(26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई तो जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर तत्कालीन सरकार ने जेल में डाल दिया। विपक्षी दलों के तमाम नेता भी कैद कर लिये गए। कारावास के दौरान जेपी को कुछ लिखने की प्रेरणा हुई तो 21 जुलाई 1975 से प्रायः हर दिन वह कुछ लिखते रहे। जेल डायरी का यह सिलसिला 4 नवंबर 1975 पर आकर रुक गया, वजह थी सेहत संबंधी परेशानी। इमरजेन्सी के दिनों में कारावास के दौरान लिखी उनकी टिप्पणियां उनकी मनःस्थिति, उनके नेतृत्व में चले जन आंदोलन, लोकतंत्र को लेकर उनकी चिंता, बुनियादी बदलाव के बारे में उनके चिंतन की दिशा और संपूर्ण क्रांति की अवधारणा आदि के बारे में सार-रूप में बहुत कुछ कहती हैं और ये ‘कारावास की कहानी’ नाम से पुस्तक-रूप में सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी से प्रकाशित हैं। आज जब लोकतंत्र को लेकर चिंता दिनोंदिन गहराती जा रही है, तो यह जानना और भी जरूरी हो जाता है कि जेपी उन भयावह दिनों में क्या महसूस करते थे और भविष्य के बारे में क्या सोचते थे। लिहाजा कारावास की कहानी के कुछ अंश हम किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं।)
21 जुलाई
मेरे चारों तरफ की दुनिया बिखर चुकी है। मुझे भय है कि मैं अपने जीवन-काल में फिर से उसको जुड़ते नहीं देख पाऊंगा। शायद मेरे भतीजे-भतीजियां वह दिन देख सकें। शायद!
कहां तो मैं लोकतंत्र के क्षितिज को विस्तृत करने की कोशिश कर रहा था, और यह मुख्यतः जनता को लोकतंत्र की प्रक्रियाओं में अधिक गहनता एवं सातत्यपूर्वक शामिल करने की कोशिश थी। इसके दो रूप थे। एक तो यह कि एक ऐसे संगठन का निर्माण किया जाए जिसके जरिए उम्मीदवारों के चयन में जनता की राय किसी हद तक ली जा सके। दूसरा यह कि एक ऐसा संगठन खड़ा हो- यद्यपि ऊपर बताये गये संगठन से भी यह काम हो सकता है- जिसके सहारे जनता अपने प्रतिनिधियों पर नजर रख सके और उनसे उत्तम एवं स्वच्छ आचरण की मांग कर सके। ये ही दो तत्त्व थे जो मैं बिहार आंदोलन के सारे शोर-शराबे में से निकालना चाहता था। परंतु मेरी इस कोशिश का अंत लोकशाही की मौत में हो रहा है!
तो मेरी योजनाओं में गलती कहां हुई? मैं तो ‘मेरी’ के बदले ‘हमारी’ योजनाओं में गलती कहां हुई, यह कहने जा रहा था। परंतु वैसा कहना गलत होता; क्योंकि जो कुछ हुआ है, उसकी पूरी जिम्मेवारी, उसका संपूर्ण दायित्व मुझे अपने ऊपर लेना चाहिए। मेरी गलती यह हुई कि मैंने मान लिया था, कि एक लोकतांत्रिक देश की प्रधानमंत्री बहुत करेंगी तो हमारे शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन को पराजित करने के लिए सभी साधारण-असाधारण कानूनों का इस्तेमाल करेंगी; परंतु ऐसा नहीं होगा कि वे लोकतंत्र को ही खत्म कर देंगी और उसकी जगह पर एक अधिनायकवादी व्यवस्था कायम कर देंगी। अगर प्रधानमंत्री ऐसा करना भी चाहें तो यह विश्वास मुझे नहीं था कि उनके वरिष्ठ सहयोगी और उनका दल, जिसकी ऊंची लोकतांत्रिक परंपराएं हैं, ऐसा होने देगा। लेकिन वही बात हुई जो विश्वास के बाहर थी। हां, अगर कोई हिंसक विस्फोट हुआ होता, और हिंसक सत्ता-पलट का कोई खतरा होता तो जो कुछ कार्रवाई हुई, उसको हम समझ सकते थे। परंतु हमारा तो एक शांतिपूर्ण आंदोलन था, और ऐसे आंदोलन की परिणति इस रूप में हुई! आखिर भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और गरीबी से लड़ने के लिए जनता क्या करे? युवक क्या करें? क्या चुपचाप अगले आम चुनाव की प्रतीक्षा करें? लेकिन इसी बीच परिस्थिति असह्य हो जाए तो फिर लोग क्या करें? क्या वे शांतिपूर्वक हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहें और अपनी किस्मत को रोते रहें? यह इंदिराजी के लोकतंत्र की तस्वीर हो सकती है- श्मशान की शांति वाला लोकतंत्र! फिर अगर चुनाव ही स्वतंत्र और निष्पक्ष न हों तो? इसके लिए भी जनता को जाग्रत और संगठित होना होगा। मैं नहीं समझता कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जनता ने अपनी किस्मत को बदलने के लिए केवल चुनाव पर भरोसा किया है। सब कहीं हड़तालें हुई हैं, विरोध-आंदोलन हुए हैं, कूच निकाले गए हैं, अंदर-बाहर धरना डाले गए हैं।
लोकशाही का गला घोंटने और अपना अधिनायकवादी शासन स्थापित करने के लिए प्रधानमंत्री ने कौन-कौन से कदम उठाये, उन्हें गिनाने की आवश्यकता यहां नहीं है। यही वह प्रधानमंत्री हैं जो बार-बार यह आरोप लगाती थीं कि हम लोकतंत्र को नष्ट करके फासीवाद कायम करना चाह रहे हैं। और आज हम उन्हीं प्रधानमंत्री को लोकतंत्र को नष्ट करते हुए और उसी लोकतंत्र के नाम पर फासीवाद कायम करते हुए पाते हैं। लोकतंत्र की रक्षा वे अपने ही हाथों उसकी हत्या करके और उसकी लाश को कब्र की गहराइयों में दफना करके कर रही हैं! क्या उन्होंने यह घोषणा नहीं की है कि भारत आपातकाल के पूर्व वाली स्वेच्छाचारिता की स्थिति को नहीं लौट सकता? स्वेच्छाचारिता! स्वेच्छाचारिता की शिकायत करने का मुंह उनको है? क्या वे भूल गयी हैं कि वह युवा कांग्रेस की रैली जिसका आयोजन उन्होंने दिल्ली में (9 अगस्त 1974 को) कराया था। कैसी गुंडाशाही और अश्लीलता का प्रदर्शन हुआ था उसमें? और क्या उन्हें याद है- 6 मार्च 1975 का वह अखिल भारतीय जनता कूच (इस अखिल भारतीय कूच का आयोजन जनांदोलन की ओर से किया गया था और उसमें विभिन्न अनुमानों के अनुसार पांच से दस लाख लोग शामिल हुए थे) और प्रदर्शन? खुद दिल्ली के आरक्षी महानिरीक्षक ने कहा था कि उस दिन कोई अशोभनीय घटना नहीं हुई। और फिर कलकत्ते में (2 अप्रैल 1975) को यूनिवर्सिटी इंस्टीच्यूट हॉल के सामने, जहां मैं एक सभा को संबोधित करनेवाला था, कैसी शर्मनाक घटना हुई थी? और ठीक उसके विपरीत, उसी वर्ष 5 जून को कलकत्ते में जो विशाल कूच हुआ था, वह भी उन्हें याद है क्या? यह सबने स्वीकार किया था कि भयानक अशांति वाले उस नगर में अपने ढंग का वह सबसे शांतिपूर्ण आयोजन था। मैं नहीं समझता कि ऐसे शांतिपूर्ण और अनुशासित आयोजनों को- चाहे वे सार्वजनिक सभाएं, जुलूस या बंद ही क्यों न हों- स्वेच्छाचारिता की संज्ञा दी जा सकती है।
पता नहीं, वे सभी भद्र स्त्री-पुरुष जो मेरा अभिनंदन देश की एकमात्र आशा के रूप में किया करते थे, अब क्या कह रहे हैं। इस भयानक परिस्थिति के लिए निमित्त मैं बना, इस कारण वे मुझे अभिशप्त कर रहे हैं क्या? ऐसा होता भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं। वे यही कहते होंगे कि चारों ओर से घिर जाने के कारण श्रीमती गांधी ने जो कुछ किया, उसके अलावा और कोई चारा नहीं था। परंतु मुझे आशा है कि कम से कम कुछ लोग- खासकर कुछ युवक बंधु ऐसे होंगे, जो मेरे प्रति, और जिस आदर्श का मैं प्रतिनिधित्व करता था, उसके प्रति अब भी वफादार होंगे। वे ही भविष्य की आशा हैं। मेरा विश्वास है कि भारत कब्र के अंदर से भी उठ खड़ा होगा, चाहे इसमें समय जितना लगे।
(कल दूसरी किस्त )