— डॉ. सुरेश खैरनार —
(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा )
मैंने संघ के जेल सहयात्रियों को कहा कि यह तो श्रीमती इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत आपातकाल की घोषणा है। उनकी पार्टी के काफी लोग हैं जिन्हें यह ठीक नहीं लगता होगा, लेकिन कभी तुम लोग अगर सत्ता में आओगे तो लोगों का सांस लेना भी मुश्किल कर दोगे!
आज सात साल से भारत के सभी लोग वही भुगत रहे हैं! केंद्र में भाजपा के आने के बाद नागरिकता संशोधन कानून, कश्मीर से 370 खत्म करने से लेकर गोहत्या बंदी, लव-जेहाद के नाम पर कानून और धर्म परिवर्तन की बंदी से लेकर बाबरी विध्वंस को अनदेखा करके मंदिर के लिए इजाजत, भारत के संविधान के खिलाफ जाकर कई कानूनों को बदलने, मजदूरों-किसानों के खिलाफ कानून बनाने, सरकारी उद्योग निजी क्षेत्र को औने-पौने दामों में बेचकर शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को भी निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपा जा रहा है। आखिर सरकार नाम की चीज किस काम के लिए रहेगी, यह बात मेरे जेहन में बार-बार कौंध रही है!
मतलब संसद की कार्यवाही किस बात पर चलेगी, या उसे भी गोलवलकर के सपनों का एकचालकानुवर्तते भारत बनाने में नष्ट कर दिया जाएगा? पूरी मनुस्मृति के हिसाब से भारत को पाँच हजार साल पहले का बनाकर ‘विश्व गुरु’ बनने की इच्छा पूरी करने जा रहे हैं ! और यह मैं मजाक में नहीं लिख रहा हूँ। 1925 से संघ का एजेंडा तय है और उसे लगता है कि वह सब लागू करने का इससे अच्छा मौका और नहीं हो सकता ! कहने के लिए वह एक सांस्कृतिक संगठन है लेकिन वर्तमान सत्ताधारी दल की नकेल संघ के ही हाथ में है इस बात में कोई शक नहीं है ! कोरोना की दूसरी लहर के बाद संघ हरकत में आया है और आगामी पाँच राज्यों के चुनावों और मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए संघ काफी सावधानीपूर्वक तैयारी कर रहा है !
लेकिन अभी कोई आपातकाल नहीं है और न ही कोई सेंसरशिप ! लेकिन सात साल से भी ज्यादा समय हो रहा है, भारत की सभी जेलें विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं से भरी हुई हैं ! और अखबार, टेलीविजन तथा सोशल मीडिया पर सरकार ने सत्ता मे आने के बाद जिस तरह से नकेल कसी है वह छियालिस साल पहले के आपातकाल को भी मात दे रहा है ! जिस तरह से विभिन्न प्रायवेट टीवी चैनलों को कुछ चंद उद्योगपतियों ने खरीदने की शुरुआत की, उससे लगता है कि ये तैयारियां 2013 से ही जारी थीं! और आज शायद एनडीटीवी को छोड़ कर सभी चैनल और द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, टेलिग्राफ जैसे चंद अखबारों छोड़ सभी अखबार सरकार के भाट बनकर कवरेज कर रहे हैं!
सोशल मीडिया भले अंतरराष्ट्रीय स्तर से संचालित होता हो, भारत सरकार नये कानून बना कर उसे भी कंट्रोल करने के लिए पीछे पडी हुई है ! रविशंकर प्रसाद के प्रयास उसी के लिए जारी हैं क्योंकि सोशल मीडिया शुरू में भले संघ परिवार के कब्जे में था लेकिन अन्य लोगों को भी उसके प्रभाव को देखकर मजबूरन उसमें शामिल होना पड़ा। अब सरकार उसे भी नियंत्रित करने की जद्दोजहद कर रही है, और वह कुछ भी करके वह उसे कंट्रोल करेगी ही।
वैसे भी नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तभी (2007) से थाईलैंड की एक एजेंसी की मदद से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करनेवाले पहले भारतीय राजनेता हैं ! और उनकी पार्टी भाजपा भारत की पहली राजनीतिक पार्टी है जिसने सोशल मीडिया पर विशेष ध्यान दिया है। और सत्ता में आने के पहले ही खुद की डिजिटल सेफ्रोन आर्मी के साथ लगभग एक लाख से भी ऊपर पेड वर्कर और संघ के प्रतिबद्ध लोग अलग से ! लामबन्दी करके भाजपा के विरुद्ध लिखनेवालों, पत्रकारों तथा विरोधी दलों के नेताओं पर, एक तयशुदा नीति के तहत, गंदे डिजिटल हमले करने की मुहिम चला रखी है! और यह सब स्वाति चतुर्वेदी ने ‘आइ एम ए ट्रोल, इनसाइड द सिक्रेट वर्ल्ड ऑफ द बीजेपीज डिजिटल आर्मी’ नाम की 171 पेज की अपनी किताब में तफसील से लिखा है।
इंदिरा गांधी के समय सिर्फ प्रिंट मीडिया और एक सरकारी चैनल दूरदर्शन के अलावा और कोई माध्यम नहीं था। हमारे सायक्लोस्टाइल की दुनिया इतनी छोटी थी, और वह भी हमारे अपने ही लोग पढ़नेवाले थे। आज भी हमारी पत्रिका हम कुछ चंद लोग ही पढ़ते हैं !
सामान्य लोगों को देने में रिस्क और हमारे संसाधनों की कमी, इन दोनों वजहों से हम सिर्फ अपने आप को संतुष्ट करने के लिए ही यह जद्दो-जहद कर रहे थे! नहीं, कोई उसका बहुत बड़ा असर हो रहा हो ऐसा अब छियालिस साल बाद तटस्थता से देखने पर लगता है! कि वह सिर्फ हमारे अपने संतोष के लिए कि हम कुछ अंडरग्राउंड कर रहे हैं ! हालाँकि हमारा ज्यादा समय सिर्फ अंडरग्राउंड रहने में और काफी कुछ रोमांटिक भाव में ही बीता है। आपातकाल का बाल भी बाँका नहीं कर सके ! लेकिन तब हमारे तेवर? हमारे ही कारण सब कुछ हो रहा है !
सवाल यह है कि वर्तमान अघोषित आपातकाल के दौरान वर्तमान सरकार संघ की विचारधारा को अमलीजामा पहनाने में पहले दिन से ही लगी हुई है! समाजवाद की तरफ जानेवाली हर बात, उदाहरण के लिए योजना आयोग को भंग करने के बाद भारत के सभी सरकारी उद्योग जिनमें रेल, सड़क परिवहन, जहाजरानी, हवाई सेवा, और सबसे संवेदनशील विभाग रक्षा में सत्तर प्रतिशत से भी ज्यादा विदेशी निवेश और बैंक, बीमा, डाक और तार विभाग, दूरसंचार विभाग को संघ की पहली सरकार (अटल बिहारी वाजपेयी) के समय ही निजी हाथों में देने का काम शुरू हो गया था। तत्कालीन संचार मंत्री प्रमोद महाजन ने रिलायंस कम्युनिकेशंस के लिए बीएसएनएल के टॉवर इस्तेमाल करने देकर और तेरह दिन के लिए ही सरकार थी फिर भी उसमें भारत के रक्षा विभागों की देशभर की जमीन के व्यारे-नारे करने की शुरुआत की थी। और आज की बात है कि भारत के सभी सरकारी उद्योग लगभग बेचकर अब जल, जंगल और जमीन बेचने के लिए आदिवासियों की रक्षा के लिए बनी पाँचवीं और छठी अनुसूची को खत्म करने की बात सत्ता में आने के तुरंत बाद ही शुरू कर दी है! और आदिवासियों की तरफ से प्रतिकार नहीं हो इसलिए नक्सल प्रभावित जिलों में जिन कानूनों के तहत सुरक्षा बलों की तैनाती की गयी है उन्हीं विशेष कानूनों के तहत जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में भी सुरक्षा बल तैनात किये गए हैं।
भारत की एक चौथाई आबादी को विशेष कानूनों के तहत संगीनों के साए में रखकर, बुद्धिजीवियों को अर्बन नक्सल, देशद्रोही कहकर आतंकवाद निरोधक कानूनों के तहत जेल मे ठूँसना जारी है! और एक तरह से भारत की सभी सेंट्रल जेल इन लोगों से भर डाली है !
शिक्षा और आरोग्य के क्षेत्र से सरकार के कदम पीछे खींच लेने का सबसे ताजा उदाहरण हमने कोरोना महामारी के दौरान देखा है। सरकार की कोताही और बदइंतजामी के कारण लाखों लोग मारे गए। और सबसे हैरानी की बात यह है कि सबकुछ राज्यों के मत्थे मढ़ दिया गया। लेकिन केंद्र सरकार ने पहले कोरोना के समय छत्तीस हजार लाख रुपये सिर्फ कोरोना के लिए ऐलान किया था तो वह पैसा किसके पास पहुंचा? क्योंकि केरल को छोड़कर भारत के सभी राज्यों में कोरोना के कारण लाखों लोगों को इलाज के अभाव में मरते हुए पूरे विश्व ने देखा है ! अंत्येष्टि की व्यवस्था नहीं होने के कारण हजारों लाशें गंगा और अन्य नदियों में फेकने के दृश्य संपूर्ण विश्व के मीडिया में आए हैं !
भले भारत के मीडिया ने नहीं कवर किया लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की जितनी बदनामी कोरोना से मुकाबले में अव्यवस्था के कारण हुई है उतनी आज तक किसी और बात पर नहीं हुई !
सत्ता में आने के तुरंत बाद ही कॉरपोरेट घरानों को खुश करने के लिए वे कानून बदल दिए गए जो मजदूरों के हित में बने थे और जिन्हें श्रमिक आंदोलन ने लंबे संघर्ष से हासिल किया था। यही किसानों के साथ हुआ। तीन ऐसे कानून बनाये गए जो किसानों ने कभी मांगे नहीं, लेकिन कृषि व्यापार को पूरी तरह अपने चंगुल में लेने का ख्वाब देख रही कंपनियां बराबर ऐसे कानून के लिए दबाव डाल रही थीं। नतीजा सामने है।
पूरे देश के किसान सात महीनों से तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलित हैं। लेकिन सरकार टस से मस नहीं हो रही है। इससे जाहिर है कि वह किनके लिए काम कर रही है।
पचास प्रतिशत से ज्यादा आबादी सीधे कृषि पर निर्भर है। क्या सरकार यह चाहती है कि किसान कंपनियों के खेतिहर मजदूर बन जाएं और अपनी जमीन औने-पौने दामों पर कंपनियों को बेच दें? यह सब वह सरकार कर रही है जो किसानों को फसल का दाम लागत से डेढ़ गुना दिलाने और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने के वादे पर आयी थी। अब वह खेती में बड़ी-बड़ी कंपनियों के आने से होनेवाले फायदे गिना रही है! लेकिन जब कृषि क्षेत्र से बड़ी तादाद में लोग बेदखल होंगे तो क्या उनके लिए कहीं और आजीविका का प्रबंध है? कृषिक्षेत्र के इतने सारे लोग खाली हाथ क्या करेंगे? मजदूरों की नौकरी जा रही है ! शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को भी निजी क्षेत्र को सौंप कर आखिर सरकार नाम की चीज किस काम के लिए रहेगी ? एकचालकानुवर्तते ! या उसे भी कंट्रोल करने के लिए निजी क्षेत्र के मालिकों को सौंप दिया जाएगा?
मुझे अड़सठ साल की उम्र में भारत का यह नजारा देखकर लगता है कि हमारे देश की आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने के पहले ही देश को कौन-सी अवस्था में ले के जा रहे हैं ! और वह भी देशभक्ति के नाम पर ! यह तो शत-प्रतिशत आत्मघाती रास्ते पर भारत को ले जाने की करतूत चल रही है। और हम जीते-जी यह नहीं होने देंगे !