(देश में इस वक्त जो हालात हैं और जो राजनीतिक-सामाजिक चुनौतियां दरपेश हैं उनके मद्देनजर सभी संजीदा एवं संवेदनशील लोग हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई पाटने तथा सौहार्द का रिश्ता मजबूत व जनव्यापी बनाने की जरूरत शिद्दत से महसूस करते हैं। इस तकाजे की एक समझ और दृष्टि बने, इस मकसद से डॉ राममनोहर लोहिया का 3 अक्टूबर 1963 को हैदराबाद में दिया गया भाषण बहुत मौजूं है। यह भाषण ‘हिंदू और मुसलमान’ शीर्षक से छपता रहा है। हमने इसे आईटीएम यूनिवर्सिटी, ग्वालियर से प्रकाशित पुस्तिका से लिया है, जिसमें लोहिया का एक और प्रसिद्ध प्रतिपादन ‘हिंदू बनाम हिंदू’ भी संकलित है।)
मन इस वक्त बहुत बिगड़ा हुआ है। मैं दो मिसाल देकर बताता हूं। ऊपर से तो सब मामला ठीक है, ज्यादातर ठीक है। दंगे कहां होते हैं। कभी-कभी जरूर हो जाते हैं, पर ऊपर से मामला ठीक है। लेकिन अंदर क्या है यह सबको मालूम है। जो ईमानदार आदमी है, वह छिपा नहीं सकता इस बात को कि अंदर दोनों का मन एक-दूसरे से फटा हुआ है। मुझे इस बात पर सबसे ज्यादा दुख इसलिए होता है कि इससे हमारा देश बिगड़ता है। कोई भी देश तब तक सुखी नहीं हो सकता, जब तक उसके सभी अल्पसंख्यक सुखी नहीं हो जाते। मेरा मतलब सिर्फ मुसलमानों से नहीं।
वैसे तो सच पूछो तो मैं मुसलमानों को अलग से अहमियत नहीं देता। मुसलमानों के अंदर ज्यादातर पिछड़े लोग हैं जैसे जुलाहे, धुनिये। 5 करोड़ में ये चार, साढ़े चार करोड़ पिछड़े मुसलमान लोग हैं। मैं उनको अहमियत देता हूं, पढ़ाई-लिखाई में, गरीबी में, हर मामले में। उसी तरह से और लोग भी हैं, हरिजन, आदिवासी वगैरह। जब तक ये सुखी नहीं होते, तब तक हिंदुस्तान सुखी नहीं हो सकता। यह पहला उसूल है। इसमें भी मन ठीक करना।
एक और बड़ी बात है और वह यह कि अगर हम किसी तरह से हिंदू-मुसलमान के मन को जोड़ पाए तो शायद हम हिंदुस्तान-पाकिस्तान को जोड़ने का सिलसिला भी शुरू कर देंगे।
मैं यह मान कर नहीं चलता कि जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बँटवारा एक बार हो चुका है, यह हमेशा के लिए हुआ है। किसी भी भले आदमी को यह बात माननी नहीं चाहिए।
मन को जोड़ने का क्या तरीका है? एक तरफ हिंदुओं के मन में मुसलमानों के लिए बहुत संदेह है, शक है और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों में पलटन में, और महकमे छोड़ भी दो, और इसी ढंग के जो दिल्ली के महकमे हैं उनमें बड़ी नौकरियों में मुसलमानों को जितना हिस्सा देना चाहिए, उतना नहीं दिया गया है। इसे बहुत कम आदमी कहते हैं, क्योंकि सच बोलने से आदमी जरा झिझका करते हैं, लेकिन यह बात सच है।
नेहरू जी कभी-कभी इस बात को जरा कहते हैं, लेकिन उनकी बात को जरा पकड़ लेना। महकमा उनका, सकार उनकी, दिल्ली सरकार के वे खुद मालिक हैं। लगातार पौने पांच वर्ष तक वे मुसलमान को सेना और दूसरी बड़ी जगहों से दूर रखते हैं और फिर जब मुसलमान भड़कने लगते हैं तो तीन महीने के लिए अपना सुर बदल देते हैं। कभी कोई जमीअत का सम्मेलन बुलवा देते हैं, कहीं और मुसलमानों को और कहना शुरू कर देते हैं कि अब मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकूंगा, मेरे मुल्क के बाशिंदों को बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। तरह-तरह से बातें करके वे मुसलमानों का दिल खुश कर लेते हैं।
नेहरू कैंची या कांग्रेस कैंची क्या है, आप समझ लेना। यह कांग्रेस कैंची किस तरह चला करती है? इसके दो फल हैं। चार वर्ष नौ महीने तो एक फल चलता है कि मुसलमानों को नौकरी दो मत और तीन महीने के लिए दूसरा फल चलता है कि मुसलमानों की जगह-जगह सभाएं करो, सम्मेलन करो, उनसे कहो कि नेहरू महाराज तो सब कुछ करना चाहते हैं, जांच बैठा दी अभी, कमीशन बैठी है, उसकी जांच निकलने वाली है, और फिर जब मुसलमानों का मन जरा तसल्ली पा जाए तो उसके बाद बात भुला दी, कैंची का दूसरा फल चलने लग जाए।
हिंदू-मुसलमान दोनों को इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। मुसलमानों के अंदर यह गलतफहमी फैली हुई है कि नेहरू साहब उनके हाफिज हैं। वे कैसे हाफिज हैं इस बात को समझ लेना चाहिए। हिंदुओं के लिए भी जरूरी है कि नेहरू साहब जो भी करें, कांग्रेस जो भी करे, उसे समझ लें, क्योंकि कांग्रेस में तो, मालूम होता है, एक पट्टा लिखा रखा है किसी तरह हुकूमत चलाते रहो, चाहे देश का सत्यानाश हो जाए। इसलिए हिंदुओं को अपना मन अब साफ कर लेना चाहिए कि आखिर इस मुल्क के हम सब नागरिक हैं। अगर मान लो कि थोड़ा-बहुत मामला शक का है और कभी किसी टूट के मौके पर कुछ मुसलमानों का भरोसा नहीं किया जा सकता कि टूट के मौके पर वे यह या वह रुख अख्तियार करेंगे, तो एक बात अच्छी तरह समझ लेना है कि जितना ज्यादा हिंदू मुसलमानों के लिए शक करेंगे, मुसलमान उतना ही ज्यादा खतरनाक बनेगा और हिंदू जितनी ज्यादा सद्भावना या प्रेम के साथ मुसलमान के साथ बर्ताव करेंगे, उतना कम खतरनाक मुसलमान बनेगा। हिंदू लोग अगर इस सिध्दांत को समझ जाएं तो मामला कुछ अच्छा हो।
यह चीज भी याद रखना कि जासूस साधारण नहीं हुआ करते। जासूस तो बड़े मजे के लोग होते हैं। उनके पीछे बड़ी ताकत रहती है। वे इधर-उधर थोड़े ही भटकते रहते हैं। मैं इस संबंध में आपको इक बात बता दूं कि दोनों सरकारें कितनी निकम्मी हैं, हिंदुस्तान-पाकिस्तान की। लोगों का आना जाना तो बहुत रहता ही है। मैं समझता हूं 200-300 या 400 आदमी इधर और उधर आते जाते रहेंगे। उनमें ज्यादातर बेपढ़े होंगे। अगर पढ़े-लिखे होंगे तो वे जानते हैं कि कितने दिन का ‘वीसा’ मिला है। वह कब खत्म होनेवाला है, उसके पहले ही वापस चले जाओ।
और याद रखना कि खाली एक ही बंगाल में नहीं, अभी भी पाकिस्तान में 1 करोड़ या 90 लाख के आसपास हिंदू हैं। पाकिस्तान के हिंदू जब यहां आते हैं हिंदुस्तान में या हिंदुस्तान के मुसलमान जब पाकिस्तान में जाते हैं, उनमें ज्यादातर बेपढ़े हैं। वे ‘वीसा’ वगैरह के मामले में जानते नहीं और अगर 400 रोज जाते हों, तो 40-50 आदमी या 2 आदमी या 10 आदमी ऐसे जरूर हैं जो अपने ‘वीसा’ के खत्म हो जाने के बाद भी ठहर जाते हैं।
दोनों तरफ की सरकारें इतनी गंदी हैं कि हरेक को समझ लेती हैं कि वह तो जासूस है और किले में ले जाकर उसको तंग करती हैं।
जासूस क्या ‘वीसा’ की तारीखों को तोड़कर के रह जाएंगे। वह तो अपना ‘वीसा’ अलग से बनवा लेगा, अपना पासपोर्ट अलग से बनवा लेगा। उसके पास तो बहुत-सी करामातें होती हैं, बहुत-से साधन होते हैं। इसके बारे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों की सरकारों को कुछ थोड़ा इन बेपढ़े मामूली इंसानों पर रहम खानी चाहिए और इनको जासूस बनाकर नाहक तंग नहीं करना चाहिए। जासूस तो कोई दूसरे ढंग के होते हैं।
(अगली किस्त कल )