(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा )
आज तीन शताब्दियों की अंधी दौड़ के बाद अधिकांश यूरोप ने राष्ट्रवाद से मुंह फेर लिया है। फिर भी राष्ट्रीयता एक राजनीतिक पूंजी के रूप में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यूरोपीय महासंघ में भी राष्ट्रीयता और देशभक्ति का सिक्का चलता है। यह जरूर सुकून की बात है कि अब यूरोप के लोग देश के नाम पर एक दूसरे को मारने-मरने से परहेज सीख रहे हैं। फिर भी वैश्विक व्यवस्था में पूंजीवाद के वर्चस्व के कारण मनुष्यों के समूह राष्ट्रीयता और वैश्विकता के बीच दुविधाग्रस्त हैं। ब्रिटेन के लोगों द्वारा जनमतसंग्रह के जरिये यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने का निर्णय एक बेहतर विकल्प की जरूरत सामने ला चुका है। राष्ट्रीयता राष्ट्रवाद से आगे निकल चुकी है।
हिटलर और स्टालिन का रास्ता अपने नागरिकों और अन्य देशों के मनुष्यों के लिए दासता और संहार का था। लेकिन जनसाधारण विश्व-बन्धुत्व के नाम पर पूंजीपतियों के हितसाधक समाधानों को वैश्वीकरण या राष्ट्रवादी संघर्षों से मुक्ति के नाम पर स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मानवतावादी देशभक्ति अब भी आकर्षक और प्रासंगिक बनी हुई है। यही गुरुदेव रवींद्र से लेकर गांधी तक का संदेश रहा है। यही हम भारतीयों का भी युगधर्म और देश-धर्म है।
भारत में देशप्रेम और स्वराज का आन्दोलन
भारतीय समाज में राष्ट्रीयता की रचना और देशभक्ति का ताजा इतिहास ब्रिटिश राज से मुक्ति के आंदोलन से जुड़ा हुआ है। भारत की स्मृति में पूरे भारतीय भूगोल को समेटने वाली राज्यसत्ता की सीमित स्मृतियाँ हैं। अशोक और अकबर के बाद तीसरा नाम जोड़ने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। एक भाषा और अनेक राजा-नवाब की व्यवस्था तो यूरोप जैसी ही हर भाषाई क्षेत्र में रही है। लेकिन यूरोप से सभी अर्थों में अलग होने के कारण सिर्फ भाषा को आधार बनाकर राष्ट्रीयता को अर्थ देना अधूरा पाया गया। हमारे समाज में राष्ट्रीयता का प्रथम आवेग आर्थिक आधारों पर बना। इसे दादाभाई नोरोजी की प्रसिद्ध रचना ‘पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ से तथ्य मिले। किसानों-श्रमजीवियों, मध्यम वर्ग और व्यापारियों से समर्थन मिला। राष्ट्रीयता के आर्थिक आधार के पुष्ट होने के बाद राजनीतिक स्वतंत्रता की भूख पैदा हुई जो ब्रिटिश राज के मातहत शासन के भारतीयकरण और स्व-शासन की मांग से होते हुए पूर्ण स्वराज तक विकसित हुई। इसकी आकर्षक कथा सुंदरलाल के ‘भारत में ब्रिटिश राज’ और जवाहरलाल नेहरू की कालजयी रचना ‘भारत की खोज’ में दी गयी है।
लेकिन ऐतिहासिक कारणों से भारत का राष्ट्र-निर्माण मार्ग अलग प्रकार का था जिसमें आर्थिक हितों की प्रधानता और राजनीतिक-सामाजिक न्याय की केन्द्रीयता थी। यूरोपीय देशों में पाई जानेवाली सांस्कृतिक एकरूपता की नगण्यता थी।
भाषा ही नहीं जाति और सम्प्रदायों की विपुलता और क्षेत्रीय संस्कृतियों की बहुलता के कारण भारतीय राष्ट्रीयता की रचना में भौगोलिक एकता, आर्थिक स्वावलंबन/ स्वदेशी और राजनीतिक स्वतंत्रता की ही प्रधानता है। हमारी सामाजिक विषमताएं और सांस्कृतिक विविधता हमारी राष्ट्रीयता की विशिष्टता और राष्ट्र-निर्माण की सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौती है। यह सच गांधी के हिन्द-स्वराज से लेकर आंबेडकर के ‘जाति का निर्मूलन’ तक बार-बार देश-निर्माताओं ने स्वीकारा है। इस दुहरी चुनौती को पहचानना और सुलझाना हमारी देशभक्ति की सबसे बड़ी कसौटी है। इसमें हमारी उदार परम्पराओं से समाधान मिलेगा जिसकी गौतम और महावीर से लेकर कबीर, रैदास, नानक, मीरा, रसखान, तुलसी, रसखान तक की सतत प्रवाहमान संस्कृति धारा है।
इक्कीसवीं सदी की चुनौतियां
आज भी स्वतंत्रता के सात दशकों के बावजूद समता और बंधुत्व के आदर्शों के प्रति हमारी उदासीनता घट नहीं रही है।लेकिन लोकतंत्र की सीमाओं का बहाना बनाकर बहुसंख्यवादक और यथास्थितिवाद की ओर फिसलने से हम देश में ‘हम की भावना’ और ‘अपनत्व का विस्तार’ की ऐतिहासिक जिम्मेदारी पूरा करने में सफल नहीं हो पाएंगे।
यह संतोष की बात है कि स्वतंत्रता के आरंभिक दशकों में ही हमने भाषाई विविधता को राजनीतिक सम्मान देकर विखंडन की सबसे प्रबल संभावना को निर्मूल कर दिया। यह राष्ट्रीय आन्दोलन द्वारा विकसित दूरदृष्टि और अपनी सभ्यता के व्याकरण की सही समझ का परिणाम था। लेकिन लोकतंत्र का यही तकाजा, चले देश में देशी भाषा – की कसौटी पर हम खरे नहीं उतरे हैं। सिर्फ भाषाई विखंडन की सम्भावना पर काबू पाया गया है। अंग्रेजी अभी भी रानी है। बाकी सभी देशी भाषाएँ दोयम दर्जे पर धकेली हुई हैं।
बिना भाषाओं का गौरव लौटाए देश के प्रति गौरव का भाव जगाने का आह्वान ढोंग और लफ्फाजी है। देशी भाषाओं की सेवा-समृद्धि देशभक्ति की राष्ट्रीय आन्दोलन द्वारा बनाई हुई एक कसौटी है जिसकी आज ज्यादा प्रासंगिकता है।
लोकतंत्र आधारित संघीय शासन व्यवस्था की ओर उन्मुख संविधान के जरिये 1. मौलिक अधिकारों से संपन्न नागरिकता की केन्द्रीयता और 2. विविधता में एकता के सिद्धांत के जरिये केंद्र, प्रदेश, जिला और गाँव में राजनीतिक संप्रुभता की साझेदारी वाली संसदीय व्यवस्था के जरिये हमने अपने को एक राष्ट्र के रूप में गठित करने का रास्ता चुना है। लेकिन सत्ता के विकेंद्रीकरण का हमारा लोकतांत्रिक संवैधानिक संकल्प अपनी मंजिल की तरफ कछुआ चाल से ही बढ़ पाया है। इसमें प्रभु-जाति प्रजातंत्र के रूप में एक सर्वग्रासी सत्ता की राजनीति सबसे बड़ी बाधा है।
सामाजिक न्याय की प्रक्रियाओं को प्रबल किए बगैर, स्त्री और अन्य कमजोर समूहों को शक्तिवान बनाये बगैर हमारी राजसत्ता का लोककल्याणकारी बने रहना कठिन होता जा रहा है। जिसकी लाठी (और पूंजी) उसी का लोकतंत्र होता जा रहा है। इसे राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण भी कहा जा रहा है। विकेंद्रीकरण से परहेज ने सांप्रदायिक अलगाव को भी हवा दी है। अन्यथा हमारी समाज की बसावट में सामुदायिक एकरूपता की सर्वव्यापकता का समाजशास्त्रीय सच सत्ता में हिस्सेदारी की व्यवस्था को सुनिश्चित करनेवाले सहभागी लोकतंत्र के जरिये सबको राष्ट्र संचालन में सशक्त स्थानीय निकायों के जरिये साझेदारी का मौका देने का सहज आधार है।
स्वाधीनता के बाद से हमारी राष्ट्रीय व्यवस्था हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई-बौद्ध-जैन संबंधों में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए धर्मं-निरपेक्षता के सिद्धांत पर भरोसा करती है। लेकिन अभी भी कभी बहुसंख्यावाद और कभी अल्पसंख्यक असुरक्षा के आवेगों के कारण हमारी राष्ट्र-रचना और देशभक्ति में खतरनाक हद तक व्यवधान पैदा हो जाते हैं। इसमें भारत के दोनों किनारों पर 1947 में असुरक्षा के आतंक से अलग हुए दो मुस्लिम बहुलता वाले राष्ट्रों का होना हिन्दू-मुस्लिम-सिख संबंधों में स्थायी असुविधा का स्रोत है। सरहदों पर व्याप्त असुरक्षा से देश के अन्दर आतंक और देश में व्याप्त विषमताओं के कारण परस्पर विश्वास में कमी कमोबेश बनी रहती है।
जम्मू-कश्मीर उत्तर का सरहदी सूबा है। कश्मीर में जनतंत्र का आधा-अधूरा निर्माण हो पाया है। ऐतिहासिक कारणों से इस प्रदेश का भविष्य अलगाववाद और सैनिक दबाव के बीच फंसा हुआ है। पंजाब 1966 से सिख-प्रधान प्रदेश बनाया गया है। सिखों के मन में 1984 के बाद से कई प्रकार की शिकायतें और आशंकाएं हैं। उत्तर-पूर्व के अधिकांश सरहदी प्रदेशों में ईसाई धर्म की बहुलता है। भौगोलिक जटिलता और लोकतंत्र के अधूरेपन के कारण समूचे उत्तर-पूर्व में शांतिमय विकास की प्रक्रिया ठहरी हुई है। लद्दाख, सिक्किम और अरुणाचल में बौद्ध धर्म की परंपरागत प्रबल उपस्थिति है। गरीबी की भी गहराई है। दूसरे शब्दों में, भारत के सभी सीमावर्ती प्रदेशों में धार्मिक विविधता और विकास की अल्पता का सह-अस्तित्व केंद्रीय सत्ता और भारतीय संविधान के प्रति भरोसे की कमी पैदा करता है। इस सच के बावजूद देश के हिन्दू-बहुल प्रदेशों से हिन्दू-केन्द्रित संगठनों द्वारा भारत की समस्याओं के समाधान के रूप में ‘हिन्दू-राष्ट्र’ की हुंकार उठाई जाती है। सर्व-धर्मं समभाव की जड़ों को सींचने की जरूरत की उपेक्षा है।
विदेशी शासन के दो सौ बरसों के दौरान देश की आजादी के लिए तन-मन-धन समर्पित करना राष्ट्रीयता और देशभक्ति की सबसे बड़ी कसौटी थी। स्वदेशी का जीवन अपनाना और स्वभाषा-स्वधर्म-स्वराष्ट्र के प्रति गौरव की भावना देशभक्त के आचरण का आधार था। आज क्या है? इसमें विवाद की कोई गुंजाइश नहीं है कि अब हमारी राष्ट्रीयता का सकारात्मक आधार भारतीय संविधान है। यह राष्ट्रीयता के बाकी सभी आधारों जैसे भाषा, धर्मं, क्षेत्र, और इतिहास से जादा टिकाऊ, स्पष्ट और समावेशी है। इससे विचलन देश की बुनियाद को कमजोर करेगा। स्वराज को खोखला करेगा। देशद्रोह होगा।
हमारे संविधान ने राष्ट्रीय मूल्यों के रूप में स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व को अपनाने का हमें रास्ता दिखाया है। इसलिए देश के किसी भी समूह के प्रति नफरत या अविश्वास की भावना रखना या फैलाना देशसेवा नहीं कही जाएगी।
हमारी संविधान सभा द्वारा स्वीकृत राष्ट्रीय आदर्शों – विशेषकर सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक न्याय की त्रिवेणी को प्रवाहमान बनाना स्वराज के विस्तार का अगला चरण है। सभी नागरिकों में ‘हम’ की भावना की प्रबलता की सबसे तर्कसंगत और सर्व-स्वीकार्य प्रक्रिया है। इस नागरिक धर्म को पूरा करते हुए ही हम अपने न्याय-संगत व्यक्तिगत हितों और बाकी सभी के संवैधानिक अधिकारों को सुरक्षित और संवर्धित कर सकेंगे। इसके लिए हमने अपनी राष्ट्र-व्यवस्था को संप्रुभता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक एकता की दिशा में गतिमान करने का संकल्प 1950 में लिया। इस संकल्प को निभाते हुए देश की एकता और अखंडता में योगदान इक्कीसवीं शताब्दी के हर सरोकारी भारतीय का नागरिक धर्म है। यही स्वाधीनता और सहभागी लोकतंत्र के प्रकाश से आलोकित राष्ट्रनिर्माण का महामार्ग है।