— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
पंडित जवाहरलाल नेहरू भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नायकों में एक थे और स्वतंत्र भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना में उनका योगदान स्वतंत्रता आंदोलन के किसी भी नेता से अधिक था। प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री भिखु पारेख नेहरू को आधुनिक भारतीय राज्य का निर्माता मानते हैं। पारेख मानते हैं कि राष्ट्रीय एकता, संसदीय लोकतंत्र, औद्योगिकीकरण, समाजवाद, वैज्ञानिक समझ और गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति नेहरू के भारतीय राष्ट्र के आधुनिकीकरण के राष्ट्रीय दर्शन के अंग थे। यही कारण है कि नेहरू भारत के राष्ट्र-निर्माण में अपनी मुख्य भूमिका के लिए भारत ही नहीं, विश्व राजनीति में अपनी विशिष्ट पहचान रखते थे। वे विश्व में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर आधारित भारत की विदेश नीति के निर्माता तथा परस्पर दो वैचारिक विरोधी महाशक्तियों के बीच बँटी दुनिया में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से मुक्त नव स्वतंत्र देशों के लिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रमुख निर्माताओं यथा युगोस्लाविया के मार्शल टीटो, इंडोनेशिया के सुकर्णो, मिस्र के नासिर सहित एक थे।
भारत में शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की संस्थाओं के निर्माता के रूप में अमिट छाप छोड़नेवाले नेहरू स्वयं कानून के ज्ञाता, प्रसिद्ध लेखक और इतिहासकार थे और राष्ट्र की प्रगति के लिए कला, साहित्य, संस्कृति के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान को अंत्यंत जरूरी मानते थे। बहुउद्देशीय परियोजनाओं को नेहरू आधुनिक भारत के नए मंदिर मानते थे। मेडिकल साइंस, टेक्नोलॉजी और प्रबंध विज्ञान में भारत को आगे बढ़ाने के लिए ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी तथा इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट जैसी संस्थाओं का राज्य के अधीन निर्माण नेहरू के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान में विश्वास का प्रतीक था। समाजवाद के स्वरूप पर आधारित समाज के निर्माण के लिए केन्द्रीय योजना के द्वारा भारत के बहुमुखी विकास को बढ़ावा देकर आत्मनिर्भर भारत का निर्माण करना उनका सपना था। स्त्री-पुरुष की समानता तथा जाति, धर्म, नस्ल से मुक्त समान नागरिकता के मूल्यों पर निर्मित राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए वे प्रतिबद्ध थे।
प्रसिद्ध राजनीतिक सिद्धांतकार एवं दार्शनिक सर इसैयाह बर्लिन ने एक बार नेहरू के विषय में लिखा कि नेहरू महान व्यक्ति थे। नेहरू ने भारतीयों को अपने लिए एक पहचान दी, जो शायद ही कोई और ऐसा करने में सफल हो। ऐसे राष्ट्रनायक तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आज पुण्यतिथि है। लगभग सत्रह वर्षों तक भारतीय जनमानस के हृदय पर राज करनेवाले राष्ट्र-नेता नेहरू का 27 मई 1964 को प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए निधन हो गया था। दुनिया भर के प्रसिद्ध समाचारपत्रों ने नेहरू की मृत्यु के समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया बल्कि कई विदेशी समाचारपत्रों ने कवर स्टोरी प्रकाशित की, जिनमें न्यूयॉर्क टाइम्स, इकोनॉमिस्ट आदि प्रमुख थे।
इकोनॉमिस्ट ने अपने लेख ‘नेहरू के बिना विश्व’ में लिखा कि नेहरू की लोगों पर जादुई पकड़ थी और दुनिया का मंच इस महामानव के बिना और निर्धन हो जाएगा।
यह अलग बात है कि नेहरू अगर अपने लोकतांत्रिक मूल्यों और शांतिप्रिय विदेश नीति के कारण प्रशंसा के पात्र बने तो वे भारत के विभाजन से लेकर कश्मीर नीति, हिन्दू कोड बिल, केन्द्रीय योजना पर आधारित विकास नीति, केरल में 1959 में चुनी हुई साम्यवादी पार्टी की पहली सरकार को राष्ट्रपति शासन के द्वारा हटाने के फैसले, मुंधरा कांड जैसे भ्रष्टाचार में सरकार के वित्तमंत्री पर आरोप तथा 1962 के चीनी आक्रमण के समय भारत की सैन्य कमजोरी के कारण घोर आलोचनाओं के शिकार हुए।
1964 से लेकर नेहरू के बिना भारत के 57 साल बीत गए! इन बीते 57 सालों में भारतीय लोकतंत्र में नेहरू की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, 25 जून 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आंतरिक आपातकाल के बल पर नागरिक स्वतंत्रता का हरण करनेवाली पार्टी अपनी अधिनायकवाद की बढ़ती प्रवृत्तियों के कारण 1977 के लोकसभा चुनाव में भारी पराजय का सामना कर संघ की सत्ता से बाहर हो गई और पहली बार केंद्र में एक गैरकांग्रेसी सरकार लोकनायक जयप्रकाश नारायण के प्रयास से कई विपक्षी पार्टियों के विलय से बनी जनता पार्टी के नेता तथा पूर्व कांग्रेसी मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गठित हुई किंतु 1980 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी सत्ता में प्रबल बहुमत से लौटी। इंदिरा गांधी, नेहरू के प्रधानमंत्रित्व-काल में 1959 में कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष बनी थीं, हालांकि राजनीतिक तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि नेहरू ऐसा नहीं चाहते थे।
इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए ही उनके दो अंगरक्षकों ने 31 अक्टूबर को हत्या कर दी गई। 1984-85 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर में इंदिरा गांधी के बड़े पुत्र और नेहरू के नाती राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और राजीव गांधी देश के अबतक के सबसे युवा प्रधानमंत्री बने लेकिन उसके बाद के चुनावों में कांग्रेस की शक्ति लगातार कम होती चली गई और इस प्रकार नेहरू काल के ‘कांग्रेस सिस्टम’ (रजनी कोठारी की दी हुई संज्ञा) का अंत हो गया।
तब से अब तक कांग्रेस एक बार भी स्पष्ट बहुमत नहीं पा सकी। हालांकि तीन बार कांग्रेस की गठबंधन सरकार बनी और हर बार नेहरू-इंदिरा परिवार से बाहर का व्यक्ति (नरसिंह राव और मनमोहन सिंह) प्रधानमंत्री बना। अतः नेहरू के जमाने की अजेय पार्टी से कांग्रेस अंततः एक व्यक्ति-केंद्रित पार्टी बनकर रह गई, नेहरू के नेतृत्व में जो कांग्रेस पार्टी परिवारवाद के आरोपों से लगभग मुक्त रही, वह इंदिरा गांधी द्वारा संगठन की उपेक्षा, व्यक्तिवादी राजनीति तथा नेहरू की लोकतांत्रिक विरासत को नकारने के परिणामस्वरूप एक वंशवादी पार्टी बनकर रह गई और आज तक इस आरोप से मुक्त नहीं हो पाई है।
नेहरू ने संसदीय लोकतंत्र के मापदंडों को स्थापित कर बहुदलीय व्यवस्था में संसद, मंत्रिमंडल तथा संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता स्थापित कर भारत जैसे धार्मिक, सांस्कृतिक व भाषाई विविधता और सामाजिक व आर्थिक विषमता वाले देश में धार्मिक समानता, सांस्कृतिक व भाषाई अस्मिता तथा सामाजिक न्याय के मूल्यों को बढ़ावा देकर लोकतंत्र को मजबूत किया। आज उसी भारत में सत्तासीन आरएसएस समर्थित दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी पार्टी भारतीय जनता पार्टी न सिर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर रही है बल्कि नेहरू को देश के अंदर तथा दुनिया में भारत की सभी समस्याओं के लिए जिम्मेदार घोषित कर एक खलनायक के रूप में उनकी छवि बनाने की हरसंभव कोशिश कर रही है, उनकी स्मृतियों को मिटाने के कदम उठा रही है, इतिहास के पन्नों में दर्ज नेहरू की उपलब्धियों को झुठलाने का निरंतर प्रयास कर रही है।
देश की युवा पीढ़ी को अपने अतीत से परिचित कराने के लिए इतिहास एक सशक्त माध्यम होता है, ऐतिहासिक स्मृतियों और प्रतीकों को सँजो कर रखने से किसी राष्ट्र को वर्तमान को तैयार करने और भविष्य को गढ़ने में सहायता मिलती है। ऐसे में ‘भारत एक खोज’ (डिस्कवरी आफ इंडिया) की रचना कर भविष्य की पीढ़ियों के बीच भारतीय सभ्यता और संस्कृति को पहुंचाने वाले नेहरू के इतिहास को धूमिल करने या मिटाने की कोशिश सिर्फ सत्ता या राजनीतिक लाभ पाने की कोशिश मात्र नहीं, भारतीय लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना को क्रमशः बदलकर कट्टर हिंदूवादी राष्ट्रवाद पर आधारित धार्मिक अधिनायकवादी राज्य के लिए राजनैतिक परिस्थितियों का निर्माण किसी साजिश से कम नहीं दिखाई देता।
आखिर आज नेहरू के भारत में लोकतंत्र की क्या स्थिति है, नागरिक स्वतंत्रता और नागरिक समानता के संवैधानिक मूल्यों का क्या हो रहा है, धर्मनिरपेक्षता की राज्य की संवैधानिक नीति के साथ क्या हो रहा है, धर्मांधता और सांप्रदायिक विद्वेष क्यों बढ़ रहा है और नेहरू की लोकतांत्रिक विरासत आज क्यों भीड़तंत्र में बदल रही है।
स्वतंत्रता आंदोलन और नेहरू
1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में 1917 से 1947 में आजादी मिलने तक के ‘गांधी युग’ में महात्मा गांधी के बाद नेहरू कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय, प्रगतिशील तथा प्रभावशाली नेता थे। चालीस साल की उम्र में कांग्रेस के नेता तथा अपने पिता प्रख्यात वकील मोतीलाल नेहरू के बाद 1929 में जवाहरलाल नेहरू पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने और पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उनकी अध्यक्षता में लाहौर अधिवेशन में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत के लिए ‘पूर्ण स्वराज्य’ की मांग का ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया। तब से लेकर आजादी मिलने के पूर्व तक वे चार बार (1929,1930,1936,1937) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर जब वे बैरिस्टर बनकर 1912 में भारत लौटे तो कांग्रेस नरमपंथी तथा गरमपंथी नेताओं के बीच नेतृत्व और आंदोलन के स्वरूप को लेकर विवादों में उलझी थी। अबतक आंदोलन न तो राष्ट्रीय बन पाया था, न ही जनांदोलन।
तभी गांधी दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के विरुद्ध भारतीयों के अधिकारों के लिए अहिंसक सत्याग्रह के माध्यम से राजनीतिक संघर्ष जीतकर लगभग बीस वर्ष बाद 1915 में भारत लौटे। भारतीय जनमानस उनके आगमन से उत्साहित था और जब उन्होंने 1917 में बिहार की धरती चम्पारण से नील की खेती करनेवाले किसानों के साथ अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ सत्याग्रह की शुरुआत कर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रवेश का बिगुल बजाया तो युवा जवाहरलाल नेहरू भी नई उम्मीदों और राष्ट्रीय प्रेम से ओतप्रोत होकर आंदोलन में सक्रिय हो गए। 1916 में एनी बेसेंट के होमरूल आंदोलन का युवा नेहरू पहले ही हिस्सा बन चुके थे और थियोसोफिकल सोसायटी के प्रभाव में सभी धर्मों के प्रति समान आदर का भाव उनमें विकसित हो चुका था। वे कांग्रेस के सालाना सम्मेलनों में हिस्सा ले चुके थे।
गांधी के द्वारा ब्रिटिश के सरकार के काला कानून ‘ रौलेट एक्ट’, जलियांवाला बाग नरसंहार तथा 1919 के भारत शासन अधिनियम के विरुद्ध असहयोग आंदोलन की शुरुआत होते ही नेहरू अपनी बैरिस्टरी का अच्छा- खासा पेशा छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े और तब से लेकर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इतना ही नहीं, जब 1923 के प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव के बहिष्कार के कांग्रेस और गांधी के फैसले को उनके पिता मोतीलाल नेहरू सहित चितरंजन दास आदि कांग्रेसी नेताओं ने गलत मानकर चुनाव में हिस्सेदारी की वकालत करते हुए कांग्रेस छोड़कर स्वराज पार्टी का गठन कर लिया तो भी नेहरू पिता का साथ न देकर कांग्रेस और गांधी के निर्णय के साथ डटे रहे। हालांकि 1922 के चौरीचौरा हिंसक कांड के बाद असहयोग आन्दोलन वापस लेने के गांधी के फैसले से नेहरू प्रसन्न नहीं थे किन्तु गांधी के फैसले को स्वीकार कर राष्ट्रीय आंदोलन में पूरी दृढ़ता और समर्पण से लगे रहे।
(बाकी हिस्सा कल)