— अंकेश मद्धेशिया —
उमाकांत मालवीय जी की ख्याति नवगीतकार, कवि एवं ललित निबंधकार के रूप में है। कुछ महीनों पहले मुझे उनके कथाकार से भी परिचित होने का अवसर मिला। उनके कहानी संग्रह ‘टुकड़ा टुकड़ा औरत’ से गुजरते हुए। चाचाजी (आदरणीय उमाकांत जी) अपने बच्चों के बीच भी चाचाजी ही कहलाते हैं। उनके सुपुत्र यश मालवीय इसे अपने संयुक्त परिवार की देन कहते हैं। मैं भी यहां चाचाजी शब्द का ही प्रयोग करूंगा। वैसे वह बच्चों के लिए चाचाजी ही थे; कहानियां सुनाने वाले चाचाजी। आखिर उन्होंने बच्चों के लिए इतनी विपुल मात्रा में साहित्य का सृजन जो किया है।
उनकी किताब के बारे में बताना या उसकी समीक्षा करना यहां मेरा उद्देश्य नहीं है बल्कि उनका लिखा पढ़ते हुए, उनके निबंधों से गुजरते हुए मुझमें यह आत्मविश्वास विकसित हुआ कि मैं भी लिख सकता हूं। भारतीय और पाश्चात्य साहित्य का विद्वान होने के बावजूद उनकी बौद्धिकता आतंकित नहीं करती बल्कि भरोसा दिलाती है। सभी बातों को वह इतनी सरलता से रखते हैं जैसे कोई किस्सा सुना रहे हों। यह किस्से सुनाने का हुनर शायद इलाहाबाद की माटी की देन है। किस्सा सुनाने के इस गुण के कारण उनके परिवार के लोग (जो तब बच्चे रहे होंगे) वे कहानियां सुनाने वाले अपने चाचाजी को याद करते हैं।
अपने कहानी संग्रह ‘टुकड़ा-टुकड़ा औरत’ में भी उन्होंने लंबे समय से प्रचलित कहानियों, मिथकों को बदले हुए समय के अनुरूप फिर से लिखने का काम किया है। मिथक और उसके पात्र उनके सृजनात्मक लेखन का हिस्सा बनने के लिए बराबर ही उनके सामने उपस्थित रहते हैं। उनकी इस विशेषता का ही परिणाम है उनका खंडकाव्य अभिशप्त अमरबेलि, जिसमें जीवन में भागीदारी न कर पाने और जीवन को बोझ की तरह ढोने के लिए अभिशप्त सात अमर व्यक्तियों (अश्वत्थामा, कृपाचार्य, हनुमान, विभीषण, कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास, बालि, मार्कण्डेय) की पीड़ा का वर्णन है।
यदि हम जीवन की अनुभूति न कर सकें, उसमें किसी तरह की भागीदारी न कर सकें तो जीवन का क्या अर्थ है?
चाचाजी के लिए अतीत या मिथक किसी भी तरह की अतीतग्रस्तता का या वर्तमान के संघर्ष से आराम पाने का जरिया नहीं था बल्कि वह इनके माध्यम से भी वर्तमान समय के सवालों, आधुनिकता के प्रश्नों से टकराते हैं। इस टकराहट में न तो वह परंपरा के प्रति श्रद्धा से आतंकित होते हैं, न ही आधुनिकता के प्रति लहालोट होकर परंपरा को हेय दृष्टि से देखते हैं। केवल मिथकों के माध्यम से नहीं बल्कि अपनी बहुत-सी रचनाओं में वह वर्तमान समय के प्रश्नों से सीधे ही टकराते हैं। जहां एक तरफ वह मेंहदी और महावर संग्रह के रूमानी गीत रच सकते थे, वहीं उन्होंने सुबह रक्तपलाश की के गीत भी रचे।
वह रामकथा और उसके पात्रों को नैवेद्य के रूप में राघवराग के निबंध अर्पित करते हैं तो वहीं वह सीता के प्रति अन्याय करनेवाले और बाली के प्रति भेदभाव करनेवाले राम से सवाल करने से भी नहीं हिचकते। आज इन बातों को दोहराने का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य यही है कि आज समाज में आलोचना की प्रवृत्ति को निरंतर हतोत्साहित किया जा रहा है। आप इस बात पर नहीं बोल सकते, आप उस बात पर नहीं बोल सकते। आप यदि ऐसा करते हैं तो दंडित होने के लिए, प्रताड़ित होने के लिए, शारीरिक और मानसिक यातना झेलने के लिए तैयार रहिए।
उमाकांत जी का एक नवगीत है –
आ गया प्यारा दशहरा
आ गया प्यारा दशहरा
भेंट लाया हूं, तुम्हारे लिए बेटे
पुलिस के मजबूत बूटों से
अभी रौंदा हुआ ताज़ा ककहरा
बड़े नाजों से,
तुम्हें पाला सहेजा
हर मुसीबत उठाकर भी
स्कूल भेजा
सिर्फ इस खातिर की कोई एक गोली,
चाट जाये तुम्हारा यह तन इकहरा
आंसुओं की कमी क्या
जो गैस छूटे
उफ अजब कानून
लाठी के अनूठे
पर उठाओ माथ गर्वीला उठाओ
बींधती संगीन सूर्योदय सुनहरा
बड़े आ से आग होती
यही रटते
सिलेटों के इंद्रधनुष
स्वप्न मिटते
लो उठो उपहार पूजा का संभालो
खून से लथपथ मूर्छित भाइयों का
सांवला गोरा बदन बांका छरहरा।
भीड़ की हिंसा और भी तरह-तरह की हिंसा से आक्रांत समय में इस कविता की प्रासंगिकता के बारे में कुछ भी अतिरिक्त लिखने की आवश्यकता नहीं है।
बीते 5 मार्च को उमाकांत मालवीयजी के खंडकाव्य अभिशप्त अमरबेलि पर राघवेन्द्र प्रताप सिंह जी ने उत्तर मध्य सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद में काव्य नाटक का मंचन किया। इस अवसर पर डॉ. धनंजय चोपड़ा ने एक संस्मरण सुनाया कि कैसे उमाकांत चाचाजी जैसे बड़े अपनी बाद की पीढ़ियों को तैयार करते थे। नए लिखने वालों को किस तरह प्रोत्साहित करते रहते थे। आज इसका अभाव बहुत खटकता है।
इसी तरह दो साल पहले बच्चों के लिए लिखी गई उनकी किताब ‘बच्चों के लिए शिक्षाप्रद कहानियां’ के विमोचन के अवसर पर उनके साथ रहे विभिन्न छोटे-बड़े लोगों ने उनके विनोदी स्वभाव से जुड़े अनेक संस्मरण सुनाए।
मैं चाचाजी से कभी मिल तो नहीं पाया क्योंकि उन्हें बहुत अल्प आयु ही मिल पायी थी। तब मैं इलाहाबाद नहीं आया था इसलिए उनसे मिल नहीं सका। पर उनके बारे में सुनकर, उनका लिखा पढ़ते हुए, उनको याद करते हुए मैं अपने एक पुरखा लेखक के प्रोत्साहन भरे स्नेहिल हाथों का स्पर्श अपनी पीठ पर महसूस करता हूं।