भारत का सांस्कृतिक पुन: पाठ

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पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल

— रामप्रकाश कुशवाहा —

संस्कृतियां नदियों की तरह ही सामूहिक जीवन के सहज प्रवाह की तरह होती हैं। जिस तरह किसी भी नदी के स्थान-विशेष की धारा, किसी विशेष स्वरूप और दिशा में इसलिए प्रवाहित हो रही होती है कि हवा,जल और गुरुत्वाकर्षण आदि प्राकृतिक शक्तियों के समीकरण के अनुसार विशेष दशा और दिशा में ही उस नदी का बहना स्वाभाविक और सुविधाजनक होता है उसी तरह जन-समूहों का भी एक सहज-सामूहिक जीवन-प्रवाह होता है। यह सायास-अनायास, सुनियोजित और अनियोजित सामुदायिक जीवन का प्रवाह ही एक पद्धति विशेष में ढलकर एक विशिष्ट संस्कृति का रूप ले लेता है।

संस्कृतियाँ प्राय: अतीत के बड़े मानव-समूहों के सामूहिक निर्णयों और स्वीकृतियों का परिणाम हुआ करती हैं। उनके विकास में एक बड़े मानव-समूह के स्वस्थ और प्रसन्न रहने के प्रयत्न और चिंताएं भी शामिल हुआ करती हैं। उसके अवचेतन में अतीत के विजेता का पक्ष शामिल होता है तो गुप-चुप समझौते और सामुदायिक विनम्रता तथा शिष्टाचार भी। इस दृष्टि से सिद्धांतत: विश्व की सभी संस्कृतियाँ, सामाजिक उदारता, सौहार्द एवं संतुलन के पक्ष में ही होनी चाहिए; लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है। इस न होने को राजनीतिक दुष्प्रभाव के कारण कहना उचित नहीं होगा। सही-सही देखना हो तो इसे संस्थागत या संगठनात्मक दुष्प्रभाव के रूप में देखना होगा। ये ही वर्तमान और आनेवाली पीढ़ी के लिए पुरातात्त्विक संग्रहालय का काम करती हैं। चाहे धर्म का मामला हो या अंधविश्वासों की आपूर्ति का; तब ये रूढ़िवादी पूर्वाग्रह के रूप में बदलावों को नियंत्रित और बाधित करने की भूमिका में भी होती हैं।

संस्कृतियों के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि यदि किसी अन्य संस्कृति से तुलना न की जाए तो कोई भी संस्कृति अपने आप में कभी भी गलत नहीं होती। इसका करण यह है कि हर संस्कृति मानव-अस्तित्व में सहायक किसी विशेष पारिस्थितिकी-तंत्र की उपज होती है। किसी विशेष पारिस्थितिकी तंत्र से जन्म लेने के करण ही विश्व की प्राय: सभी संस्कृतियों की मूल प्रकृति स्थानीय ही होती है। इस बात को इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि भूमध्य रेखा के आसपास वाले अधिकांश एशियाई क्षेत्रों में प्रचलित पर्दा प्रथा के कारण तथा आम धारणा के अनुसार पश्चिमी संस्कृति को अर्धनग्नता के अश्लील अर्थों में खुलेपन का पर्याय समझा जाता है।

जबकि सच्चाई यह है कि अधिकांश योरोपीय देश उत्तरध्रुवीय क्षेत्र में स्थित होने के कारण स्त्री और पुरुष दोनों के लिए सामूहिक अर्धनग्नता की सांस्कृतिक स्वीकृति के धूप और अधिक ठंड वाले देशों की मानवीय जरूरत के अनुरूप ही है। ऐसे में स्पष्ट है कि पश्चिमी संस्कृति को नग्नता का पर्याय समझने वालों की दृष्टि में ही दोष है और सच तो यह है कि गर्म धूल और हवा तथा तेज धूप के पर्यावरण वाले भूमध्यरेखीय देशों में अपने अंग खुले रखने की न तो कोई मानवीय जरूरत है और न ही किसी ऐसी प्रथा का औचित्य ही है। देह ढँकने की प्रथा भी उनके गर्म पठारीय और मरुस्थलीय इलाकों के पर्यावरण ने ही उनकी मानवी आदतों में शामिल किया होगा।

यह तो सभी अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे शैशवकाल की अबोध नग्नावस्था की तरह ही हमारे आरम्भिक पूर्वज भी लंबे समय तक वस्त्रविहीन ही धरती पर विचरण करते रहे होंगे। क्योंकि कृषियुग आने से पहले अधिकांश मानव जाति शिकार पर भी निर्भर रही होगी – घने बालों और मोटी खाल के कारण मरे या मारे गए जानवरों के यत्र-तत्र सूखते उपेक्षित पड़े चर्म उसे मौसम के विरुद्ध उपयोग के लिए सहज उपलब्ध रहे होंगे। बने वस्त्रों को पहनना कृषि के विकास, कपास उगाने, कपड़ा बुनने तथा वस्त्र बनाने की अधिक जटिल और विकसित समझ और प्रौद्योगिकी की मांग करता है। ऐसा बहुत बाद में ही सम्भव हो पाया होगा।

इस तरह अनुमान लगाया जा सकता है कि संस्कृतियों का विकास पुराने समय की सभ्यता के संसाधनों के विकास के सापेक्ष किस प्रकार रहा होगा। स्पष्ट है कि हमारी संस्कृति में नग्नता और अश्लीलता की अवधारणा का प्रवेश तब हुआ होगा जब जानवरों के चर्म और वस्त्र से शरीर ढँकने की सुविधा उसे प्राप्त हो गयी होगी। कुछ जनजातियां तो अभी भी नग्नता की अवधारणा वाली संस्कृति से बाहर और अछूती ही हैं। इससे यह सत्य सामने आता है कि विश्व की अधिकांश संस्कृतियां स्थान यानी देश और काल विशेष में जीवन जीने के ढंग की सामूहिक सहज स्वीकृतियां ही हैं। इस सच के बावजूद कि प्राचीन भारत और इस्लाम में भी सारे सामाजिक नियम और कानून भी धार्मिक संस्कृति के अंग बना दिए गए थे लेकिन प्राचीन काल से ही संस्कृति के जातीय,सामुदायिक और सामाजिक आयाम भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। एक लम्बे समय तक भारत में जातियाँ स्वशासित शांतिप्रिय समुदायों के रूप में ही रही हैं। अत्यधिक प्रवास वाले बहु सामुदायिक प्राचीन काल के भारतीय समाज के लिए यह समस्या के रूप में कम लेकिन समाधान के रूप में अधिक था। यह दूसरी बात है कि आधुनिक विश्वमानवतावादी समतमूलक समाज के निर्माण की दिशा में भारत की प्राचीन जातिप्रथा ही खलनायक की भूमिका में आ गयी है।

भारत के किसी तीर्थ स्थल पर जाइए। पहली ही दृष्टि में यह पता चल जाता है कि इस स्थल को तीर्थ घोषित करने के लिए इसकी किन विशेषताओं के कारण चुना गया होगा? चाहे स्थानीय ख्याति के धार्मिक स्थल हों या देशव्यापी ख्याति के -आदिशंकराचार्य की तरह अधिकांश तीर्थ-निर्माता प्राय: पर्यटनशील लोग ही थे और उन्होंने इसके लिए प्राय: सबसे अविस्मरणीय और प्रभावित करनेवाले स्थलों को ही चुना। इन स्थलों पर जाइए और आस्था-अनास्था से परे प्रकृति के किसी न किसी विशिष्ट स्वरूप के दर्शन वहाँ होते ही होते हैं। द्वारिका, पुरी और रामेश्वरम आदि में समुद्र-दर्शन का बहाना है तो बदरीनाथ और केदारनाथ में गंगा के प्रवाहों का आरम्भ; बदरीनाथ में तो अलकनंदा के साथ अत्यंत बर्फीले क्षेत्र में तप्त कुण्ड यानी गर्म पानी के स्रोत एवं अनवरत प्रवाह को कोई भूल ही नहीं सकता। अमरकंटक नर्मदा नदी का उद्-गम है तो गोमुख में ग्लेशियर की बर्फीली सुरंग से धारा के दृश्यमान होने का आकर्षण। मैहर की शंक्वाकार पहाड़ी उसके चयन और आकर्षण का रहस्य स्वयं खोलती है। विन्ध्य पर्वत शृंखला और गंगा के मिलन स्थल पर विन्ध्यवासिनी तीर्थ की स्थापना के पीछे भी उसका भौगोलिक माहात्म्य और वैशिष्ट्य साफ दिखता है।

रामलीलाओं में राम के वनवास के बावजूद सीताजी का अभिनय करनेवाली अभिनेत्री को यद्यपि महंगी साड़ी ही पहनायी जाती है लेकिन स्वयं रामकथा के भीतर स्वर्णमृग की मृगछाला पहनने की उनकी आदिम आकांक्षा को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल कथा की परिकल्पना सिले वस्त्रों या साड़ी युग से भी पहले की हो सकती है। यह कोरा अनुमान नहीं बल्कि सच इसलिए भी लगता है कि अजंता की गुफाओं में बिम्बिसार और उसकी रानियों में ऊपर के वस्त्र पहनने की प्रथा का पता नहीं चलता। इससे पता चलता है कि संस्कृतियां भी मानव-सभ्यता के उपलब्ध संसाधनों के सापेक्ष ही बदलती रही हैं। जो वस्त्र वास्तविक सीता ने भी न पहने होंगे उन्हें आस्था ने बाद में अपनी कल्पना से पहना दिया है।

आज के समाजशास्त्रीय नजरिये से देखें तो आज की अतिनिन्दित जातिप्रथा की भी अतीत की परिस्थितियों में सकारात्मक ऐतिहासिक भूमिका सामने आती है। कभी जातियाँ एक बड़ी जनसंख्या को सेक्टरों में बाँटती थीं। यह राजनीतिक विभाजन के बावजूद एक बड़े जातीय समुदाय को स्वशासित बनाता रहा है। सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था वाला देश होने के कारण ही प्राचीन भारत में राजतंत्र जन के जीवन में बहुत कम हस्तक्षेपीय रहा है। कई बार तो अतिरिक्त और लगभग हाशिये की उपस्थिति की भूमिका में भी दिखता है। यह स्थिति मुगल काल में भी रही लेकिन ब्रिटिश काल में भारत एक सांस्कृतिक समाज से राजनीतिक, प्रशासनिक और नागरिक समाज में बदलने लगता है। इस दृष्टि से मुगल शासन तंत्र और ब्रिटिश शासन तंत्र में मुख्य अंतर यह भी था कि जहाँ मुगलों को भारतीयों की सामाजिकता आधारित स्वजातीय न्याय व्यवस्था से कोई आपत्ति नहीं थी वहीं ब्रिटिश शासन व्यवस्था इस तरह के गैर-राजनीतिक और समानांतर सामाजिक न्याय-तंत्र को अधिक से अधिक निगरानी में रखने के लिए प्रायः हतोत्साहित ही करती थी।

इस तरह लगभग स्वायत्त किस्म के सामाजिक-सांस्कृतिक अनुशासन वाले समाज को एक राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था वाले समाज में बदल दिया गया। क्योंकि ऐसा प्राय: समाज-विरोधी, दंडित, लांछित खलनायकों को ही कानून व्यवस्था बनाए रखने की आड़ में सत्ता का संरक्षण देकर किया गया। इसके कारण आम जनमानस में ब्रिटिश न्याय-व्यवस्था के प्रति नकारात्मक छवि एवं सामूहिक रूप से पसंद न करनेवाला पूर्वाग्रह भी विकसित हुआ। क्योंकि भारतीय न्याय तंत्र भी अपनी प्रकृति में नौकरशाही का ही एक प्रकार और विस्तार है, शुल्क आधारित अधिवक्ता सेवा ने इसे प्रकारांतर से न्यायिक बाजार में बदल दिया।

मुगल काल में भारतीय मूल की जातियों के महासमुद्र में शासक होते हुए भी मुसलमान एक जाति की तरह उपस्थित हुए थे, सम्प्रदाय विशेष की तरह नहीं। ब्रिटिश सत्ता ने जान-बूझकर मुसलमानों की जातीय उपस्थिति को साम्प्रदायिक उपस्थिति और व्यवहार में बदला। यह भी एक सच्चाई है कि अपनी सत्ता गँवाने से उपजी हताशा के अतिरिक्त संयोग से पश्चिमी आधुनिकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मुसलमान समुदाय आज तक सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाया है। असामंजस्यजनित असुरक्षा और तनाव की स्थिति में वह बार-बार उन्मादी होता दिखता रहा है। एक बड़ी आबादी को मध्ययुगीन राष्ट्रवाद के अंधे कूप में धकेलने की जो साजिश औपनिवेशिक साम्राज्यवाद ने 1947 में की थी उसकी चरम परिणति अमरीका के दो टावरों के विध्वंस में देखने को मिली। शायद भारतीय उपमहाद्वीप को साम्प्रदायिक बनानेवालों की यही सजा थी।

सांस्कृतिक विश्वासों की प्रकृति के निर्धारण में देश,काल और परिवेश जनित सामुदायिक असुरक्षा की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जहाँ जीवन जीना हर पल असुरक्षित था वहां अच्छी शक्तियों और बुरी शक्तियों का स्पष्ट सांस्कृतिक विभाजन करते हुए ईश्वर के समानांतर शैतान की अवधारणा भी की गयी लेकिन भारत जैसे अनुकूल पर्यावरण तथा निरंतर सिमटते जानेवाले जंगल क्षेत्र तथा बढ़ते जानेवाले कृषि क्षेत्र से मिली सामुदायिक सुरक्षा वाले देश में पौराणिक काल वाली सुर-असुर संग्राम की चेतावनीपूर्ण स्मृतियाँ धुंधली पड़ती गयीं और सम्राट कहलाने वाले बड़े राजतंत्रों और अप्रतिरोधी एकल ईश्वर का सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित होता गया। भारतीयों की तरह एशियाई मूल के धर्म इस्लाम की संस्कृति भी बड़े साम्राज्यों और सामुदायिक सुरक्षा के साथ एकेश्वरवाद के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ने शैतान की अवधारणा को इतना पीछे कर दिया कि उसका विवेक भी एकध्रुवीय होकर अपनी द्वंद्वात्मक विचारशीलता खो बैठा।

समझदारी की बात यह है कि संस्कृतियां मानवीय संबंधों और व्यवहार से बनती हैं। बीता हुआ जमाना धार्मिक संस्कृति का था। भारत की संस्कृति भारत की बहु-सामुदायिकता और अनुकूल पर्यावरण के अनुरूप विकसित हुई थी। उदारता इसका मुख्य तत्त्व रहा है क्योंकि प्रचुर कृषि एवं वन सम्पदा के कारण यहाँ शाकाहारी जीवन भी संभव था। संसाधनों के लिए संघर्ष का इतिहास भी यहाँ  जन-विद्रोह के रूप में कम मिलता है। इतिहास के नाम पर केवल प्रभु वर्ग का प्रभुत्व-संघर्ष ही मिलता है – ‘कोऊ नृप होई, हमें क्या हानी’ वाला।

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