— शर्मिला जालान —
ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक शीर्षक आत्मकथा उत्तर कोलकाता से दक्षिण कोलकाता की ऐसी यात्रा है जिसे कई जगहों से (कोणों) देखा और पढ़ा जा सकता है। इसकी मर्म-भरी भूमिका प्रख्यात लेखिका सुधा अरोड़ा ने लिखी है जो कई आयामों पर रोशनी डालती है। यह यात्रा अंदर और बाहर के संसार की यात्रा है जहाँ आंतरिक संघर्ष है, लहुलूहान होते जीवन को निजी मनोबल और अदम्य उत्साह–आशा से बनाए और बचाए रखने की ज़िद और जिजीविषा है।रोजमर्रा के अच्छे और बुरे जीवन अनुभवों को, गहरे संबंधों को शिद्दत से समझ और पहचान कर, देर व दूर तक मथकर प्रकट किया गया है। जीवन में आनेवाली छोटी-बड़ी और विराट अड़चनों को पार कर जब-जब रेणु गौरीसरिया ने सोचना शुरू किया जब-जब कुछ लिखा इस सफरनामा की निर्मिति स्वत: होती चली गई। यह बहुत विनम्रता से लिखी जीवन गाथा है जिसमें जीते-जागते पात्र हैं, उन सभी का महत्त्व वे स्वीकार करती हैं, उन सभी को याद किया है जिन्होंने उनकी मदद की, उन्हें संभाला। ये पात्र अपनी अच्छाइयों, कमियों-खामियों के साथ यहाँ उपस्थित हैं। यहाँ रूढ़ियों के खिलाफ सहज विद्रोह है। स्त्री-पुरुष की आपसी समझ, समझदारी के प्रति आग्रह हैं, पति-पत्नी के बीच अनेक सामाजिक, आर्थिक झंझावात हैं।
इस कथा में वर्णन है, एकालाप है और कभी संभाषण और भाषण की गति से कथा अंत की तरफ जाती है। कब कथा में कोई कविता आ जाएगी और कब आत्मविश्लेषण शुरू हो जाएगा कहा नहीं जा सकता।
यह एक विसंगतिपूर्ण बात है कि वह जीवन जिसमें रेणु गौरीसरिया ने तीन बार आत्महत्या करने की असफल कोशिश की, क्षण भर के लिए भी अपने पहले विवाह से हुई पुत्री पम्मी का खयाल नहीं आया, वह जीवन जिसमें अप्रीतिकर यथार्थ का कटु बोध था, जिसे निरुद्वेगपूर्ण भाव से जिया उसकी कथा रोचक है! उसे पढ़ते हुए हम तमाम ब्योरों और किस्सों से समृद्ध होते जाते हैं।
इस किताब को पढ़ना यह सोचकर शुरू किया था कि लेखक की आत्मकथा पहले पन्ने से ही शुरू हो जाएगी पर पहला पृष्ठ शुरू होता है इस वाक्य से –
“इन दिनों देश में जो चल रहा है वह बहुत ही भयानक और चिंताजनक है|”
यह बात यह दर्शाती है कि कथा लेखक देश और समाज पर भी अपनी तरह से सोचती हैं और सिर्फ सोचती ही नहीं सुचिंतित ढंग से सामने भी रखती हैं। राजनीतिक घटनाओं, दुर्घटनाओं को याद करते हुए उस पर चिंतन, चीर फाड़, मंथन, आलोचना करते हुए सामजिक, पारिवारिक बातों को आगे बढ़ाते हुए उनकी लेखनी आगे बढ़ती जाती है। यह कथा उनके कठिन दौर की कथा तो है ही पर साथ ही कलकत्ते की कथा है जो उच्च मध्यवर्गीय मारवाड़ी जाति के अग्रवाल परिवार- खेतान, मोदी, नेवटिया, गौरीसरिया- आदि के माध्यम से साझा की गयी है।
कथा आगे बढ़ती है उस बचपन से जो उनके शब्दों में ‘राजसी’ था। अस्सी वर्ष की वय में युवा दिनों की बातें याद रहे ना रहें बचपन और किशोर उम्र की छोटी-बड़ी बातें खूब याद आती हैं। जीवन का सिंहावलोकन वहीं से किया गया है। उनका परिवार आजादी से पहले शहर में बहुप्रतिष्ठित प्रगतिशील विचारों से सम्पन्न, सुसंस्कृत और शिक्षित, उच्च मध्यवर्ग का समृद्ध परिवार माना जाता था। परदादाजी नवरंग राय खेतान चांडिल जेल में जेलर थे, तीसरी पीढ़ी में खेतान परिवार के सदस्यों ने वहां एक स्कूल बना दिया है। दादाजी सात भाई थे जो कलकत्ता में आकर मोहमद अली पार्क के सामने ज़करिया स्ट्रीट में रहने लगे। यहाँ कलकत्ता है, ‘हाउस ऑफ सेवन ब्रदर्स’ है।
“हमारा घर हाउस ऑफ सेवन ब्रदर्स कहलाता था कभी कभी गाँधीजी इत्यादि नेता भी आते थे वहाँ मीटिंग करने|” (पृष्ठ-22)
मारवाड़ी संस्कृति की झाँकियाँ और छटा पूरे वर्ष में होनेवाले तीज-त्योहार, भोजन-व्यंजन आदि के माध्यम से यहाँ उपस्थित है। यह ऐसे संयुक्त परिवार की कथा है जहाँ घर के बहुत सारे सदस्य हैं और उनके बराबर उतने ही नौकर-चाकर-महराज हैं। जहाँ विधवा बुआ भी आकर रहने लगती हैं। संयुक्त परिवार का जीवन कैसा हुआ करता था विस्तार से यहाँ पढ़ा जा सकता है। यह उस परिवार की कथा है जिसमें –
“मेरे सबसे बड़े ताऊजी घर से अलग हो गए थे। उन्होंने पी.सी. बरुआ की फिल्म ‘देवदास’ में चंद्रमुखी की भूमिका अदा करनेवाली अभिनेत्री राजकुमारी से दूसरा विवाह कर लिया था।”
यहाँ रंगून भी है और वहाँ का टाइगर बाम भी। कई लोगों का मेला है। इसे उपन्यास की तरह पढ़ना शुरू हो जाता है तब जब घर के नक्शे आते हैं। इस तरह से कथा वर्णित है मानो हम खुद संभ्रांत इलाके सदर्न एवेन्यु के बंगला नम्बर में 93 में रहने लगे हैं। उस जमाने के मारवाड़ी घर कैसे होते थे और घर की व्यवस्था कैसी होती थी यह जानने को मिलता है।
रेणु गौरीसरिया का जन्म सत्रह जुलाई उन्नीस सौ इकतालीस में हुआ। पहले विवाह का जीवन रोमानी था और भंगुर भी। दूसरे विवाह में कई निजी, पारिवारिक-सामाजिक सवालों से साक्षात्कार हैं, टूटना और बिखरना है।
इस कथा के द्वारा हम उन्हें दो बार मिले वैधव्य के अवसाद और उसमें से निकलने, उबरने जीवन को बनाने और बचाने की कोशिश, आतंरिक विह्वलता, और हाहाकार को जान पाते हैं।
इस सफरनामा में ढेरों चरित्र हैं जो अपनी अपनी कथा कहते हैं और जो किसी न किसी सामाजिक और मानवीय सच्चाई को हमारे सामने नए प्रसंग में रखते और नए प्रसंग से जोड़ते हैं। यह सफरनामा कई स्तरों पर, कई रूपों में पढ़ा जा सकता है। परिवार की पीढ़ियों की कथा आती है।
यह कहानी एक तरफ जहाँ रेणु गौरीसरिया के माध्यम से पारंपरिक जीवन की कहानी है जिसमें दो बार वैधव्य का तूफ़ान झेला वहीँ पर पम्मी, अर्जुन, नीति, सुकन्या, कार्ला के माध्यम से उस आधुनिक जीवन की कहानी है जिसमें तरह-तरह के द्वंद्व, ऊहापोह ,भीतरी और बाहरी हलचल होगी जिसकी थाह पाना कठिन है। जिसमें अपनी तरह के संघर्ष,एकाकीपन चुनौतियाँ और अवसाद हैं।
अठहत्तर साल की उम्र में लिखे जा रहे इस सफरनामे में बदलते मूल्य, बदलता हुआ जीवन, समय और काल जीवित हो जाता है। यह कहानी रेणु गौरिसरिया की कहानी के निमित्त उस कलकत्ते की कहानी है जिसमें पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, बड़े गुलाम अली, सलामत अली-नजाकत अली और सुनंदा पटनायक, पंडित जसराज जैसे शास्त्रीय गायक गायिकाएँ, मुकुंद लाठ, ज्ञानवती बाई लाठ, सुचित्रा सेन, ऋतिक घटक, प्रतिभा अग्रवाल, उषा गांगुली, जानी बाबू कव्वाल, अभिनव भारती स्कूल, किसलय मोंटेसरी, ज्योतिर्मयी क्लब, संगीत श्यामला, आदि आते हैं|
इस कथा के द्वारा हम कोलकाता विश्वविद्यालय के कई प्रोफेसरों– विष्णुकांत शास्त्री आदि- को भी याद कर पाते हैं तो उस कालखंड में नाटक की जो संस्थाएं थीं उनसे भी रूबरू होते हैं, कई प्रतिष्ठित स्कूलों से जुड़ते हैं। हिंदी की प्रख्यात लेखिका मन्नू भंडारी से तो आत्मीय ढंग से जुड़ते ही हैं। उस कालखंड और समय को हम जीते जाते हैं और ढेरों प्रसंग किस्से-कहानियों को याद करते जाते हैं।
यह सफ़रनामा एक तरफ पारंपरिक जीवन की आतंरिक जटिलताओं को खोलता है तो दूसरी तरफ आधुनिक जीवन के आधुनिक सोच वाली पीढ़ी की इच्छाओं-आकांक्षाओं, उनके तार्किक स्वप्नों और तेवरों को अनकहे ढंग से प्रकट करता है जिसमें स्त्री एक नई मनोभूमि पर खड़ी है।
इस तरह हम यह देख पाते हैं कि इस सफ़रनामा का अपना महत्त्व है जो पाठक की चेतना को आवेष्टित कर लेता है।
किताब : ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक
लेखिका : रेणु गौरीसरिया
संभावना प्रकाशन, रेवती कुंज, हापुड़-245101; मूल्य : 350 रु.