आरक्षण की हद पर संविधान पीठ का फैसला कितना वाजिब है?

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— मंथन —

हाराष्ट्र में मराठा समाज को दिये गये आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आ गया है। सुनवाई के दौरान पीठ के जजों ने जिस तरह के सवाल और टिप्पणियाँ की थीं, उससे फैसले की अन्तर्वस्तु का अनुमान हो गया था। ऐसे  सामाजिक न्याय से जुड़े इस मामले में ऐसा ही अनुचित और अन्यायपूर्ण फैसला  अपेक्षित था। आरक्षण के मामलों में पिछले फैसलों में भी विसंगतियाँ स्पष्ट तौर पर दिखती हैं। आर्थिक तौर पर पिछड़ों यानी मुख्यत: गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसद आरक्षण को न्यायिक चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट की अँखमुँदी  और मंदगति में भी सामाजिक वर्चस्व और पक्षपात की मानसिकता जाहिर हो जाती है। उस प्रश्न को भी साथ-साथ लिया जा सकता था। दोनों आरक्षण से जुड़े प्रश्न थे। दोनों में आरक्षण की पचास फीसद की हद का सवाल शामिल था। दोनों अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण से भिन्न थे।

अब तो यह तथ्य पूरी तरह बेपर्द हो चुका है कि आरक्षण और जाति-धर्म-संस्कृति से संबंधित अन्य अदालती मामलों में मौजूदा सामाजिक पृष्ठभूमि वाले जजों से न्याय की उम्मीद बेमानी है। सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में न्याय तभी मिलने की उम्मीद की जा सकती है, जब न्यायपालिका में भी सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर वंचितों-उत्पीड़ितों को आरक्षण हासिल हो। स्त्री, दलित, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों से जुड़ी न्यायिक सुनवाई में कम से कम आधी संख्या इन समुदायों के न्यायधीशों की हो। न्याय की पूर्वशर्त न्यायतंत्र में विविधतापूर्ण सहभागिता विशेषत: ऐतिहासिक रूप से अन्यायग्रस्त समुदायों को शीर्ष स्तर पर निर्णायक आरक्षण है।

यूँ तो यह पूर्वशर्त हमेशा से थी। फिर भी न्यायाधीशों के समुदाय-निरपेक्ष  मानवीय विवेक और न्यायबोध पर भरोसे के कुछ दिग्भ्रमित और कुछ चतुराई-भरे दावे के जरिये इस अनिवार्यता को टाला जाता रहा है। अतीत के फैसलों की अपूर्णता और विसंगतियों के कारण बार-बार न्यायतंत्र में आरक्षण की जरूरत का अहसास तीव्र होता रहा। इस फैसले ने इस तीव्रता को और बढ़ाया है ।

संविधान पीठ ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा आरक्षण के फैसले को रद्द कर दिया है। इस पीठ ने इन्द्रा साहनी 1992 मंडल केस पर बने संवैधानिक पीठ के फैसले से अपने को बँधा हुआ बताया। और फैसला सुनाया कि ऐसी कोई असाधारण परिस्थिति नहीं है जिससे मराठा आरक्षण को जरूरी माना जाय तथा पचास फीसद आरक्षण की हद लाँघी जाय। जाहिर है  इन्द्रा साहनी मामला ( 1992 मंडल मामला) पर  संविधान पीठ का फैसला आरक्षण की अधिकतम सीमा पचास फीसद तक रखने का था, असाधारण परिस्थिति में ही इस सीमा को बढ़ाने का था। मराठा आरक्षण पर यह फैसला सुनानेवाली इस संविधान पीठ ने एक और फैसला 3 बनाम 2 के बहुमत से दिया है। वह यह कि 102वें संविधान संशोधन के तहत गठित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (नेशनल कमीशन ऑफ बैकवर्ड क्लासेस) ही केन्द्र और प्रांत दोनों स्तरों पर सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिह्नित व अधिसूचित करने की शक्ति रखेगा। यानी प्रांत सरकार अब प्रांतीय पिछड़ों की सूची नहीं बना सकेगी। मराठा आरक्षण को समाप्त करने का एक परोक्ष तर्क यह भी है कि मराठा को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा के रूप में चिह्नित करने और अधिसूचित करने का काम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने तो किया नहीं।

इस संविधान पीठ के फैसले का तात्कालिक व्यावहारिक असर तो यही हुआ है कि मराठा समुदाय को दिया जानेवाला आरक्षण खत्म हो जाएगा। यह बहुत चिंताजनक मुझे नहीं लगता। मराठा समुदाय सामाजिक, शैक्षिक दृष्टि से और  सरकारी नौकरी में भागीदारी के लिहाज से इतना ज्यादा वंचित समुदाय है कि आरक्षण के बिना अपनी आबादी के समान अनुपात में पढ़ाई और नौकरी पा ही नहीं सकता, ऐसा तो मुझे नहीं लगता। लेकिन इस फैसले के जो अन्य परिणाम हैं, इस फैसले के मूल में जो  नैतिक अन्तर्विरोध और दोहरापन छिपा है, वह बेहद खतरनाक है। सामाजिक न्याय, विशेष अवसर, विविधताओं को संतुलित प्रतिनिधित्व, पारंपरिक एवं पक्षपाती वर्चस्व से मुक्ति जैसे सकारात्मक हस्तक्षेप के लिए प्रतिगामी है।

इन्द्रा साहनी मामले में संविधान पीठ ने तो आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण के प्रावधान को  अमान्य किया था, रद्द किया था। इस संविधान पीठ को मोदी सरकार द्वारा दिये आर्थिक रूप से पिछड़ों के आरक्षण को दी गयी चुनौतियों पर भी सुनवाई करनी चाहिए थी और पिछले संविधान पीठ से अपने को बँधा बताकर मोदी सरकार के फैसले को रद्द करना चाहिए था। आर्थिक पिछड़ों को आरक्षण के कारण भी पचास फीसद आरक्षण की हद का उल्लंघन हुआ। और आर्थिक पिछड़ों के आरक्षण को उचित ठहराने की असाधारण परिस्थिति भी नहीं थी। ऐतिहासिक वंचना की कसौटी पर तो टिकने का सवाल ही नहीं। इस मूल पैमाने को छोड़ भी दें तो 8 लाख रु. की वार्षिक आमदनी वाले गरीबों की भागीदारी शिक्षा और नौकरी में अपनी आबादी के अनुपात से कम  नहीं  ही होगी। और सबसे ऊपर पिछले संविधान पीठ का ऐसे आरक्षण को रद्द करने का आदेश है। जाहिर है, नये संविधान पीठ का आधा-अधूरा फैसला नैतिक रूप से अन्तर्विरोधी तो है ही, जातीय वर्चस्व के संस्कार से भी ग्रस्त है। न्यायाधीशों के बचाव में कहा जा सकता है कि पीठ के विचार का यह विषय ही नहीं था। क्यों नहीं था, होना चाहिए था।

एक ही पीठ के तहत आरक्षण के सारे विषय पर सुनवाई और आदेश होना चाहिए था, सब तो एक दूसरे से गुँथे थे। एक से ज्यादा पीठ अगर किसी कारण से जरूरी था तो वे सब  साथ-साथ   सुनवाई और फैसला करते। एक को सुनना और दूसरे को लटकाना तो संदेहजनक होगा ही। लिखित के साथ-साथ मौखिक टिप्पणियों की तो पुरानी अदालती परम्परा है। इस संविधान पीठ के जजों ने भी आरक्षण कब तक जैसे सवाल किये। उन मौखिक सवालों या टिप्पणियों में आर्थिक पिछड़ों के आरक्षण पर कोई प्रश्न क्यों नहीं था, पिछले पीठ के फैसले का समर्थन भाव क्यों नहीं था?  प्रसंग तो था। इतना भी होता तो ढाढ़स का कुछ बहाना होता। यह सब अनायास नहीं, सहज नहीं।

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को ही सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिह्नित और अधिसूचित करने की शक्ति है, प्रांतीय विधायिका या कार्यपालिका को नहीं – इस आशय का फैसला गैरजरूरी था। यह प्रांतों के मौजूदा अधिकार क्षेत्र में कटौती है। और यह काम  सुप्रीम कोर्ट के पीठ ने 102वें संविधान संशोधन और अनुच्छेद 342 ए  की व्याख्या करते हुए की है। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की अब केन्द्र और प्रांत की एक ही सूची होगी और उसे सिर्फ केन्द्रीय स्तर पर बनाया जाएगा – ऐसी बात 102वें संविधान संशोधन और  आर्टिकल 342 ए में नहीं कही गयी है – यह इस पीठ में आयी बहस  और जानकारी से जाहिर है। मूल प्रश्न यहाँ सामाजिक और शैक्षिक तौर पर पिछड़े वर्ग को तय करने की प्रामाणिक कसौटी पर खरे होने का था। संघात्मक व्यवस्था में तो प्रांतों के हाथ भी  यह निर्णय करने का अवसर होना चाहिए और जो समुदाय सिर्फ उस प्रांत में है, उस समुदाय के बारे में प्रांत के फैसले के अनुसार राष्ट्रीय सूची में जगह देने की प्रक्रिया होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इस संघात्मक प्रक्रिया को चोट पहुँचायी है।

आरक्षण के मामले में अनुचित न्यायिक अतिक्रमण तो पचास फीसद से कम की हदबंदी से ही हो गया था। संविधान में कहीं भी यह दर्ज नहीं है कि पचास फीसद से ज्यादा आरक्षण नहीं होगा। और संविधान यह तो कतई नहीं चाहता था कि कुछ सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों या वर्गों का अपनी आबादी से कई गुना ज्यादा, पचास फीसद पर हिस्सेदारी हर हाल में बनी रहे। आरक्षण को पचास फीसद से नीचे रखने, आरक्षित वर्गों के सदस्यों को खुली सामान्य श्रेणी में दावेदारी को बाधित करने, बेतुके और छलपूर्ण रोस्टरों का तो यही इरादा और नतीजा है। मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्त्वों की मूल भावना तो वर्चस्व की समाप्ति और समानता की बहाली है। पचास फीसद की हद तो न्यूनतम हद होनी चाहिए। किसी भी नौकरी या बहाली में वंचित समाज के लोग पचास फीसद से कम किसी भी हाल में न हों , ज्यादा हो सकते हैं – समता और संतुलित विविधता के लिए यह कसौटी होनी चाहिए थी।लेकिन आरक्षणमुक्त, वर्चस्वशील सामाजिकता से भरी न्यायपालिका समतावादी आरक्षण की राह में अड़ंगे लगाती रही है, अब तो शायद खुलकर खिलाफ में उतरे।

आरक्षण आज खतरे में है। आरक्षण विस्तार का आंदोलन तेज करना होगा। न्यायपालिका में आरक्षण और न्यायिक बहालियों का लोकतंत्रीकरण न्याय की एक जरूरी शर्त है। इस दिशा में भी आवाजें बुलन्द करनी होंगी।

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