आखिरकार एक अवसर हाथ लगा है। इस अंधेरे समय में रोशनी की एक किरण नज़र आयी है। लेकिन इस अवसर का इस्तेमाल तभी कर पायेंगे जब हम मानकर चलें कि ये मौका हमारा कमाया हुआ नहीं है और हमें पता हो कि आगे क्या-क्या नहीं करना है।
बंगाल का जनादेश अपने नतीजों में बड़ा मानीखेज है, चुनावी राजनीति के आम गुणा-गणित के चौखटे में इसे नहीं समझा जा सकता। ये पहली बार नहीं हुआ कि किसी लोकप्रिय मुख्यमंत्री को लगातार तीसरी बार सत्ता मिली है। आम वक्तों में ऐसा हुआ ही है। आम ढर्रे का चुनाव होता तो बीजेपी ने जैसा वोट-शेयर हासिल किया है, उसे एक बड़ी छलांग के रूप में देखा जाता। कोई पार्टी एक ऐसे सूबे में जहां उसके सिर्फ तीन विधायक रहे हों, सीधे मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में आ जाये तो फिर उसके खुश होने के हजार कारण हैं।
लेकिन 2021 का बंगाल का चुनाव कोई आम ढर्रे का चुनाव नहीं था। हाल के समय की सबसे दुस्साहसिक राजनीतिक सेंधमारी की कोशिश की मिसाल था ये चुनाव। बस बंगाल का किला बचा रह गया था, बीजेपी को अपने प्रभुत्व को स्थायी बनाने के लिए, बस बंगाल पर कब्जा जमाने की जरूरत रह गई थी। और, पार्टी ने इस बार बंगाल पर चौतरफा हमला बोला। उसने बंगाल के चुनाव में सारा कुछ झोंक दिया: धनबल, मीडिया-बल, सांगठनिक मशीनरी और अपना ब्रह्मास्त्र यानि नरेंद्र मोदी।
बात चुनाव आयोग की शुचिता की हो और फिर सुरक्षाबलों की निरपेक्षता और कोविड-19 से बचाव के नियमों की- इन सबकी धज्जियां उड़ाते हुए भाजपा चुनावी रण में उतरी थी। पार्टी के नेता अपने विजय की गर्व-गर्जना कर रहे थे और दरबारी इसे सिंहनाद में बदल रहा था। इन सबके बावजूद बीजेपी हार गई और हार ही नहीं गई उसका गर्व धूल में मिल गया।
बदलाव का एक रास्ता खुला है
नये जमाने के इस अश्वमेघ-यज्ञ का घोड़ा रोक लिया गया है। इंद्रजाल का जो तमाशा चल रहा था उसका जादू बीच ही में टूट गया है। जरा सोचिए कि बंगाल पर बीजेपी कब्जा जमाने में कामयाब हो जाती तो क्या होता, जश्न का कैसा शोर मचता, क्या-क्या दावे किये जाते, डर का कैसा माहौल बनता। हमारे देश ने एक दिन के भीतर वह सारा घटाटोप भेद दिया है और आसमान खुलता सा नज़र आ रहा है।
वक्त के इस मोड़ पर बंगाल के चुनाव के नतीजों से जो मंजर सामने आया है उससे अप्रत्याशित संभावनाओं के द्वार खुले हैं। हम लोग महामारी से निपटने में मची सबसे बुरी आपाधापी के बीच भंवर में हैं और अभी की हालत में जो बीजेपी का बड़जोर समर्थक है, वह भी सरकार को शक की निगाह से देखेगा।
लॉकडाउन से पैदा आर्थिक संकट के दुश्चक्र से हम अभी निकले नहीं हैं और महामारी की तेज चढ़ती दूसरी लहर आर्थिक संकट को और ज्यादा धार देगी। किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन भी हमारी आंखों के आगे है और ये आंदोलन अभी थमने नहीं जा रहा। ऐसी स्थिति में बंगाल से जिस तर्ज का जनादेश आया है, उसने मोदी सरकार की कमजोरियों को उजागर किया है, पार्टी के सहज-विश्वासी समर्थकों को जगाया है और पार्टी के विरोधियों का हौसला बढ़ाया है।
केरल और तमिलनाडु से आये चुनावी नतीजे विपक्ष की राजनीति के लिए पुख्ता जमीन तैयार कर सकते हैं। बंगाल का जनादेश राजनीति के उस तिलिस्म को तोड़ सकता है जिसने पिछले सात सालों से देश को अपनी मोहिनी में बांध रखा है। यह लम्हा मोदी के महानायकत्व के खात्मे की शुरुआत का लम्हा साबित हो सकता है।
लेकिन, याद रहे कि ऐसा हो सकता है, होकर ही रहेगा ये कत्तई जरूरी नहीं। सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम इस मौके का इस्तेमाल कैसे करते हैं।
जो काम आया उसे पहचानें लेकिन नियम समझने की गफलत ना पालें
पहले तो ये समझना होगा कि इस जनादेश के क्या मायने नहीं निकाले जा सकते।
ये जनादेश सांप्रदायिक राजनीति के खात्मे की घोषणा करता जनादेश नहीं है। बंगाल के चुनाव ने देश के बंटवारे के तुरंत पहले के सांप्रदायिक वैमनस्य को हवा दी है और सूबे को इससे आगे लंबे वक्त तक निपटना होगा। दूसरी बात, मुस्लिम मतदाताओं को बीजेपी के खिलाफ लामबंद कर लेने का मतलब ये नहीं होता कि यही सेक्युलर राजनीति है।
मोदी सरकार ने कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन में जो गड़बड़ियां की हैं, इस जनादेश को उनके खिलाफ नहीं माना जा सकता। केरल को छोड़ दें तो चुनाव वाले राज्यों में कहीं भी आजादी के बाद के वक्त का सबसे बड़ा स्वास्थ्य संकट चुनावी मुद्दा नहीं था।
जैसा कि नोटबंदी में हुआ वैसा ही कुछ अभी भी देखने में आ रहा है। लोग परिणाम को उसके कारण से जोड़कर नहीं देख पा रहे। वे नहीं समझ पा रहे कि उनकी आर्थिक दुर्दशा का कारण मोदी सरकार की आर्थिक नीति है। केरल में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) जीत गया है लेकिन इस जीत का अर्थ ये नहीं कि लोगों में वाम विचारधारा के लिए जगह बन रही है और ईमानदारी से कहें तो किसान आंदोलन ने बेशक बीजेपी को वोट नहीं देने का जोरदार अभियान चलाया लेकिन इस जनादेश से ये अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि तीन कृषि कानूनों को किसानों ने व्यापक रूप से नकार दिया है। ना, अभी ऐसा नहीं कह सकते।
हमें बड़ी विनम्रता से स्वीकार करना पड़ेगा कि मौका तो हाथ में आया है लेकिन लोकतंत्र को फिर से बहाल करने का जो कथानक रचा गया है उस कथानक की व्यापक स्वीकृति की वजह से नहीं बल्कि रोजमर्रा की कई चलती हुई बातों के कारण बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी है।
बंगाल और केरल में सत्तासीन मुख्यमंत्री की लोकप्रियता एक बड़ा कारण साबित हुई। लोगों ने सुशासन के नाम पर वोट नहीं डाले। अगर ऐसा होता तो ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) को मटियामेट हो जाना चाहिए था। असम में भी मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल की दोबारा सत्ता हासिल नहीं होनी चाहिए थी। ममता बनर्जी का भी शासन का रिकार्ड ढीला-ढाला रहा है। लेकिन उनकी कुछ जनप्रिय योजनाओं ने मतदाताओं को खींचे रखने में मदद की। बात चाहे जितनी अजीब लगे लेकिन पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और असम में बीजेपी की जीत के पीछे सबसे बड़ी भूमिका निभायी है कुशल चुनावी प्रबंधन ने। लेकिन, आये दिन की ये बातें हर बार बीजेपी के खिलाफ काम करेंगी, ऐसा दावे के साथ नहीं कहा जा सकता।
कांग्रेस को छोड़ सबके लिए मौका है
इस कड़वी सच्चाई को जनता के आगे मान लेने की जरूरत है कि अभी मौका किसके लिए है और किसके लिए बिल्कुल नहीं। चुनावों का असली विजेता कौन है— ममता बनर्जी या प्रशांत किशोर, पिनराई विजयन या वामदल, हेमंत बिस्वा सरमा या सर्बानंद सोनोवाल, इसे लेकर दावे-प्रतिदावे किये जाते रहेंगे। लेकिन आज की तारीख में असली हार किसकी हुई है, इसे लेकर दो राय नहीं हो सकती। असली हार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की हुई है।
केरल से राहुल गांधी के सांसद बनने के बाद वहां का यह पहला चुनाव था और चलन के हिसाब से सत्ता कांग्रेस के पाले में आने का मौका था लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इस मौके को गंवाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इसी तरह, असम में साल भर पहले सीएए विरोधी आंदोलन की लहर चरम पर थी लेकिन कांग्रेस ने वहां बीजेपी को सत्ता में आने का रास्ता दे दिया। पुडुचेरी में पार्टी के हाथों से सत्ता जाती रही और पश्चिम बंगाल में अब वह हाशिए की ताकत के रूप में भी नज़र नहीं आ रही। तो फिर संदेश साफ दिख रहा है- कांग्रेस पार्टी अपने मौजूदा रूप में लोकतंत्र पर दावेदारी के संघर्ष में भारत का नेतृत्व नहीं कर सकती। सूबों में हुए चुनावों ने मोदी के अपराजेय होने के मिथक को बारंबार तोड़ा है। फिर भी अगर मिथक कायम है तो इसलिए कि राज्य-स्तर पर जो असंतोष दिखता है वह अपने को राष्ट्रीय स्तर के असंतोष के रूप में नहीं ढाल पाता। साल 2021 का जनादेश इससे अलग है, इस जनादेश ने एक स्पष्ट मौका मुहैया कराया है और एक साफ रास्ता दिखाया है। अगर इसके बाद उत्तर प्रदेश में भी 2022 में बीजेपी की हार होती है तो फिर मोदी के शासन के अंत की शुरुआत हो जायेगी।
मोदी को हराया जा सकता है लेकिन ये काम ना कांग्रेस के हाथों हो सकता है और ना ही आये दिन बनने वाले विपक्षी गठबंधन से और ना ही मोदीवाद के विरोध की अधकचरी कोशिशों से। तो, अभी मौका है और चुनौती भी बदस्तूर है।
( द प्रिन्ट से साभार )