— सुज्ञान मोदी —
कोविड के प्रसार के दूसरे दौर में मेरे बालसखा डॉ. नरेन्द्र भंडारी, जो पेस यूनिवर्सिटी, न्यू जर्सी, अमेरिका में पिछले तीस वर्षों से वरिष्ठ प्रोफेसर हैं, ने समाज से एक आह्वान किया है और संदेश के रूप में उसे प्रसारित किया है। अंग्रेजी में किए गए उनके आह्वान का हिंदी रूपांतरण कुछ इस प्रकार होगा—
“जब तक समाज में एक व्यक्ति भी, एक अकेला इंसान भी भूखा है, बीमार है या अशिक्षित है, तब तक हमें जी-जान से काम करना है। उससे पहले हम अपने आप को सच्चे अर्थों में सभ्य, शिक्षित या मनुष्य कहने का दावा नहीं कर सकते। अपनी पसंद की किसी भी संस्था या सेवा-समूह को दान दें। इस कठिन घड़ी में अगर कोई व्यक्तिगत रूप से भी सेवा करने को आगे आता है, तो हरसंभव मदद दें।”
उन्होंने आगे लिखा है – “दूसरों को मदद देने से दो सुफल हमें मिलते हैं। या तो हम समाज का ऋण चुका रहे होते हैं; या फिर भविष्य के लिए पुण्यलाभ अर्जित कर रहे होते हैं। दोनों ही तरह से यह एक सत्कार्य है। दोनों ही तरह से आपको अच्छा महसूस होता है। कृपया जरूरतमंदों की मदद करें। जितना बन सके उतना करें, लेकिन करें अवश्य।”
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में अपने ही तरह के अन्य मनुष्यों के साथ मिलकर रहता है। कोई भी मनुष्य समाज में एकाकी जीवन नहीं जी सकता। सबको एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता होती है। हम सभी अपने-अपने जीवन में सुख, शांति और आनंद ढूंढ़ रहे होते हैं। इनकी प्राप्ति परस्पर बहुविधि योगदान से ही संभव होती है। आपस में एक-दूसरे के लिए परस्पर योगदान ही सेवा कहलाती है। हर कालखंड में दुनियाभर के संतों व सत्पुरुषों ने निष्काम सेवा को ही सच्चे धार्मिक जीवन की कसौटी बताया है।
सार्थक व आध्यात्मिक जीवन का मूल मंत्र है : मैत्री, सेवा, संयम और साधना। जीवन में प्रफुल्लता तथा आनन्द प्राप्त करने का सबसे सरल, सहज और सर्वसुलभ दिव्यमार्ग सेवा ही है। हम अपने जीवन में जो कुछ भी उपलब्धि हासिल कर पाते हैं उसका कारण यह है कि समाज ने हमें उसके लिए अवसर और वातावरण दिया। न जाने कितने लोगों के उपकार की वजह से हम इस स्थिति में पहुँचे हैं। इसलिए हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम समाज को कुछ लौटाएँ।
‘समाज को लौटाने’ की भावना में इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि हमारे मन में कहीं इसका अहंकार न आ जाए। पेड़ में जब फल लगते हैं, तब वे और भी विनम्र होकर झुक जाते हैं। फूल-पत्तियाँ, फल एवं अन्य रूपों में वे हमें क्या कुछ नहीं देते! इस प्रकार प्रकृति में सब कोई समाज को किसी-न-किसी रूप में निरंतर लौटाने की क्रिया में शामिल हैं। अतः सेवा रूप में ‘लौटाने’ की पूर्ण समझ यह है कि हम अहोभाव से, समर्पित भाव से, प्रफुल्लता के भाव से, कारुण्य भाव से, मैत्री भाव से और निष्काम भाव से लौटाएँ। ध्यान रखना है कि केवल और केवल ‘लौटाने का भाव’ ही रहे। कभी भी ‘देने का भाव’ या ‘दान का भाव’ मन में न आए। हम जब लौटाने के भाव से सेवाकार्य करते हैं तो सेवा का अवसर प्रदान करनेवाले ही हमपर उपकार करते हैं। हमारे उस सेवा को स्वीकार करके वे हमें धन्य करते हैं।
‘समाज को लौटाने’ की भावना से किए गए सेवाकार्य का गहन अध्यात्मिक महत्त्व भी है। सामान्य भौतिक जीवन में तो मनुष्य भोग और संग्रहवृत्ति से ही सारे अर्जन-उपार्जन करता है। लेकिन जब वह अपने संग्रह के प्रति बहुत अधिक मोह से ग्रसित हो जाता है, तो उसमें कृपणता की भावना उत्पन्न होती जाती है। मोहजन्य कृपणता और अनुदारता की वजह से हमारे पास सबकुछ होकर हम दुखी ही रहते हैं। ऐसे में आध्यात्मिक और सेवापरक जीवन ही हमें सच्चे आनंद और निर्भयता की ओर ले जाता है। लौटाने की क्रिया में हमारा मोह छूटता है, अहंकार का भाव कम होता जाता है, लोभ छूटता है, तृष्णा छूटती है, स्वार्थ छूटता है, राग कम होता है, परिग्रह के ममत्व का विसर्जन प्रारंभ होता है और अर्जित धन के सार्थक ‘उपयोग’ की शुद्धता विकसित होती है। सबके प्रति एकात्मता एवं सर्व जीवों के प्रति मैत्री भावना परिपुष्ट होती है। हमारी साधन-शुद्धि और सदाचारपूर्ण जीवन का सकारात्मक प्रभाव संतति-स्वजनों पर भी पड़ता है। उनके स्वभाव में उदारता, नम्रता, सेवा व विनय के संस्कार पल्लवित होते हैं।
लौटाने की सेवार्थक क्रिया कई रूपों में हो सकती है। शास्त्रों में अन्न-दान, औषध-दान, शास्त्र-दान, ज्ञान-दान और जीवदया का बखान है। जीवन के पश्चात नेत्र-दान, अंग-दान और देहदान भी करते हैं। इसलिए हम केवल संपत्ति और वस्तु के रूप में ही नहीं, बल्कि शब्द, समय और श्रम के रूप में भी समाज को लौटा सकते हैं। क्योंकि हम जिस भी रूप में जितना भी लौटाएँ, वह समाज द्वारा हमपर किए गए उपकार की तुलना में कम ही होगा। हम जहाँ और जिस भूमिका में भी हों, उसकी सहजता के हिसाब से हम समाज को लौटा सकते हैं।
आइए, हम अपने आसपास देखें। ‘समाज का ऋण लौटाने’ का यही अवसर है। इस आपदा और भारी संकट की इस घड़ी में मानवसेवा का यह अवसर हाथ से न जाने दें। अगर हम निष्क्रिय होकर बैठ गए तो ईश्वर हमें कभी माफ नहीं करेगा। जिससे जो और जितना भी हो सके, मदद का हाथ जरूर बढ़ाना है। मानवता चीत्कार कर रही है। हृदय में दया, करुणा, वात्सल्य और परोपकार की भावना भरकर तुरंत ही कदम बढ़ाना है। आपातकाल का नागरिक धर्म यही है।