थे। जो लोग मेरे पिता को एक तेज-तर्रार राजनीतिक नेता के रूप में जानते हैं वे शायद ही इसपर यकीन करें कि जो व्यक्ति जिंदगी-भर हजारों लोगों के संपर्क में आता रहा और हर तरह के कार्यक्षेत्र से ताल्लुक रखनेवाले बहुत सारे लोग जिसके आजीवन दोस्त रहे, वह एक संकोची और शर्मीला इंसान था। लेकिन मैं अपने अनुभव से जानता हूं कि मेरे माता-पिता ऐसे ही थे। पिताजी को फालतू की गपशप या हल्की किस्म की बातचीत जरा-भी रास नहीं आती थी, और किसी से घुलने-मिलने में उन्हें वक्त लगता था।
मेरे पिता ने तत्कालीन परिस्थितियों के कारण राजनीति में प्रवेश किया था, इसने उनकी आदर्शवादी प्रकृति को सक्रिय बना दिया था और यही चीज उन्हें आजादी की लड़ाई और समाजवादी आंदोलन में भागीदारी की ओर ले गई। अपने समर्पण और अपनी खूबियों के बावजूद वह पहली कतार के एक राजनीतिक कार्यकर्ता होकर रह जाते, अगर पहले श्री एसएम जोशी और बाद में श्री जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया ने उन्हें उनके आरंभिक राजनीतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण मौके, जिम्मेदारियां और भूमिकाएं न सौंपी होतीं।
पिताजी आर्थिक दृष्टि से एक बहुत साधारण परिवार के थे। इस तरह, शर्मीले और संकोची मेरे पिता के लिए यह और भी कठिन रहा होगा कि वह एक ऐसी युवती का हाथ मांग सकें जो अपेक्षया संपन्न परिवार से ताल्लुक रखती हो, साथ ही वह परिवार परंपरानिष्ठ और भिन्न जाति का हो।
अप्रैल 1947 में सामाजिक रूप से सचेत मेरी मां की कुछ सहेलियों तथा उनके शिक्षकों, प्रोफेसरों ने तय किया कि मधु जी को आमंत्रित किया जाय, राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास और स्वतंत्रता आंदोलन पर एक व्याख्यान श्रृंखला के लिए वक्ता के तौर पर। वे लोग मधु जी को साने गुरु जी के निकट सहयोगी और युवा स्वतंत्रता सेनानी तथा खानदेश में सक्रिय समाजवादी कार्यकर्ता के रूप में जानते थे। मेरे पिता ने नौ-दस दिन तक रोज घंटा-डेढ़ घंटा ये व्याख्यान दिए, बिना किसी नोट या लिखित संदर्भ का सहारा लिये। श्रोताओं में बैठी महिलाओं में किसी की भी तरफ उन्होंने नजर नहीं फिराई। प्रश्नों का जवाब देने के अलावा, बाकी समय वह शायद ही किसी से बोलते थे। शाम के समय, व्याख्यान के बाद, एक कप चाय पीने के अलावा वहां पल-भर भी वह रुकते नहीं थे। और फिर भी उन्होंने मन-ही-मन तय कर लिया था कि किसी दिन वह चंपा गुप्ते, मेरी होनेवाली मां, के सामने विवाह का प्रस्ताव रखेंगे।
इसके करीब चार साल बाद, जनवरी 1951 में, मेरे पिता और मेरी मां को एक बार फिर मिलने का मौका मिला, सोशलिस्ट नेता अशोक मेहता के एक व्याख्यान के दौरान, जो अमलनेर के प्रताप कॉलेज में आयोजित था, जहां मां ने पढ़ाई की। व्याख्यान के बाद उनके बीच संक्षिप्त बातचीत हुई। और एक सप्ताह बाद, एक पत्र के जरिए पिताजी ने मां को विवाह का प्रस्ताव दिया। उन्होंने जहां अपना हृदय उड़ेल कर रख दिया, वहीं यह भी साफ कर दिया कि उनके साथ कैसा जीवन जीना पड़ेगा, सादगी का, कठिन, लेकिन आदर्शवादी और सार्थक।
मैं किशोर था, जब मैंने अपने माता-पिता की ‘प्रेम कहानी’ कई बार अपनी मां से और कई बार अपनी नानी से सुनी थी।
मैंने अपने माता-पिता से पूछा था : “विवाह से पहले एक दूसरे के साथ घूमने-फिरने या रोमांस का मौका तो मिला नहीं। फिर, भाई, आपने कैसे तय कर लिया कि विवाह की पेशकश करें, और आई (मां) ने उसे कैसे मंजूर कर लिया? आई के बारे में तो खैर, माना जा सकता है कि वह आपकी ख्याति से प्रभावित रही होंगी, पर आप तो उनके बारे में कुछ जानते नहीं थे। और तब आपने कैसे समझा कि एक वही हैं जो आपके लिए बनी हैं?”
जवाब में तार्किक और घोर तर्कवादी पिताजी ने बताया : “मैं सहज बोध से ही यह जानता था कि चंपा से मेरा दिल का नाता है। व्याख्यानमाला के दौरान यह भाव मुझमें जगा था। 1947 के आखीर तक, मैं पक्का निर्णय कर चुका था। लेकिन चंपा अभी बीस साल की ही थी और अपनी स्नातक की पढ़ाई कर रही थी। सौ मैंने इंतजार करने का फैसला किया। लेकिन जब हम फिर 1951 में मिले, मैंने खुद से कहा, यही है वह जिसकी मुझे तलाश थी। मुझे पेशकश करनी ही चाहिए, फिर जो भी हो।”
पिताजी ने जो बताया उसकी पुष्टि करते हुए मां ने कहा : “यह सही है। जब हम फिर मिले,1951 में, मुझे भी लग रहा था कि मधु मेरे जीवन साथी हैं। हमारी अनुभूति को संस्कृत के महान कवि कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् के उस प्रसंग से बताया जा सकता है जब राजा दुष्यंत और शकुंतला ऋषि कण्व के आश्रम में पहली बार मिलते हैं तो एक दूसरे के प्रति कैसा महसूस करते हैं- भावास्थिराणि जन्मजन्मांतर सौहृदानि- ऐसा लगा था जैसे अनेक जन्मों का नाता हो- जनम-जनम का रिश्ता।”
हालांकि नाना और मामा के मन में मधु जी के प्रति काफी प्रशंसा और सम्मान का भाव था, लेकिन नाना को यह सोचकर घबराहट होती थी कि उनकी नाजुक कन्या ऐसे व्यक्ति से विवाह करेगी। और वह भी इतनी मामूली जान-पहचान पर। नाना-नानी के लिए यह आश्चर्य का विषय था कि चंपा और मधु ने कैसे समझ लिया कि वे एक-दूसरे के लिए ठीक रहेंगे? मधु के साथ उसकी जिंदगी कैसी कटेगी? उसे जो कठिनाइयां झेलनी पड़ेंगी, क्या वह झेल पाएगी?
लेकिन मेरी मां मेरे पिता से विवाह करने का पक्का निश्चय कर चुकी थीं, अलबत्ता वह भविष्य को लेकर कुछ सशंकित भी थीं। अब कुछ आगा-पीछा सोचने को नहीं था। सन 1951 के शुरू से लेकर 15 मई 1952 के बीच विवाह करने का निश्चय उन्होंने किया था। जिस दिन विवाह हुआ उसी दिन मां ने मराठी साहित्य और संस्कृत भाषा के साथ स्नातकोत्तर की अपनी पढ़ाई पूरी की थी।
विवाह के दिन ही मां को पहली कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ा। माता-पिता ने मुंबई में सिविल मैरिज का एक छोटा-सा कार्यक्रम तय कर रखा था, तब के स्पेशल मैरिज ऐक्ट के तहत। जब मैरिज रजिस्ट्रार ने पिताजी से पूछा कि वह किस धर्म को मानते हैं, पिताजी का जवाब था कि वह किसी भी धर्म को नहीं मानते। तब रजिस्ट्रार ने वही सवाल मेरी मां से पूछा। उन्होंने कहा कि वह हिंदू धर्म को मानती हैं। यह जवाब सुनकर रजिस्ट्रार ने मां को बताया कि वह यह विवाह संपन्न नहीं करा सकते। दरअसल, उस समय के स्पेशल मैरिज ऐक्ट में ऐसे युगल के विवाह का प्रावधान नहीं था जिनमें से एक किसी भी धर्म को न मानता हो और दूसरा किसी धर्म को माननेवाला हो। तब मां को दो में से एक को चुनना था- एक तरफ हाड़-मांस का पति और दूसरी तरफ निराकार धर्म, जिसमें वह जनमी थीं। पल-भर के सोच-विचार के बाद उन्होंने रजिस्ट्रार को बताया कि वह भी किसी धर्म को नहीं मानतीं। तब जाकर रजिस्ट्रार ने उनका विवाह संपन्न कराया।
स्वतंत्र भारत में दल-बदल की कहानी तभी से शुरू हो गई थी! याद आता है कि मेरे बड़े होने के बाद मैं और पिताजी अकसर मां को दल-बदल करने और फौरन अपना धर्म छोड़ देने के उनके इस कृत्य को लेकर चिढ़ाया करते थे।
दूर से जाननेवाले अधिकतर लोगों को लगेगा कि मेरे माता-पिता के बीच गैर-बराबर या इकतरफा रिश्ता रहा होगा और यह कि मेरे पिता के आदर्शों और सिद्धांतों से सामंजस्य बिठाने के लिए मेरी मां को ही सारे त्याग करने और कष्ट उठाने पड़े होंगे। और यह सबकुछ उन्होंने चुपचाप सहन किया होगा। यह सच नहीं है क्योंकि वह भी उन आदर्शों और सिद्धांतों को मानती थीं और उन्हें अपने पति की असाधारण प्रतिभा तथा उपलब्धियों पर गर्व था। इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें किसी दुख या चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा, या उनके बीच तर्क-वितर्क और मतभेद नहीं हुए। लेकिन ऐसा कभी-कभार ही हुआ और वे आसानी से सुलझा लिये गए।
पिताजी की जिंदगी में, और बाद में हम सब की जिंदगी में मेरी मां ने जो भूमिका निभाई उसकी तारीफ करते पिताजी थकते नहीं थे। नवंबर 1964 में लोकसभा के लिए चुने जाने तक पिताजी की कोई नियमित आय नहीं थी। मां कॉलेज-शिक्षिका की अपनी तनख्वाह से घर का खर्च चलाती थीं और तनख्वाह से होनेवाली कसर ट्यूशन से पूरी करती थीं। वह घर की देखभाल करतीं, मुझे पालतीं-पोसतीं और विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी शामिल होतीं। जब पिताजी गोवा की जेल में थे, उनके सबसे छोटे भाई पुणे में मेडिसिन की पढ़ाई कर रहे थे। मां जो कुछ भी बचत कर पाती थीं, नियमित रूप से मेरे दादा-दादी को घर-खर्च चलाने और मेरे चाचा को पढ़ाई में मदद के लिए भेजती थीं।
पिताजी हमेशा अपनी यह भावना और हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते रहते थे कि मेरी मां के प्यार और निरंतर सहयोग के बिना और घर तथा मेरी देखभाल को लेकर उन्होंने जिस तरह निश्चिंत कर रखा था उसके बिना सिद्धांतों की राजनीति कर सकना या कुछ भी खास कर पाना संभव न हुआ होता। यदि मेरी मां का सहारा न रहता तो उन्हें राजनीति छोड़नी पड़ जाती।
यह कतई नहीं कहा जा सकता कि पिताजी अपने दृष्टिकोण और विचार मेरी मां पर थोपते थे। जितने लोगों को मैंने जाना है, डॉ राममनोहर लोहिया की तरह मेरे पिता भी एक ऐसे विरल व्यक्ति थे जो हर किसी को समान इज्जत और गरिमा देते थे, उसकी उम्र, शिक्षा, जेंडर, ओहदे या उपलब्धियों का खयाल किए बगैर। सो, कोई भी मसला हो, उसपर घर में तर्कपूर्ण बातचीत होती थी और इसी ढंग से उसे सुलझाया जाता था। कभी कोई फरमान जारी नहीं हुआ, कोई हुक्म नहीं सुनाया गया।
उदाहरण के लिए, जो लोग दिल्ली में बी-11 पिंडारा रोड के मेरे पिता के आवास पर आए होंगे, जहां वह सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद दस साल तक रहे, उन्होंने देखा होगा कि एक साधारण म्यूजिक सिस्टम, पुराने रिकार्ड्स और ऑडियो कैसेट्स को छोड़कर कोई उपकरण या कोई लग्जरी चीज नहीं थी। लेकिन वह और मेरी मां इसपर राजी थे कि मुंबई के हमारे घर में जो जरूरी लगे, चाहें तो वह जुटा सकती थीं, जिसे मैं और मेरी मां अपनी कमाई से खरीद सकें। सो मुंबई के हमारे घर में टीवी, वाशिंग मशीन और फ्रिज भी हो गया। सबसे पहले फ्रिज आया 1970 के दशक के मध्य में, बाकी चीजें करीब एक दशक बाद आईं, जो मां को मेरी भेंट-स्वरूप थीं।
मेरे पिता सिर्फ मेरी मां की तारीफ और फिक्र नहीं करते थे, बल्कि उनका यह भाव सभी गृहिणियों और मांओं के प्रति था, जिन्हें घर चलाने के लिए मुफ्त में खटना पड़ता है। उन्होंने यह सुनिश्चित कर रखा था कि न तो खुद वह, न अन्य कोई पहले से बताए बिना मेहमान के साथ रात-बिरात नहीं आएगा और न वैसी सूरत में यह उम्मीद करेगा मेरी मां मेजबानी करेंगी या खाना बना कर खिलाएंगी। मां की सहूलियत सर्वोपरि थी।
(लेख का बाकी हिस्सा कल )