कुंवर नारायण की कविता

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स्केच : प्रयाग शुक्ल

अंतिम ऊंचाई

 

कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब

अगर दसों दिशाएं हमारे सामने होतीं,

हमारे चारों ओर नहीं।

कितना आसान होता चलते चले जाना

यदि केवल हम चलते होते

बाकी सब रुका होता।

 

मैंने अकसर इस ऊलजलूल दुनिया को

दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में

अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।

 

शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं

कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,

लेकिन अंत तक पहुंचते-पहुंचते हिम्मत हार जाते हैं।

हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती

कि वह सब कैसे समाप्त होता है

जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था

हमारे चाहने पर।

 

दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए

जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे –

जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब

तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में

जिन्हें तुमने जीता है –

जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ का पहला तूफान झेलोगे

और कांपोगे नहीं –

तब तुम पाओगे कि कोई फर्क नहीं

सब कुछ जीत लेने में

और अंत तक हिम्मत न हारने में।

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