राजनीतिक और संवैधानिक दृष्टि से मैं कुछ विचारणीय मुद्दे उठाना चाहूंगा। शायद यह सभी तरह के लोकतांत्रिक समाजवादियों के मन की बात हो।
1. जब तक यह मौजूदा स्वास्थ्य संकट जारी रहता है, इसे राष्ट्रीय शोक की घड़ी माना जाए। इससे होगा यह कि देश जिस संकट से मुखातिब है उसकी गंभीरता का अहसास औपचारिक तरीके से देश के सभी लोगों को, और देश से बाहर भी कराया जा सकेगा। अभी तो हाल यह है कि हमारे राज्यतंत्र को चलाने वाले लोग हकीकत को झुठलाने की ताक में रहते हैं और मौका मिलते ही सच्चाई को दबाने, छिपाने और तरह-तरहे की बहानेबाजी में लग जाते हैं।
2. भारत के राष्ट्रपति और खासकर बीजेपी के सांसदों को यह समझने की जरूरत है कि वर्तमान प्रधानमंत्री, वर्तमान गृहमंत्री, विदेशमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री तथा उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और निर्वाचन आयुक्तगण देश के भीतर भी और देश से बाहर भी अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं और उन्हें निश्चय ही पद से हट जाना चाहिए।
3. यह अति आवश्यक है कि भारत के राष्ट्रपति राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिए फौरन बातचीत शुरू करें ताकि गवर्नेन्स को पुनर्जीवन दिया जा सके। उनका ध्यान ‘भारत के लोगों की भलाई’ के संरक्षण पर होना चाहिए, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 60 के तहत राष्ट्रपति की शपथ में अंतर्निहित है।
4. राष्ट्रीय सरकार के गठन में कुछ भी असंवैधानिक नहीं है। भारत के राष्ट्रपति को आड़े वक्त में राष्ट्र का मार्गदर्शन करने की अपेक्षा के अनुरूप राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिए तत्काल बातचीत शुरू करनी चाहिए। जन-स्वास्थ्य संकट इसकी सबसे फौरी और सबसे बड़ी वजह है। पर यह भी सच है कि 2024 से पहले गवर्नेन्स को पटरी पर लाने का यही एक तरीका है।
5. कुछ दिन पहले, 8 मई को, 1940 में हुई उस प्रसिद्ध संसदीय बहस की वर्षगांठ थी, जिसकी परिणति ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चेम्बरलेन के इस्तीफे में और सर्व-दलीय राष्ट्रीय सरकार के गठन में हुई थी, हालांकि चेम्बरलेन को संसद में बहुमत हासिल था।
6. लायड जॉर्ज ने उस बहस में कहा था,“मैं पूरी संजीदगी से यह कह रहा हूं कि प्रधानमंत्री को कुर्बानी का उदाहरण पेश करना चाहिए, क्योंकि अब हमारे पास कोई और चीज नहीं है जो इस युद्ध में विजय की राह खोल सके, सिवा इसके कि प्रधानमंत्री पद छोड़ दें।”
7. उस दिन चेम्बरलेन की सरकार ने हरबर्ट मॉरिसन द्वारा रखे गए स्थगन प्रस्ताव पर हुए मतदान में 81 वोटों से जीत हासिल की थी। जाहिर है, चेम्बरलेन ने अपने बहुमत के बावजूद इस्तीफा दे दिया था।
8. उनके उत्तराधिकारी चर्चिल ने चेम्बरलेन के पद छोड़ देने की वजह बताई थी-“उन्हें महसूस हुआ कि वह आगे नहीं चल सकते। देश में इस वक्त राष्ट्रीय सरकार होनी चाहिए। कोई पार्टी अकेले यह बोझ नहीं उठा सकती। कोई ऐसी सरकार बने जिसमें सभी पार्टियां अपनी सेवाएं दें, अन्यथा हम मौजूदा चुनौती से पार नहीं पा सकते।”
9. तो इस तरह से, बावजूद इसके कि प्रधानमंत्री को बहुमत हासिल था और उन्होंने अभी-अभी विश्वास-मत जीता था, ब्रिटेन में 11 मई 1940 को राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ जिसमें कंजर्वेटिव, लिबरल, नेशनल लिबरल, नेशनल लेबर और कुछ निर्दलीय सदस्य भी शामिल थे। चेम्बरलेन ने पद छोड़ दिया क्योंकि उन्होंने महसूस हुआ कि संकट की इस घड़ी में सचमुच सर्वदलीय सरकार की जरूरत है।
10. स्वतंत्र भारत में भी जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में शुरू की सरकारें राष्ट्रीय सरकारें थीं, इस अर्थ में कि उनमें कई गैर-कांग्रेसी मंत्री थे, बावजूद इसके कि संसद में कांग्रेस का बहुमत था। गैर-कांग्रेसी मंत्रियों में डॉ. भीमराव आंबेडकर, षणमुगम चेट्टी, जॉन मथाई, सी.डी. देशमुख, श्यामाप्रसाद मुखर्जी और सरदार बलदेव सिंह जैसे दिग्गज शामिल थे। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू सोशलिस्टों को भी सरकार में शामिल होने का न्योता देते रहते थे।
11. “भारत के लोगों की भलाई और सेवा के लिए मैं समर्पित रहूंगा।”ये शब्द संविधान सभा ने संविधान के अनुच्छेद 60 के तहत राष्ट्रपति की शपथ में यों ही शामिल नहीं किए थे, इसके पीछे गहरा उद्देश्य और अर्थ रहा होगा। किसी और राष्ट्रीय शपथ में ये शब्द नहीं जोड़े गए हैं।
12. संविधान के अनुच्छेद 60 के तहत राष्ट्रपति की शपथ में भारत के लोगों की सेवा और भलाई के लिए समर्पित रहने की जो बात कही गई है, वह राष्ट्रपति की शपथ की एक अद्वितीय विशेषता है। और वह एक कर्तव्य है, निरी दिखावटी चीज नहीं। अगर भारत के राष्ट्रपति मौजूदा चुनौती के अनुरूप पहल करते हैं तो इससे देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक माहौल में कुछ उत्साह का संचार होगा, लोगों के मनोबल को सहारा मिलेगा और जन-स्वास्थ्य का परिदृश्य कुछ बेहतर हो सकेगा।
13. यह जरूरी है कि राष्ट्रपति अब प्रधानमंत्री से दो टूक बात करें और उन्हें बताएं कि देश और देश के लोग कुछ व्यक्ति-विशेषों से ऊपर हैं। यह अच्छा होगा अगर कुछ राजनीतिक दल और समूह राष्ट्रपति से इस बारे में बात करें।
14. भारत के राष्ट्रपति का पद केवल शोभा का पद नहीं है। विशेष परिस्थितियों में इस पद से जुड़ी कुछ विशिष्ट अपेक्षाएं और दायित्व भी हैं। मसलन, 23 अक्टूबर 1962 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने मंत्रिमंडल में कुछ बदलाव करने का सुझाव दिया था।
15. यह बात जोर देकर कहना जरूरी है कि 2019 का जनादेश अब केवल तकनीकी रूप से वजूद रखता है। विभिन्न घटनाओं से उसका जमीनी आधार खिसक चुका है और उस जनादेश की राजनीतिक वैधता अब नहीं बची है। अगर राजनीतिक वैधता न रह गई हो तो सत्ताधारी दल को शासन करने का कोई हक नहीं है।