देश आपातकाल से गुजर रहा है। इससे देश के आम नागरिक सहमत हैं क्योंकि वे इसे भुगत रहे हैं। लेकिन मोदीभक्त और गोदी मीडिया इससे असहमत हैं क्योंकि उन्हें इस आपातकाल का लाभ मिल रहा है।
यह लेख आपातकाल की 46वीं वर्षगांठ के अवसर पर लिखा जा रहा है जब वर्तमान किसान आंदोलन को 26 जून को 7 माह पूरे हो रहे हैं। मुझे लगता है नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद ही देश पर सुपर आपातकाल थोप दिया था। इससे मुक्ति के रास्तों पर विचार करने की आज सबसे ज्यादा जरूरत है।
आपातकाल क्यों कहा रहा हूँ यह बतलाना चाहता हूं। कोरोना महामारी से 42 लाख मौतों का दावा न्यूयार्क टाइम्स ने किया था जिसका कोई तथ्यात्मक खंडन भारत सरकार द्वारा अब तक नहीं किया जा सका है। प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार ने प्राइम टाइम के अपने तमाम कार्यक्रमों में वास्तविक मौतों और सरकारी दावों के जो आंकड़े दिखाए हैं उनसे यह स्पष्ट होता है कि देश में 50 लाख से अधिक मौतें होने का अनुमान लगाया जा सकता है। किसी भी देश के लिए यह स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से आपातकाल की स्थिति ही कही जाएगी।
देश की अर्थव्यवस्था में 30 फीसद की गिरावट आयी है तथा 15 करोड़ भारतीय बेरोजगार हुए हैं। महंगाई पुराने सभी रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। देशभर में डीजल और पेट्रोल के दाम 100 रुपये के ऊपर पहुंच चुके हैं। यह आर्थिक आपातकाल की स्थिति है।
किसानों के लिए तो आपातकाल पिछले सात महीनों से चल रहा है। यह आपातकाल तीन किसान विरोधी अध्यादेश जारी करने से 5 जून 2020 से शुरू हुआ।
सरकार ने अचानक, बिना किसान संगठनों या किसानों की मांग के, पहले तीन अध्यादेश जारी किए, फिर बिल लाए गए और जिस आपाधापी में उन्हें संसदीय लोकतंत्र की हत्या करके पारित किया गया उससे साबित हुआ कि केंद्र सरकार कृषि क्षेत्र को कॉरपोरेट को सौंपने के लिए तीनों कानूनों के माध्यम से आपातकाल लागू कर रही है।
2014 के चुनाव के बाद आपातकाल की गूंज तभी सुनाई पड़ने लगी थी जब अचानक नोटबंदी कर दी गई।
दावा था कि काला धन निकलेगा लेकिन बैंकों की लाइन में खड़े होकर डेढ़ सौ नागरिकों की मौत तो हुई परंतु काले धन पर कोई रोक नहीं लगी। हां, काला धन लेकर भागने वाले भगोड़ों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई तथा अब पता चल रहा है कि स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा पूंजी बीस हजार करोड़ से अधिक हो गई है जो पहले की तुलना में कई गुना अधिक है।
आपातकाल की दूसरी धमक तब देखने को मिली जब राज्यों की सहमति के बिना जीएसटी लागू कर दिया गया। नोटबंदी और जीएसटी लागू होने से भारतीय अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपनी गलती सुधारने की बजाय अचानक लॉकडाउन लागू कर साबित कर दिया कि वह मूलतः तानाशाह हैं तथा आम आदमी पर लॉकडाउन से पड़नेवाले प्रभाव की उन्हें कोई चिंता नहीं है। इससे साफ हो गया है कि तुगलकी चमड़े के सिक्के चलाने की नीति पर उनका दृढ़ विश्वास है।
नरेंद्र मोदी ने डेढ़ सौ वर्षों के मजदूर संगठनों के संघर्षों और कुर्बानियों से हासिल किए गए 44 श्रम कानूनों को खत्म कर 4 लेबर कोड, 54 करोड़ श्रमिकों पर लागू कर दिए और श्रमिकों के अधिकारों को लगभग समाप्त कर दिया। अब मजदूर न तो स्वतंत्र रूप से मजदूर संगठन चला सकेंगे न ही हड़ताल कर सकेंगे। यहां तक कि उन्हें 8 घंटे की जगह 12 घंटे काम करने के लिए कानूनी तौर पर मजबूर किया जा सकेगा।
नरेंद्र मोदी का आपातकाल मजदूरों और किसानों तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ा आपातकाल तो मुसलमानों के लिए है जिनका जीवन भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों के संरक्षण में काम कर रही कट्टरपंथी ताकतों ने पूरी तरह असुरक्षित बना दिया है।
कब किसी मुसलमान की किस कारण से मास लिंचिंग (भीड़ द्वारा हत्या) कर दी जाएगी यह कोई नहीं जानता। कोरोना काल में भी तबलीगी जमात को कोरोना वायरस फैलाने वाली जमात के तौर पर स्थापित करने का प्रयास किया गया। यह स्थिति इसलिए बनी क्योंकि देश में हिंदू मुसलमानों के बीच में साजिशन गलतफहमियां पैदा की जा रही हैं तथा आपसी रिश्तों में जहर घोला जा रहा है।
अब असम में दो बच्चों का कानून लाकर असम की भाजपा सरकार लोगों को आपातकाल के दौरान की गई नसबंदी की याद दिला रही है। जिस तरह नागरिक संशोधन कानून लाकर मुसलमानों को निशाना बनाया गया उसी तरह तमाम धर्मांतरण, गौ रक्षा के कानून लाकर उन्हें अपने ही देश में द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनाने का षड्यंत्र किया जा रहा है।
आपातकाल केवल किसान, मजदूर या मुसलमान तक ही सीमित नहीं है, दलित अस्मिता से जुड़े भीमा कोरेगांव के आंदोलन को सरकार ने माओवादियों से जोड़कर दलित अस्मिता की बात करनेवालों को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। भीमा कोरेगांव प्रकरण में आज भी तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ता जेल में हैं।
आदिवासियों के हकों के लिए संघर्ष करनेवालों को माओवादी बताना कोई नई बात नहीं है लेकिन तथाकथित रेड कॉरिडोर को जिस तरह अर्धसैनिक बलों के हवाले किया गया है तथा उन्हें जिस तरह की छूट दी गई है उसका परिणाम यह हुआ है कि पहले माओवादियों द्वारा हमला करने की घटना बताकर मुठभेड़ की जाती थी लेकिन अब बस्तर के सिलगेर में 17 मई को शांतिपूर्वक तरीके से धरना दे रहे आदिवासियों पर गोलियां बरसाई गईं जिसमें 3 आदिवासियों की मौत हो गई तथा कई आदिवासी लापता हैं।
सरकार ने सबसे ज्यादा दुरुपयोग यदि किसी कानून का किया है तो उसका नाम है यूएपीए।
यूएपीए लगाकर असम के किसान नेता अखिल गोगोई से लेकर छत्तीसगढ़ की मानवाधिकार नेत्री सुधा भारद्वाज को बरसों से जेल में रखा गया है। राष्ट्रद्रोह के प्रकरणों की तो जैसे देश में बाढ़ आ गई है। खासतौर पर उत्तर प्रदेश में चुन-चुन कर मुसलमानों पर राष्ट्रद्रोह के फर्जी मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं।
कश्मीरियों ने जिस तरह का आपातकाल भोगा है वैसा अनुभव ना तो उन्हें ना दूसरे राज्यों के निवासियों को कभी हुआ था।
साल भर तक इंटरनेट बंद कर दिया जाना, धारा 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त कर दिया जाना, राज्य का विभाजन कर दिया जाना, तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को साल भर बिना मुकदमे के नजरबंद रखने को सुपर आपातकाल नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?
सबसे बड़ा आपातकाल तो नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के भीतर लागू कर दिया है।
इसके चलते ‘इंदिरा इज इंडिया’ की तर्ज पर ‘मोदी इज इंडिया’ की नीति को पार्टी ने स्वीकार कर लिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मोदी की हां में हां मिलाने को मजबूर है।
मोदी सरकार ने आंदोलनों से निपटने, उन्हें कुचलने और बदनाम करने के लिए दंगा नीति बनाई है।
सीएए, एनआरसी के विरोध में आंदोलन करने वाले छात्र-छात्राओं को दिल्ली दंगों में फंसा कर उनपर यूएपीए लगा दिया है। जेएनयू के कन्हैया कुमार जैसे छात्र नेताओं पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लगा दिया गया था। दिल्ली दंगों के दोषी भाजपा के नेताओं पर तो केस दर्ज नहीं हुए मगर आंदोलनकारियों को दिल्ली दंगों के लिए दोषी बताकर जेल में डाल दिया गया।
किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए भी 26 जनवरी की घटना का षड्यंत्र रचा गया। आरोप लगाया गया कि किसान लाल किले पर कब्जा करना चाहते थे। जबकि विगत सात माह से चल रहे किसान आंदोलन ने यह साबित कर दिया है कि वह सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह में विश्वास रखनेवाला आंदोलन है।
26 जून को आपातकाल की 46वीं वर्षगांठ है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर विपक्ष के लाखों नेताओं-कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया था। संवैधानिक अधिकारों को समाप्त कर दिया था।
मोदी के सुपर आपातकाल में सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को चुन-चुन कर समाप्त कर दिया गया है। न्यायपालिका तक की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लग चुका है।
मोदी के सुपर आपातकाल के जो तथ्य मैंने पेश किए हैं, उनसे स्पष्ट है कि मोदी संविधान को ही मानने को तैयार नहीं हैं। संविधान बदलना भाजपा का पुराना घोषित लक्ष्य है। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना तथा देश में संसदीय प्रणाली समाप्त कर उसे अमरीका की राष्ट्रपति प्रणाली में बदलना भाजपा की अघोषित नीति है। जिसे पूरा देश और दुनिया जानती है।
इंदिरा गांधी के आपातकाल का मुकाबला देश में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन के माध्यम से किया गया था। इसी तरह मोदी के आपातकाल का मुकाबला किसान आंदोलन कर रहा है।
छात्र आंदोलन को कुचलने के लिए बिहार सरकार ने जिस तरह की दमनात्मक कार्रवाइयां की थीं उससे आगे बढ़कर हरियाणा में भाजपा की मनोहर लाल खट्टर सरकार किसानों पर दमन कर रही है। इंदिरा गांधी के आपातकाल का विरोध करनेवालों को विदेशी एजेंट बताया जाता था, उसी तरह किसान आंदोलनकारियों को खालिस्तानियों का एजेंट बताया जा रहा है। इंदिरा गांधी के आपातकाल का मुकाबला करने के लिए कुछ मीडिया घराने सामने आए थे। फिलहाल टेलीग्राफ समूह के अलावा कोई मीडिया घराना खुलकर मोदी सरकार से लोहा लेने को तैयार दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन जिस तरह इंदिरा गांधी के आपातकाल को खत्म कराने का बड़ा कारण छात्र आंदोलन बना था, उसी तरह मोदी के आपातकाल से मुक्त कराने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चल रहा किसान आंदोलन दिखाई पड़ता है।
देश में सही मायने में लोकतंत्र की बहाली के लिए और खेती-किसानी के साथ-साथ देश को बचाने के लिए आज किसान खड़ा हुआ है। जो लोग मोदी के आपातकाल से मुक्ति चाहते हैं उन्हें तन-मन-धन से किसान आंदोलन का समर्थन करना चाहिए ताकि देश को वर्तमान आपातकाल से निजात मिल सके।