जाति कब टूटेगी

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— संजय कनोजिया —

क समय था जब दकियानूसी तथा पाखंड व अन्धविश्वास से सनी प्रथाओं के बारे में लोग कहते थे कि सती-प्रथा कभी खत्म न होगी, बाल विवाह की प्रथा अनंत काल तक चलती रहेगी, विधवा विवाह को मान्यता कभी नहीं मिल सकती, एक खास वर्ग को छोड़कर शिक्षा अन्य वर्गों में नहीं पहुंच सकती, कभी स्त्रियां भी शिक्षित होंगी यह कोरी कल्पना मात्र है। लेकिन राजा राममोहन राय, अहिल्याबाई, विवेकानंद, ज्योतिराव फुले, सावित्री फुले, पेरियार सहित और अन्य अनेक महान सुधारकों के अथक प्रयासों ने आम जनमानस को जागृत किया और इसी जागरण की बदौलत आजाद हिन्दुस्तान के संविधान में इन प्रथाओं पर रोक लगानेवाले कानून बने। परन्तु एक नए और स्वस्थ समाज की रचना तभी होगी जब ‘जाति टूटेगी’!

1956 में पहली बार डॉ आंबेडकर और डॉ लोहिया ने इस ओर गंभीरता से प्रयास शुरू किए तथा ‘रोटी और बेटी के रिश्ते’ के फार्मूले पर अभियान चलाने की आपसी सहमति जताई थी! आंबेडकर और लोहिया समकालीन थे और दोनों का एक खास एजेंडा जातिवाद के विरोध का था। लोहिया पहले गैर-शूद्र चिंतक थे जिन्होंने आंबेडकर को समझा, सुना, पढ़ा, और उनका नेतृत्व को स्वीकार करने का मन बनाया।

लोहिया ने जाति-विरोधी संघर्ष में आंबेडकर से प्रेरणा ग्रहण करते हुए उनकी योजना को आगे ही नहीं बढ़ाया बल्कि अधिक व्यापक व व्यावहारिक रूप दिया। एक समय ऐसा भी हुआ कि दोनों की राजनैतिक यात्रा साथ-साथ चली लेकिन आंबेडकर-लोहिया कभी मिल नहीं पाए। शायद  इसी कारण दोनों के वैचारिक साम्य की तलाश देर से शुरू हो पाई। 1956 में दोनों के मध्य पत्राचार शुरू हुआ और केवल 4 ही पत्रों द्वारा दोनों के मिलने की योजना बनी, लेकिन मुलाकात कभी नहीं हुई। 6 दिसम्बर 1956 को आंबेडकर का परिनिर्वाण हो गया और इसी कारण दोनों महान चिंतकों के मिलकर काम करने की योजना पर विराम लग गया।

आंबेडकर के निधन से लोहिया बेहद आहत हुए। अपनी वेदना उन्होंने मधु लिमये को 1 सितंबर 1957 को लिखे एक पत्र में जाहिर की थी।

अगर आंबेडकर और लोहिया का साझा संघर्ष चला होता तो हमारे देश की तस्वीर कुछ और होती। 

तब कांग्रेस और कम्युनिस्ट, दोनों ने ‘क्लास’ (वर्ग) पर जोर दिया था, यानी उनका कहना था कि  देश में दो ही वर्ग हैं ‘अमीर और गरीब’। जिसपर लोहिया का कहना था कि जब तक समाज में जाति (कास्ट) है, तब तक आप जाति को नहीं भुला सकते। वर्ग तो बदल सकता है यानी एक गरीब किसी दिन अमीर बन सकता है, लेकिन जाति इंसान का जीवनभर पीछा नहीं छोड़ती, वो उसके साथ मरने के बाद भी लगी रहती है, और जब तक जाति को नहीं तोड़ा जाएगा तब तक वर्ग की बात बेमानी रहेगी। जाति टूट सकती है यदि समाज में ‘रोटी और बेटी के रिश्ते’ को एक कर दिया जाए। फिर तो आंबेडकर भी लोहिया की ओर आकर्षित हुए थे।

आंबेडकर और लोहिया दोनों मानते थे कि ‘जाति’ प्रगति, नैतिकता, प्रजातांत्रिक सिद्धांतों और परिवर्तन का नकार है। 

यह बेहद अफसोस की बात है कि समाजवादी और आंबेडकरवादी आंदोलनों ने, इन दोनों महान विचारकों के सिद्धांतों को एक सिक्के के दो पहलू के रूप में नहीं लिया। और यही कारण रहा कि शूद्रों को दो महानायक तो मिले, बावजूद इसके शूद्रों का आंदोलन मात्र शूद्रों के तबके के हित साधन का उपकरण बनकर रह गया।

आज हम बात करते हैं दलित-अति दलित, पिछड़े-अति पिछड़े की। यदि आंबेडकर और लोहिया के अनुयायी साथ चले तो ये जातियां आपस में यूँ ना बँटतीं।

हालांकि अपने आंबेडकरवादी और समाजवादी कहनेवालों ने, आंबेडकर और लोहिया की तस्वीर लगाकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पहली बार गठबंधन किया, लेकिन यह केवल सत्ता-प्राप्ति का गठबंधन साबित हुआ। राजनैतिक क्षेत्र में सामाजिक न्याय के माननेवालों के बीच इस गठजोड़ का खूब स्वागत किया गया, कांशीराम और मुलायम सिंह का ये प्रयोग चुनावी परिणाम में सफल भी रहा, परन्तु सैद्धांतिक गठबंधन ना होने के कारण यह मात्र दो वर्ष में बिखर गया और उपहास का विषय बनकर रह गया।

दूसरा गठबंधन 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती और अखिलेश यादव ने किया। पिछले गठबंधन की ही तर्ज पर आनन-फानन में बिना सैद्धांतिक और बिना नीतिगत सहमति के बनाया गया यह गठबंधन भी विपक्ष में सेंध लगाने की भाजपा की चालाकियों की भेंट चढ़ गया। इसके बाद तो, राजनैतिक रूप से ही सही, कार्यकर्ताओं के बीच शून्य खड़ा हो गया।

देश में आंबेडकरवादी-समाजवादी सिपाहियों की कमी नहीं है। बस जरूरत है इन सिपाहियों के साथ आने और हमसफर बनने की।

इसी आशा से एक गैर -राजनैतिक प्रायोगिक कार्यशाला का गठन 4 फरवरी 2021 को दिल्ली में किया गया, जिसको ‘बहुजन भाईचारा मैत्री मिशन’ के नाम से देशभर में चलाया जाएगा।

‘बहुजन भाईचारा मैत्री मिशन’ का उद्देश्य है ‘रोटी और बेटी के रिश्ते’ वाले फार्मूले पर ‘टूंक रोटी और नमक’ नामक सन्देश को लेकर अभियान चलाया जाए। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि शूद्रों में सबने अपने-अपने जातिगत संगठन बना रखे हैं। यही नहीं, जातिगत आपसी वैमनस्य भी बहुत है। चतुर-चालाक वर्ग इनकी इसी कमजोरी का लाभ उठाता है। यदि हमें अपने महानायकों के दर्शन को गति देनी है तो हमें एकसाथ बैठकर आपस में भाईचारा व मैत्री कायम करनी होगी।इसके लिए ‘बहुजन भाईचारा मैत्री मिशन’ दिल्ली में एक दर्जन से अधिक कार्यक्रम आयोजित कर चुका है।

‘टूंक रोटी और नमक’ के सन्देश द्वारा विभिन्न जातियों के लोग एकसाथ बैठकर गंभीर, स्वस्थ चर्चा कर एक दूसरे को नमक-रोटी का टुकड़ा खिलाते हैं। कभी इसी तरह की बैठकों में दाल-रोटी, कभी खिचड़ी तो कोई-कोई चटपटी सब्जियां भी ले आते हैं। सामूहिक खाते-पीते आपस में अपने-अपने कबीलों और कबीलों के स्थानांतरण, गांव, इतिहास, देश के प्रति पूर्वजों के योगदान या प्रशासनिक-सामाजिक उत्पीड़न, गोत्र, संस्कृति, रीति-रिवाज, खानपान आदि मामलों पर चर्चा करते हैं। क्यों और कैसे लोग मैला उठाने के काम में लगे, कोई कैसे जानवरों के चमड़े उतारकर जूते-चप्पल बनाने लगे, कोई कैसे कपड़े धोने और कोई रंगने लगा, कौन जिम्मेवार था, कबसे ये परंपरा शुरू हुई, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक लाभों से कैसे वंचित रहे, संख्या के आधार पर ही जाति का छोटा-बड़ा होने का मानक कैसे बना, तथा ‘रोटी और बेटी के रिश्ते’ का क्या महत्त्व है, यह क्यों जरूरी है, आदि विषयों पर गंभीर चर्चा करके, संगठित होकर समाज के ‘सुधार का संकल्प’ लिया जाता है।

जैसे-जैसे मिशन का अभियान गति पकड़ेगा और सुधारवादियों की संख्या का विस्तार होगा, ‘रोटी और बेटी के रिश्ते’ को भी प्राथमिकता देने की शुरुआत की जाएगी।

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