उत्तराखंड में भाजपा का मुख्यमंत्री बनाने और हटाने का खेल

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— शशि शेखर प्रसाद सिंह

त्तराखंड के एक और मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को भारतीय जनता पार्टी के  केंद्रीय नेतृत्व के आदेश पर दो दिन पहले त्यागपत्र देना पड़ा। आज से लगभग चार महीने पहले हरिद्वार में महाकुंभ आरंभ होने से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र  सिंह रावत को भाजपा  केंद्रीय नेतृत्व के आदेश पर इस्तीफा देना पड़ा था। सुना गया था कि मुख्यमंत्री को हिंदू धर्म के संतों तथा शक्तिशाली अखाड़ों के महंतों  की नाराजगी के कारण हटाया गया था  क्योंकि तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत कोरोना महामारी के बीच बड़े पैमाने पर महाकुंभ के आयोजन के पक्ष में नहीं थे और उत्तर प्रदेश जैसे सर्वाधिक  राजनीतिक महत्त्व वाले राज्य में अगले साल होनेवाले चुनाव की चिंता से ग्रस्त  भाजपा केंद्रीय नेतृत्व ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर  उनकी जगह तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया था।

सब ने देखा कि जिस प्रकार से महामारी के बीच महाकुंभ का आयोजन हुआ, उसका दुष्परिणाम उत्तराखंड ही नहीं, देश के अन्य राज्यों के लोगों को भी भुगतना पड़ा। मजे की बात यह है कि तीरथ सिंह रावत महज चार महीनों के दौरान अपने कई विवादास्पद बयानों के कारण चर्चा में रहे। उन्होंने स्त्री विरोधी अपनी सोच का सार्वजनिक रूप से इजहार किया और जीन्स पहननेवाली लड़कियों  के संबंध में बयान देकर घोर आलोचना के पात्र बने। उसके बाद अपने (अ)ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए यह कह डाला कि भारत को अमेरिका ने दो सौ सालों  तक गुलाम बनाकर रखा। वैसे भी आज राजनीतिज्ञों के ज्ञान, इतिहास के बारे में उनकी जानकारी, सामाजिक समझ  और अवैज्ञानिक दृष्टि को लेकर चर्चा चलती रहती है।

उत्तराखंड सन 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक छोटा राज्य बना तब से 21 साल की अपनी राजनीतिक यात्रा में यह राज्य 11 मुख्यमंत्रियों  (खंडूरी साहब एक ही कार्यकाल में दो बार भाजपा के मुख्यमंत्री बने ) को देख चुका है। और अब वहां चार महीने में दो मुख्यमंत्रियों का इस्तीफा कुछ  राजनीतिक सवाल तो खड़े  करता ही है।

मोदी राज में भाजपा की यह कार्य-संस्कृति इंदिरा गांधी के जमाने की कांग्रेस की कार्य-संस्कृति से मेल खाती है। तब भी मुख्यमंत्रियों को कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की मनमर्जी पर कभी भी हटाया दिया जाता था। तब के आंध्र प्रदेश  में इंदिरा गांधी की इसी राजनीति ने फिल्मी अभिनेता एनटी रामाराव को क्षेत्रीय दल तेलुगू देशम पार्टी के निर्माण के लिए उत्तेजित किया था।

मुख्यमंत्री राज्य में संघीय संसदीय व्यवस्था के अनुरूप विधायक दल के बहुमत का नेता होता है जो विधायक दल के नेता के रूप में औपचारिक रूप से विधायकों के द्वारा चुना जाता है और राज्य के राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाता है। सैद्धांतिक रूप में जब तक उसे विधायक दल का विश्वास प्राप्त होता है या विधानसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है, तब तक उसे मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करने का संवैधानिक अधिकार होता है। लेकिन भारत में संविधान के द्वारा संघीय व्यवस्था तो अपनाई गई और राज्यों में भी संघ की तरह विधानसभा के नियमित चुनाव होते हैं और फिर विधायक दल के नेता के रूप में चुने जाने पर राज्यपाल के द्वारा मुख्यमंत्री की नियुक्ति की जाती है। परंतु नेहरू-काल के बाद आमतौर पर राजनीतिक दलों के केंद्रीय नेतृत्व ने ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करने की जगह मनपसंद से मुख्यमंत्री बनाए।

भारत में जिस प्रकार आजादी के कुछ वर्षों बाद से राजनीतिक दलों की अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली के कारण राज्यों में मुख्यमंत्री सत्तारूढ़ दल के केंद्रीय नेतृत्व (तथाकथित हाइकमान) की इच्छा से बनाए और हटाए जाते रहेवह सामान्यतः संघीय व्यवस्था तथा जनतंत्र की मूल मान्यताओं के खिलाफ रहा है।

भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व जिस प्रकार राज्य में मुख्यमंत्री बना या हटा रहा है, वह पार्टी की लोकतांत्रिक कार्य पद्धति की खुली अवहेलना है। भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों का चरित्र, उनकी कार्यपद्धति, दल के अंदर मजबूत नेता की उपस्थिति के कारण दल में कोई लोकतांत्रिक संस्कृति विकसित नहीं हो पाई और देश में न तो संघीय राजनीति और न ही जनतांत्रिक पद्धति मजबूत हुई।

हाल के वर्षों में कई राज्यों में भाजपा ने किस प्रकार निर्वाचित सरकारों को सत्तारूढ़ दल के विधायकों को खरीद कर अपदस्थ कराया और फिर दुबारा वहाँ अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई, यह सबके सामने है। इतना ही नहीं, ऐसे मुख्यमंत्री को राज्य पर थोपा गया जिसके नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी उस राज्य में चुनाव में बहुमत प्राप्त नहीं कर सकी थी। इस प्रकार का राजनीतिक भ्रष्टाचार भारतीय राजनीति में सामान्य सी बात हो गयी है लेकिन इससे सामान्य जनता में राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों के प्रति न सिर्फ विश्वास में भारी कमी नहीं आई है बल्कि लगभग उनमें विश्वास समाप्त हो गया है।

लोकतंत्र महज राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के हाथ का खिलौना बन कर रह गया है। मसलन, भाजपा ने राजनीति में नैतिकता की तिलांजलि देते ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस के मुख्यमंत्री कमलनाथ को अपदस्थ कराकर शिवराज सिंह चौहान को, जनादेश के विपरीत, पुन: मुख्यमंत्री बनाया, कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस की गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री कुमार स्वामी को अपदस्थ कराकर पूर्व में भ्रष्टाचार के आरोप में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए तथा चुनाव के बाद जबरदस्ती मुख्यमंत्री बन बैठे और विश्वास मत के पूर्व इस्तीफा देनेवाले येदुरप्पा को भाजपा ने दुबारा मुख्यमंत्री बनाया। राजस्थान में भी कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को हटाने में भाजपा ने सबकुछ दांव पर लगा दिया, हालांकि अंत में साजिश नाकाम  हो गयी।

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के बाद बहुमत न होने के बावजूद जिस प्रकार से रात के अँधेरे में राज्यपाल के साथ मिलकर सुबह-सुबह देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बना दिया गया था वह किसी को भूला नहीं है। अलबत्ता वह सब अंततः एक असफल षडयंत्र साबित हुआ। आखिरकार महाराष्ट्र में शिव सेना के उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में एक मिलीजुली सरकार कांग्रेस और एनसीपी के साथ बनी।

ये तमाम उदाहरण भारतीय जनता पार्टी की कार्य-पद्धति पर सीधा सवाल उठाते हैं। उत्तराखंड में भाजपा मुख्यमंत्री को ऐसे समय हटाया है जब अगले विधानसभा चुनाव में मात्र आठ महीने बाकी रह गए हैं। तीरथ सिंह रावत का कहना कि संवैधानिक संकट के कारण उन्होंने इस्तीफा दिया है। उनका यह स्पष्टीकरण शायद ही किसी के गले उतरे। तीरथ सिंह रावत जब मुख्यमंत्री बनाए गए थे, विधायक नहीं थे, और भारतीय संविधान के अनुसार लोकसभा या विधानसभा के चुनाव के लिए योग्य कोई भी व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री तथा मंत्री, या राज्य में मुख्यमंत्री तथा मंत्री बन सकता है लेकिन संसद या विधानमंडल के किसी सदन का छह महीने के अंदर सदस्य बनना अनिवार्य है।

उत्तराखंड में तीरथ सिंह रावत जब मुख्यमंत्री बनाए गए थे, वे लोकसभा के सदस्य थे और छह माह में उनका विधायक बनना आवश्यक था किंतु अभी तो दो महीने का समय बिना विधायक बने मुख्यमंत्री बने रहने के लिए शेष था, फिर इस्तीफा क्यों? पता चला है कि चुनाव आयोग महामारी के अब ढलान पर होने के बावजूद उपचुनाव नहीं कराना चाहता। याद रहे कि यह वही चुनाव आयोग है जिसने पांच राज्यों-असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु तथा पुद्दुच्चेरी- में महामारी की भयावह दूसरी लहर के बावजूद जिस प्रकार से चुनाव कराया वो सबके सामने है और देश ने उसका दुष्परिणाम भी भुगता। लेकिन आज वही चुनाव आयोग उत्तराखंड में उपचुनाव नहीं कराना चाहता। यह चुनाव आयोग की स्वतंत्र कार्य-प्रणाली पर अपने आप में सवाल है।

कहां तो पांच राज्यों में आम चुनाव और अब महामारी के बहाने चुनाव कराने से इनकार! क्योंकि भाजपा नेतृत्व उत्तराखंड में उपचुनाव नहीं चाहता। आठ महीने बाद उत्तराखंड में होनेवाले विधानसभा चुनाव से पहले उपचुनाव में यदि भाजपा की हार हो जाती है तो उसका परिणाम अगले चुनाव में भाजपा के भविष्य को प्रभावित कर सकता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि चुनाव आयोग ने उपचुनाव न कराने का निर्णय किसकी मर्जी से लिया होगा।

यही चुनाव आयोग तमिलनाडु और केरल में विधानसभा चुनाव एक चरण में कराता है क्योंकि वहाँ भाजपा का कुछ खास दाँव पर नहीं लगा था किंतु पश्चिम बंगाल में भाजपा विधानसभा चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार थी तो वहाँ चुनाव आयोग आठ चरणों में चुनाव कराने के लिए तैयार हो गया था। यह किसके इशारे पर किया गया?:

संवैधानिक संस्था के रूप में विगत कुछ वर्षो से  चुनाव आयोग की साख लगातार कम होती गई है और वह अपनी पुरानी प्रतिष्ठा को फिर कब हासिल कर पाएगा कहना मुश्किल है। अभी तो यही लगता है कि जैसे वह दबाव में आकर निष्पक्षता के तकाजे को और अपने संवैधानिक दायित्वों को भूल गया है।

किंतु यहां प्रश्न यह है कि उत्तराखंड में इस प्रकार से मुख्यमंत्री को चार महीने में दो बार बदला जाना राज्य की जनता के विश्वास के साथ खिलवाड़ नहीं है? महज पार्टी के अंदर की राजनीति तथा चुनाव जीतने को ही ध्यान में रखकर सियासी शतरंज की बिसात पर राज्य की जनता को मोहरे की तरह इस्तेमाल करना और मुख्यमंत्रियों को मनमाने ढंग से जब चाहे तब बदल देने का खेल खेलना, जनता के विकास के लिए शासन-प्रशासन के कार्यों पर ध्यान देने के बजाय सरकार और पार्टी में जोड़-तोड़ को बढ़ावा देना कौन सा लोकतंत्र है?

महामारी में महाकुंभ कराकर मोदी सरकार पहले ही उत्तराखंड की जनता को दुखद सौगात दे चुकी है और अब बार-बार मुख्यमंत्री बदलने की राजनीति।

सच तो ये है कि उत्तराखंड जैसे प्रकृति की गोद में बसे छोटे राज्य  की जनता का राज्य बनने के बाद कितना भला हुआ, इसको समझने के लिए इतना ही जान लेना काफी नहीं कि 2000 के बाद लगभग बीस साल में 11 मुख्यमंत्री बने? राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों कांग्रेस तथा भाजपा ने न सिर्फ मुख्यमंत्रियों को मनमाने ढंग से बदला बल्कि पार्टियों के नेता और विधायक मुख्यमंत्री या मंत्री बनने के लिए दलबदल तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार में लिप्त रहे। कांग्रेस के थोपे गए मुख्यमंत्री रह चुके विजय बहुगुणा और मंत्री रह चुके सतपाल महाराज भाजपा में रहकर जनता की किस्मत से खेल कर अपनी राजनीतिक किस्मत चमकाने में लगे  हैं….

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