1.
अपने शहर की उस छोटी सी नदी को याद करते हुए
कहाँ गई वह नदी जो बहती थी अलमस्त
छलाँगें लगाती
और जीवन हरियाता था दूर-दूर तक
हरी दूब और हवा की उन्मुक्त ठिठोली की तरह
रंगों का आसमान ओढ़े बहती थी जो
दिल में दिल की आस की तरह
उतर आती थी सपनों में शोख परिंदों सी चहचहाती
पेड़ पत्थर मिट्टी के ढूहों से टकराकर कभी-कभी
हँसती थी खिक्क से
और पलटकर देखती थी अचानक तीखी चितवन से
तो भीतर एक कमल वन उग आता था
ठुमरी के बोलों के साथ नाचता
कहाँ गई वह नदी
जो शहर का गहना थी मोतियों जड़े गलहार सी
जिसके इर्द-गिर्द चहचहाता था पूरा शहर
जाड़ों की मुलायम धूप में एक मीठी गुन-गुन के साथ
और कुछ का कुछ और हो जाता था
कहाँ गई वह नदी जिसमें डुबकी लगाकर सूरज चाँद की किरणें
और चह-चह टोलियाँ
तारों की
खुशदिल बच्चों की तरह चहकतीं
छुआछाई खेलते हरियल तोते, मैना और गौरैयाँ
किनारों पर
तो सुरीली हो जाती थीं हवाएँ दूर तलक
पेड़-पत्तों और जिंदगी में रस टपकाती
कहाँ गई वह नदी जो बरसोंबरस चटकीली धूप में
पूरे शहर को ढोती रही पीठ पर
दिनोंदिन दुबली और दुबली होती जाती थी वह
लंबे अरसे से
कुछ थकी-थकी सी निष्प्रभ मुसकान
मगर थी और भीतर तक उजलाती थी
हमारे दिल और आत्मा को
कहाँ गई वह नदी जो किनारे के हरे-भरे आम के दरख्तों
घास पत्थर और चिड़ियों से बतियाती
कभी-कभी अचानक खिलखिला पड़ती थी जोर से
तो चौंकते थे खेत-खलिहान आसपास के
राह चलते मानुस बोझा ढोती मजदूरिनें
और धूल में लिपटी पगडंडियाँ तक
कभी-कभी अचानक स्टेशन रोड के व्यस्त ट्रैफिक तक
पहुँच जाती
उसकी खिलंदड़ी हँसी
किसी मिठबोली साँवली सलोतरी बहन सी
तो रस्ता चलते लोगों के कदम ठिठक जाते थे
जब भी उसके करीब जाओ
वह बेझिझक उतर आती थी दिल में
आत्मा के गुनगुने संगीत की तरह
और भीतर ठंडे पानियों के सोते फूट पड़ते थे
वह नदी जो सबका जीवन थी
जीवन की सबसे मीठी और पवित्र गुहार
गुजरी सदियों से
वह जो शीतल हवाओं वाला घर था हमारा
आसमानों से बरसती आग और लपलपाती लूओँ
की मार से सुरक्षित…
वह जो सावन गीतों के हिंडोलों मंगल गानों
और हल्दी-चावल की थाप की तरह
शामिल थी हमारी जिंदगी की हर खुशी में
कहाँ चली गई अचानक
देखते ही देखते
किसने लील लिया पूरी एक नदी को…
आओ चलो, दोस्तो,
उसे कहीं से ढूँढ़कर लाएँ
एक दुनिया जो खो गई है, उसे फिर से बसाएँ
2.
बेटी के जन्मदिन पर
तुम्हारे अट्ठाईसवें जन्मदिन पर भेंट में
क्या दे सकता हूँ मैं बेटी
जिसने जीवन में कुछ नहीं कमाया सिर्फ पढ़ीं किताबें
अँधेरे की छाती पर गोदे कुछ उजले अक्षर
और कुछ नहीं किया
और रिटायर होने पर पता चला
लोग जो आते हैं इस लीक पर
पहले से सुरक्षित कर लेते हैं अपना आजू-बाजू फिर लिखते हैं
बातें बड़ी-बड़ी
जबकि मैं तो कहता और लिखता रहा बस छोटी-छोटी बातें
जो देखीं अपने आसपास
लड़ता रहा छोटी-छोटी लड़ाइयाँ जो कल की किसी बड़ी लड़ाई
का हिस्सा हो सकती थीं शायद
जूझता रहा अपने अंदर और बाहर भी
उन सवालों के लिए जो पसलियों में तीर की तरह धँसे थे
और खुद अपने आने वाले कल का हिसाब-किताब
तो कभी किया ही नहीं।
इसीलिए जब ठोस हकीकतें टकराती हैं
तो बहुत टूट-फूट होती है भीतर
बहुत-कुछ है जो छितरा जाता है एकाएक
आँखों में उग आतीं लाचारी की झाड़ियाँ काई और सेवार
पर फिर भी जन्मदिन तुम्हारा है तो मन विकल है सुबह से
पूछ लेता है रुक-रुककर
कि बेटी को क्या देना है उपहार इस बरस कवि
बेटियाँ ही तो हैं तुम्हारी सबसे बेहतरीन कृतियाँ
जिन पर नाज है तुम्हें
याद आता है मेरी नाजों पली बेटी
कि मम्मी-पापा को कितने आँसुओं से नहलाकर तुम
आई थीं कितने लंबे इंतजार के बाद
और जब आई थीं तो आँसू और मुसकानें
दोनों गडमड हो गए थे मेरे चेहरे पर
मैं रोया था बेसुधी में और हँसा भी
हँसा और रोया भी
कि इतना सुख कैसे सहार पाऊँगा जिंदगी में
खुशी से तुम्हें कंधे पर उठाए हुए पूरा बाजार घूम आता था
शास्त्री नगर दिल्ली का
और भूल जाता था
कि तुम तो मेरे कंधे पर ही हो चिपकी हुई
किसी नाजुक कबूतरी सी
और लौटते ही घर आकर पूछता था बेकली से
कि अरे, दिखाई नहीं दे रही अनन्या
कैसे दिखाई देगी तुम्हारे कंधे पर जो है
कहती हुई मम्मी की आँखों में क्या गजब उल्लास होता था
हालाँकि फिर शुरू हुईं लड़ाइयाँ
चक्रव्यूह समय के
एक से एक भीषण, अंधे और मायावी
कोई था जो पीता रहा रक्त
और मैं जीता रहा टूट-टूटकर
बमुश्किल टूटे हुए मनोबल को सँभाले
जिंदगी भर प्रवाह के विरुद्ध तैरने के बाद
छिले हुए कंधों जर्जर छाती ने
आज जाना बेटी
कि उतना ही आत्मविश्वास होता है किसी की आँखों में
जितनी बड़ी और सुरक्षित होती है जेब
कि कविता-शविता तो ठीक,
मगर सच यह भी है कि
पंछी कितना भी उड़े आकाश, दाना तो है धरती के पास…
खूब लड़ते हुए अपनी और समय की लड़ाइयाँ
पंगा लेते हुए इससे उससे और उससे
और शक्तिशालियों की आँखों में काँटे की तरह चुभने के बाद
आखिर दो वक्त की रोटी के इंतजाम के लिए
आना तो इसी धरती पर पड़ेगा ना बेटी
कभी पूछा था बाबा नागार्जुन ने बड़े बिंदास अंदाज में
और मैं दर्जनों बार नागा बाबा के शब्दों में ही
अपने आप से पूछ चुका हूँ
यह असुविधाजनक सवाल—
कि कवि हूँ पर क्या खुशबू पीकर रह सकता हूँ?
कभी भूलना मत धरती बेटी
यही है कसौटी सभी सिद्धांतों की
कि जिंदा रहेंगे तभी लिखेंगे लड़ेंगे तभी
और बनाएँगे फिल्में तमाम-तमाम आँधियों के बीच
इस हँसती हुई सुंदर वसुंधरा की
मुझे पता है तुम करना चाहती हो बहुत कुछ
मुझे पता है तुम्हारे सपने हैं ऊँचे
और ऊँची उड़ानों के लिए मजबूत पंख हैं तुम्हारे पास…
पर उम्र की इस ढलान पर
मेरा तो बस एक ही सपना है बेटी कि तुम्हें मिले
एक तृप्ति भरी सकारथ जिंदगी
छुओ सपनों का आकाश…
और मैं खुद से कम,
तुम्हारे नाम से ज्यादा जाना जाऊँ
कि देखो, देखो, ये जा रहे हैं पापा उस मेधाविनी अनन्या के…
वही अनन्या, जिसने लिखी हैं सुंदर किताबें
वही अनन्या, जिसकी कलाकृतियाँ हैं बेजोड़
वही अनन्या, जिसकी बनाई फिल्मों में हमारी कामगर धरती
किसी मधुर गीत-पाँखी जैसी हँसती-गाती है
वही अनन्या जिसकी भाषा एकदम खाँटी है
अंदाज सबसे अलग…
आवाजें…आवाजें और आवाजें…
जब भी अकेला होता हूँ यही आवाजें
मेरे सिर पर मंडप बना लेती हैं सपनों का
और मैं किसी और ही दुनिया में पहुँच जाता हूँ
नम आँखों से खुद अपना ही तर्पण करते
छुआकर अपने अदृश्य प्रभु को माथ
तुम्हें कैसे बताऊँ बेटी
कि पिता होना दुनिया का सबसे पवित्र अहसास है
पिता होना
भावनाओं की सबसे निर्मल नदी में स्नान
और किसी बेटी का पिता होकर
दुनिया एकदम बदली हुई लगती है मेरी लाडली,
और इतना कुछ छप जाता है भीतर-बाहर
कि अनजाने ही आप चीजों को अपनी नहीं
बेटी के पिता की नजरों से देखने लगते हैं।
तुम्हारे अट्ठाईसवें जन्मदिन पर
कुछ और तो नहीं दे पा रहा बेटी
बस, पापा की यह आधी-अधूरी
बेतरतीब कविता ही सहेज लेना जतन से
जिसे हो सकता है आने वाला वक्त कभी पूरा करे।
आपने कविताएँ इतने सुंदर ढंग से दीं भाई राजेंद्र राजन जी, कि क्या कहूँ। आज सुबह से ही मित्रों और साहित्यिकों की बहुत उत्साहित करने वाली प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं। फिर मेरी कविताओं के साथ प्रयाग जी की इतनी खूबसूरत कलाकृतियाँ जा रही हैं। मेरे लिए यह अपरिमित आनंद और गौरव की बात है।…’समता मार्ग’ बिल्कुल अलहदा ढंग की पत्रिका है। वैचारिक ऊर्जा से संपन्न। उसके साथ जुड़ना मेरे लिए बड़ा सुख है। – सप्रेम, प्रकाश मनु