कोरोना काल पर कुछ कविताएं

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पेंटिंग : तिथि माहेश्वरी (कक्षा आठवीं)

— विनोद दास —

 

कोरोना में चांद

 

शाखों के बीच

झांक रहा है उदास चांद

खोज रहा है कबूतर सी प्रणय भरी आँखें

गौरैया ग्रीवा सरीखे काँपते-धड़कते दिल

मीठी गप्पें

गुनगुनाते मोहब्बत के तराने

 

लेकिन वे न तो अपने छज्जों पर हैं

और न ही हैं अपनी छतों या खिड़कियों पर

 

वे लगा रहे हैं अस्पताल के बाहर गुहार

बिस्तर के लिए

ऑक्सीजन के लिए

दवाओं के लिए

 

कोई एंबुलेंस के लिए भटक रहा है

कोई सांस के लिए तड़प रहा है

 

श्मशान से उड़ता चिराइंध धुआँ

काले मेघों की तरह छा रहा है

चांद की पलकों पर

बिन बरसे दुख की तरह

 

उसके कानों में गूंजती है

परिजनों की लाचार रुलाई

अस्पताल से लौटती

मुर्दागाड़ी की खामोशी की तरह

 

अवसाद में डूबा क्लांत चाँद

मन ही मन बुदबुदाता है

 

इंसान की जिंदगी अमोल है

विकल्पहीन है

 

कुछ बच सकते थे

अगर न होती आदमखोर व्यवस्था

करुणा का थोड़ा पानी होता शासन की आँखों में

 

आज रात कोई कर रहा होता

अपने महबूब के बारे में

मुझसे अपने दिल की बात

 

मेरी तरफ दिखाकर तर्जनी

कोई सुना रहा होता

अपने बच्चों को मीठी  लोरी

 

कोई ताल में

चाँद का अक्स देखकर

करता किसी को याद

 

लेकिन वे सब वहाँ नहीं हैं

साँवली नदी में

किसी की तैर रही है लाश

लोकतंत्र में कटी जीभ की तरह

 

गरीब के झुलसे सपनों की तरह

अधजली लकड़ी में झुलस रही है

किसी की चमड़ी

 

कफन के लिए तरसती

रेत में दबी कोई देह

चीलों की चोंचों से माँग रही है

थोड़ी सी दया

हकों से बेदखल

हताश नागरिक की तरह

 

वायरस ही धूर्त बहुरूपिया नहीं होते

शासक भी होते हैं

इंसानों का पीते हैं खून

कई बार वायरस से भी ज्यादा

 

अँधेरी चादर के नीचे

मुँह दबाकर

धीरे-धीरे सुबक रहा है चाँद

 

छिपाने से छिपता नहीं है उसका दुख

जैसे छिप नहीं पाती

आँकड़ों के रूमाल में

घर में अंत्येष्टि के लिए सड़ती कोरोनाग्रस्त लाश

 

भोर की उजास में

चाँद के चमकते हैं आँसू

फूलों की पंखुड़ियों पर

जैसे मुस्काती है जिंदगी

रो लेने के बाद

 

ड्राइंग : प्रयाग शुक्ल

— सदानन्द शाही —

 

कोरोना का कहर

 

यह सिर्फ हिंदुओं के लिए नहीं है

न सिर्फ मुसलमान के लिए

और न ईसाई, यहूदी या पारसी के लिए

 

यह सिर्फ भारत के लिए नहीं आया है

न सिर्फ पाकिस्तान के लिए आया है

और न अमरीका योरप आस्ट्रेलिया के लिए

 

यह संकट जितना चीन और रूस के लिए है

उतना ही नेपाल मालदीव श्रीलंका फीजी मारीशस के लिए भी है

उन देशों के लिए भी है

जिनके नाम भी हम नहीं जानते हैं

 

संकट का यह बादल

सारी दुनिया पर छाया है

 

पृथ्वी पर कितने धर्म हैं

पृथ्वी पर कितने देश हैं

पृथ्वी पर कितनी जातियां हैं

कितने तरह के लोग हैं

 

क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं

कि अमुक धर्म या अमुक जाति पर यह वायरस असर नहीं करेगा

या कि एक खास भूगोल पर इसका असर नहीं होगा

और दूसरे भूगोल पर होगा

 

धर्म की सीमा से बाहर निकलिए

भूगोल की सीमा से बाहर निकलिए

मनुष्य बचेगा, पृथ्वी बचेगी

तो धर्म भी बच जाएंगे

 

और भूगोल भी बच जाएगा

लोकतंत्र भी बचेगा

और वोट बैंक भी

 

मनुष्य को बचाओ

पृथ्वी को बचाओ

 

घृणा से कुछ भी नहीं बचेगा-

न मनुष्य न पृथ्वी

 

इस आपदा ने जो एकांत दिया है

अपने भीतर के अँधेरे में झांकिए

और हो सके तो

वहां करुणा का दीप जलाइए।

 

पेंटिंग : मनीषा जैन

— रामप्रकाश कुशवाहा

 

विषाणु-पर्व

 

आदमी जंगल के पास गया था

या जंगल ही चला आया आदमी के पास

दो पैरों पर चलने वाले प्राणी के हाथ

ऊंचाई पर लटके हुए चमगादड़ो तक क्यों पहुँचे!

 

विषाणु मधुमक्खियों की तरह

शहद तो नहीं बनाते थे

फिर क्यों डाला आदमी ने

विषाणुओं के छत्ते में  हाथ

जो चमगादड़ के मुख में  था

 

आदमी की भूख के लिए

कितने सारे विकल्प थे

फिर हँस-हँसकर क्यों मारे जा रहा था

चमगादड़ पर चमगादड़!

 

जब मानव-जाति शैशवावस्था में थी

और सारी धरती ही नन्दन-वन थी

फिर धीरे-धीरे आत्मरक्षा के अधिकार को जीती हुई मानव-जाति

दूसरी प्रजातियों के जीने के अधिकार को ही

छीनती गई

और सारी दुनिया को बना डाला ध्वंसित वन

 

अभी तो यह कुछ भी नहीं है शायद

अभी तो सब ग्लेशियर पिघलने हैं

दिनोंदिन बढ़ते वैश्विक तापमान से

जीना उत्तरोत्तर मुश्किल होते जाना है

अभी डूबना है सुन्दरवन का डेल्टा

उत्तरी ध्रुव की अभी बर्फ भी पिघलनी है

अनुकूल तापमान पर पुनर्जागृत होने हैं

काल की कोख मे सोये हुए असंख्य  विषाणु

 

मैंने इस कालरात्रि में देखा है एक स्वप्न

कि दुनिया के सारे नेताओं ने एकसाथ मिलकर

कुदरत से की है यह प्रार्थना

कि सशर्त ही सही

अपने विषाणुओं को वापस बुला लो

यदि मैं  प्रधानमंत्री बन गया

तो हार-जीत की परवाह किए बिना

बनवाऊंगा एक नसबन्दी सेना।

 

जब सभी को मारकर ही रहना हो जिन्दा

ऐसा भी क्या होना!

मानव-जाति बन गई है धरती के इतिहास में

एक महाविनाशक-महाअपराधी जाति

यही तो है रोना!

 

रेखांकन : बसंत भार्गव

— अनिल सिन्हा —

 

नदी सच बोलती है

 

मन में आया
कि इन मौतों को मुक्ति कह दूँ
ईश्वर से मिलने की यात्रा बता दूँ

सच को ढंक दूँ गेरुआ चादर से
और, निर्गुण गाता
इस असार संसार को निरर्थक बताता
अलविदा के दो शब्द कह दूँ उन्हें
जिनकी जिंदगी अधूरी रह गई
बगैर किसी अपराध के।
सदैव आसान होता है
ईश्वर को बीच में ले आना!
लेकिन गंगा ने नहीं माना
उतार दिये सच के शरीर से सारे कपड़े
बेजान शरीरों को लेकर आ पहुँची
पटक दिया उनके ही सामने
जिन्होंने छीनी है इन बेगुनाहों की साँसें।
इस महान नदी ने लाज रख ली
उन असंख्य मिट्टी के दीयों की
जो निर्दोष स्त्रियों ने अँधेरी रातों में बहाए हैं
लहरों को रोशन किया
और नदी को आँखें दीं!
गंगा ले आई है वे सिसकियां
जो दबा दी जाती हैं भारी जूतों के नीचे
या उस सभ्यता की महानता के नारों से
जिसका पूर्ण पतन हो चुका है!
यह तुम्हारी मर्जी
कि इस कराहते मुल्क को लोकतंत्र कहो
तुम्हें भला कौन मना कर सकता है
कि लाखों की साँसें उखाड़ लेने को हादसा कहो
तुम्हें कौन रोक सकता है
उनकी ओर से नजर फेरने में
जिनकी आँखों के सामने सिर्फ शून्य है
और जिनके सपने तुमने खींच लिये हैं
किसी ब्लैकहोल की तरह।
लेकिन नदी सच बोलती है
सच के सिवा कुछ भी नहीं!

 

पेंटिंग : तिथि माहेश्वरी (कक्षा आठवीं)

— रमाकान्त नीलकण्ठ —

 

विषाणु

 

एकदा

नारद कहने लगे

ब्रह्मा के घर जाकर

 

विधाता!

मृतक पुण्यात्माओं के साथ

पृथ्वी से चला विषाणु

स्वर्ग तक चढ़ आया है

कई देव-देवियां

व नामी अप्सराएं

व किन्नर विद्याधर गन्धर्व यक्ष पुरुष-स्त्रियां

वृन्द-वृन्द होकर

संक्रमित हो चुके हैं,

पापात्माएं जो थीं मरीं इस बीच धरती पर

उनके आगमन से नरक में

कुहराम मच गया है,

मृत्यु लोक में विषाणुओं के गुणात्मक

वृद्धि-विस्तार से

मृत्युदर इतनी बढ़ गयी है

कहिए नहीं,

 

पृथ्वी जनहीन होने के सदमे से

सहमी हुई

अपने आँगन में पछाड़ खाती

रोती बेहोश हो जाती है,

प्राणवायु की कमी से

हाँफती

प्रजा दम तोड़ती है,

हे जन्म-मृत्यु के कर्त्ता!

त्रिलोक त्रस्त है

करिए कुछ!

औषधियाँ मुँह की खाती हैं

चिकित्सक हतप्रभ हैं

सरकारें विमूढ़ हैं

स्वर्ग में इन्द्र

नरक में यम माथा पकड़े बैठे हैं

उनके हाथ से

कर्मों-कुकर्मों का नियमन निकल चुका है!

अचूक टीका तक नहीं है!!

 

लोकों में

जरूरी युद्ध तक स्थगित हैं

दंगा फसाद विद्रोह क्रोध क्रांतियां तक मुलतवी हैं

दुकान दौरी व्यापार रोजगार लोकाचार

सब बन्द है

किसान केवल काम पर हैं,

इस शोकग्रस्त समय में भी

कहते शर्म आती है

कि जमीन पर सरकारी विचार

और राजनीतिक प्रचार में

जमीन-आसमान का अंतर है,

एक ओर विषाणु मनुष्य पर धावा बोलता है

मौत की तुरही बजती है

निषेध की धाराएं लगती हैं

दूसरी ओर दल और जमातें

जमावड़ा जुटाती हैं

भाषण झाड़ती हैं

आश्चर्य है कि मरणासन्न समय में

उनमें आशाएं जगती हैं,

 

इसी बीच भीड़ गंगा नहाती है

कि जाता क्या है!

विषाणु-ग्रस्त होकर जत्था कोई

अलबत्ता सीधे स्वर्ग चला आता है

कि जैसे नाता है,

अजीब माजरा है

दलील कोई सुनता नहीं

सुनिए नाथ! नाक-मुंह पर

नत्थी लगाइए,

त्रिलोक के स्वामी!

पृथ्वी के पिता!!

कुछ करिए!!!

 

ब्रह्मा मर्माहत हुए

नारद का प्राक्कथन सुन

ध्यान में डूब गए

आंखें खोल

उबर कर बोले फिर :

देवर्षि ! विषाणु भी रचना हैं

जीव हैं – ममैवांशो,

अधिकार है उनका वे फैलें

व फले-फूलें

आप यह न भूलें

मैं उनका भी वैसे हूं

जैसे आस्तीन के सांपों व ड्रैगनों का हूं

हस्तक्षेप मैं क्यों करूं?

 

जैसे मनुष्यों के फ़िरके

व वर्ग-वर्ण-सम्प्रदाय बिफरे हुए

आपस में लड़ते हैं आत्मप्रसार हेतु

देवता-दानव लड़ते हैं एकाधिकार हेतु

वैसे ही विषाणु विकासक्रम में

बहुत नीचे

बहुत पीछे होकर भी

मनुष्य से छेड़े जाकर

वैज्ञानिक तरक्की को मानो आईना दिखाने

सभ्यता को तमीज सिखाने

जागृत हो प्रकृति के पन्ने पर

हाशिये पर पड़े

अणुतम अणु होकर भी

भड़क जाते हैं…

विस्फुटित होते

विनाश लाते हैं,

अपनी जान पर बन आने पर

लड़ते हैं,

 

नारद! मेरा काम रचना है

झगड़े निपटाना नहीं

नाश और निर्माण

दो ही तो पैर हैं,

आप यह न भूलें

सुलह-समझौते से नहीं

द्वैत-सामंजस्य से

चेतना बिकसती है

आरोग्य होता है,

चिकित्सकों-विषाणुओं के द्वन्द्व में

इतिहास में अंत में

स्वास्थ्य का लाभ देखा जाता है

जीत देखी जाती है

मुनाफा देखा जाता है

उम्र में इजाफा देखा जाता है!

 

तीनों लोकों में इतने मेधावी हैं

प्रातिभ हैं गवेषक हैं

पूंजी-निवेशक हैं

दक्षिण हैं वाम हैं

योद्धा पुरोधा हैं

एक विषाणु से वे हार क्यों मानने लगे

वे चुप क्यों बैठेंगे!

 

नारद!

आप घिघियाते क्यों हैं?

काम कीजिए

कि परहेजगारी का उपदेश दीजिए

वाद्य बजाते हुए,

धनवन्तरि का बनाया

रामबाण काढ़ा पीजिए

पतंजलि-सिद्ध

आसन जमाते हुए,

लोग भी पिएं

इसका लोगों में विज्ञापन कीजिए

उद्योग कीजिए लगे कि योग है!

 

तब गदगद होकर

नारद ने स्तुति की

ब्रह्मा संतुष्ट हुए,

बोले – भई, रोग तो रोग है!

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