— रामप्रकाश कुशवाहा —
साहित्यकार होना एक किस्म की सचेतन स्वप्नदर्शिता है और यह अपनी युवावस्था में देखे जानेवाले दिवास्वप्नों की प्रौढ़ावस्था है। इस तरह देखा जाए तो कोई भी कवि-साहित्यकार नींद का या यह कहें कि अचैतन्य-स्वप्नदर्शी नहीं होता, बल्कि सचेतन या चैतन्य-स्वप्नदर्शी होता है। वह अपने जीवन, जगत से प्रभावित-अनुप्रभावित या असंतुष्ट होकर अपनी रुचि, इच्छाओं और शर्तों पर अपनी स्वतन्त्र मनोसृष्टि का कल्पक होता है। उसकी मनोसृष्टि जब दूसरों यानी पाठकों के भी जीवन का हिस्सा बनने लगती है तब उसके होने का औचित्य आलोचना और परीक्षा के दायरे में आता है। समाज को उसकी सृजित कल्पना का साक्षात्कार और परीक्षा करनी ही चाहिए।
मैंने अब तक जितनी आलोचना पुस्तकें पढ़ी हैं वे मितभाषिता और स्फीतिपूर्ण भाषिता के दो अतिरेकी छोरों के बीच थीं। कौन कितना बोलेगा इसे बहुत से कारक तय करते हैं। देर तक बोलना कई बार निर्णायक ढंग से न समझ पाने के कारण भी होता है या फिर अधिक से अधिक आयामों को समेटने के प्रयास में।
एक सुई के बारे में यह कहना कि यह फावड़े या छुरे का काम नहीं कर सकती- अनावश्यक होने से बकवास ही माना जाएगा। वैज्ञानिकों के लिए चाँद का अन्धकार में डूबा पृष्ठ भाग चाहे जितना ही आवश्यक हो सिर्फ चांदनी के लिए उतना ही चाँद जरूरी है जितना कि दिखता है। एक समय में इतने सारे लोग लिख रहे हैं। पहले भी लोग लिखते थे। लोगों का लिखा पुस्तक के रूप में या फिर ई-बुक के रूप में ही सुरक्षित रहना चाहिए। यह सुरक्षा वैसी ही है जैसे किसी फिल्म को कभी भी कई-कई बार देखने की तकनीकी सुविधा का होना। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि निरन्तर प्रगतिशील ज्ञान की दृष्टि से पिछला लिखा, सही इतिहास-बोध के अभाव में हमें पिछ़डा यानी अतीतगामी भी बनाता है।
किसी भी कृति के प्रति समकालीन पाठकों और आलोचकों द्वारा की गयी समीक्षा बिलकुल एक नयी घटना को देखने और समझने की तरह होती है। अनुकूल या प्रतिकूल सामाजिक समीकरणों के कारण यह उत्साहपूर्ण स्वागत के रूप में हो सकता है और नहीं भी। लेकिन भविष्य के पाठकों के लिए सारा परिप्रेक्ष्य प्रायः अनुपस्थित हो चुका रहता है। कृति के शब्दों और भाषा पर उसकी निर्भरता बढ़ जाती है। कई बार तो वह किसी विकलांग की तरह पूरी तरह अभिव्यक्ति की भाषा पर ही आश्रित रहता है।
ऐसे में दीर्घकालिक स्मृति का निर्माण करनेवाली आलोचना अपनी पूरी पठनीयता के साथ सिर्फ सार्थकता के विमर्श के रूप मे ही बची रह सकती है। वह चाँद के अदृश्य पिछवाड़े की तरह सिर्फ निन्दा-विमर्श के रूप में क्यों पढ़ी जाएगी? मेरी दृष्टि में साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए कवि-साहित्यकार की सार्थकता ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। सार्थकता ही किसी कवि के मूल्यांकन का प्राथमिक आधार हो सकता है। यह आधार ही यह तय करता है कि किसी साहित्यकार के रचना-कर्म को याद भी रखना चाहिए या नहीं। यदि विशेषज्ञों के लिए याद रखना और जानना जरूरी हो तो भी रचनाकारों और रचनाओं की बड़ी भीड़ में से किसी रचनाकार एवं उसकी रचना-विशेष को ही क्यों पढ़ना चाहिए। अपने अहिंसक स्वभाव के अनुरूप ही मैं किसी रचना के नकारात्मक पक्ष को देखने का दायित्व दूसरों पर छोड़ देता हूँ। साहित्य के इतिहास में अपनी निर्विकल्पता,प्रवृत्यात्मक प्रतिनिधित्व या जीवन के लिए उसकी उपयोगिता के आधार पर चुन लिये जाने के बाद ही एक बार फिर उसके विस्तृत पाठ-विश्लेषण की जरूरत पड़ेगी।
देखा जाए तो कोई भी कवि नकारात्मक रचने के लिए नहीं लिखता। असावधानी, प्रतिभा की कमी, सही प्रतिबद्धता और पक्ष का न होना, वर्ग दोष, रुचि और नीयत का दोष और लेखकों का तुलनात्मक या सापेक्ष स्थान लेखक के रचना-कर्म के नकारात्मक मूल्यांकन के आधार बन सकते हैं।
मैंने प्रायः जो लिखा है वह प्रचलित अर्थ में आलोचना कर्म न होकर पाठ-मूल्यांकन और उसका विस्तार रहा है। मैं शिक्षक रहा हूँ और जब तक कोई छात्र बिगड़ते या बिगाड़ते नहीं दिखता था- उसे डांटा नहीं जाता था। मेरी कोशिश अधिक से अधिक रचना के सम्प्रेष्य और रचनाकार के पक्ष को खोलने और यह पता लगाने की रही है कि कवि को क्यों याद रखा जाए या उसकी रचना के अस्तित्व की साहित्य, समाज और जीवन में भूमिका क्या है। यद्यपि भाषा की सामासिक आदत के कारण कई अत्यंत श्रमसाध्य कवि हैं लेकिन यह दोष निराला और मुक्तिबोध में भी है। भाषा के प्रयोग की पद्धति अलग-अलग कवियों में भिन्न भिन्न हो सकती है। शब्द और भाषा कवि के लिए अभिव्यक्ति के माध्यम मात्र हैं। उनकी हैसियत चित्रकार के लिए रंग, कूंची और कैनवास तथा मूर्तिकार के लिए छेनी और पत्थर से अधिक नहीं मानी जा सकती। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसके लिए नया कहने और सार्थक कहने के लिए क्या है!
“रचना की सार्थकता और आलोचना के आयाम” एक विचारोत्तेजक विषय है। लेखक ने अच्छा विषय चुना है पर मुझे लगता है यह एक विस्तृत लेख का छोटा अंश है। इसमें लेखक का पूरा विचार आ नहीं पाया है। उसके पूरे विचार की प्रतीक्षा रहेगी।