— जाह्नवी सोढ़ा —
आज जब भारत कोरोना की दूसरी लहर की मार झेल रहा है और मोदी सरकार के सात वर्ष पूरे हो गए हैं, तब इस सरकार द्वारा जनित सामाजिक- आर्थिक विपदाओं की गणना की जा रही है पर सबसे दूरगामी असर रखनेवाली विपदा जिसे मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में अप्रत्याशित गति दी है, उसके ऊपर किसी की नजर नहीं जा रही है।
वर्ष 2018 में प्रधानमंत्री मोदी को संयुक्त राष्ट्र के उच्चतम पर्यावरण सम्मान ‘चैंपियन ऑफ द अर्थ’ के लिए चुना गया और उसी साल भारत का स्थान एनवायर्नमेंटल परफारमेंस इंडेक्स में 180 देशों की सूची में 177वाँ था। यानी पर्यावरण संरक्षण के मामले में सिर्फ तीन देशों का कामकाज भारत से खराब रहा। पर इसमें कुछ चौंकानेवाली बात नहीं है।
2014 के आम चुनाव के लिए भाजपा द्वारा जारी घोषणापत्र में पर्यावरण प्रबंधन को ‘उद्योग’ की श्रेणी में रखा गया और उसमें वादा किया गया कि उद्योग लगाने के लिए पर्यावरण मंत्रालय द्वारा मंजूरी की प्रक्रिया को आसान बनाया जाएगा। भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में कोयला और खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों का जिक्र तो था पर जल, जंगल, जमीन का जिक्र नहीं था।
भाजपा ने 2014 के चुनाव में जितने भी वादे किए- दो करोड़ नौकरियां, पेट्रोल के दाम में कटौती, काला धन वापसी; उन सभी वादों में पर्यावरण संबंधी उनका जो वादा था : ‘उद्योग के लिए पर्यावरण को नष्ट करना आसान बनाया जाएगा’ उसको उन्होंने पूरा किया।
2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के कुछ महीने के भीतर ही नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ में स्वतंत्र सदस्यों की संख्या पंद्रह से घटाकर महज तीन कर दी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि 2014 से 2019 के बीच में नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ ने उनके समक्ष पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में उद्योग की मंजूरी के लिए पेश प्रस्तावों में 99.82 फीसद प्रस्तावों को मंजूरी दी गई। इस मामले में यूपीए सरकार का रिकॉर्ड भी कोई बहुत बेहतरीन नहीं था : उनके कार्यकाल में प्रस्तावों को मंजूरी देने की दर 80 फीसद थी। हालांकि 99.82 फीसद प्रस्ताव की स्वीकृति दर हमें जीवन देनेवाले पर्यावरण के खिलाफ खुली युद्ध-घोषणा से तनिक भी कम नहीं है।
सत्ता में आने के एक वर्ष के भीतर मोदी सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जिसे पर्यावरण संबंधी सभी कानूनों की समीक्षा कर संशोधन सुझाने को कहा गया। दूसरे शब्दों में पर्यावरण संबंधी सबसे महत्त्वपूर्ण छह कानूनों को कमजोर करने के उपाय सुझाने को कहा गया। हालाँकि समिति के सुझावों का मुखर विरोध होने पर सरकार पूरी तरह से समिति की सिफारिशों को लागू नहीं कर सकी।
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में पर्यावरण संरक्षण के लिए बने कानूनों और संस्थाओं को कमजोर किया गया।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने बार-बार वन अधिकार कानून-2006 के मामलों में आदिवासी मामलों के मंत्रालय की अनदेखी की। मोदी सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को भी कमजोर करने की कोशिश की। इसके लिए उसने यह बदलाव करने की कोशिश की कि एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का कोई पूर्व जज न करे बल्कि एक पांच सदस्यीय समिति करे जिसमें चार की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा होगी। हालांकि सौभाग्यवश सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस संशोधन पर रोक लगा दी।
मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल पहले कार्यकाल जैसा ही पर्यावरण के लिए विध्वंसक साबित हो रहा है।
एक बार फिर भाजपा ने अपने 2019 के चुनावी घोषणापत्र में ‘वन एवं पर्यावरण’ अध्याय में यह वादा किया कि वह वन व पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया को तेज करेगी और भाजपा ने अपना यह वादा पूरी तरह निभाया है। एनवायर्नमेंट इंपैक्ट एसेसमेंट-2020 (पर्यावरणीय प्रभाव आकलन-2020) का मसविदा जो सरकार लॉकडाउन के बीच लेकर आई वह मूल रूप से सारी मंजूरी की प्रक्रिया को समाप्त करता है और उसके तहत किसी भी उद्योग को किसी भी किस्म के पर्यावरणीय विध्वंस के लिए दंडित करना लगभग असंभव हो जाएगा। हालाँकि देशभर के लाखों युवाओं के डिजिटल प्रोटेस्ट के दबाव में सरकार ने इसके क्रियान्वयन को अस्थायी रूप से रोक दिया है।
एक ऐसे दौर में जब हमारा देश समेत तमाम देश पर्यावरण के नाश के कारण आई महामारी के प्रभाव से जूझ रहे हैं, हमारी नीतियों और विकास के मॉडल पर पुनर्विचार करने की बजाय सरकार उसी महामारी और उसके कारण लगाए जाने वाले लॉकडाउन का उपयोग पर्यावरण संरक्षण कानूनों को कमजोर करने और असम के देहिंग पटकाई, गोवा के भगवान महावीर व मौलेम नेशनल पार्क जैसे पारिस्थितिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील इलाकों में औद्योगिक गतिविधि को बढ़ावा देने में कर रही है।
सरकार आर्थिक विकास की आड़ में और पर्यावरण के नाश के लिए पर्यावरण कानूनों को कमजोर कर रही है।
आत्मनिर्भर पैकेज-2020 के तहत कोयला खदानों की नीलामी हुई है जिसमें भारत के पारिस्थितिक और सामाजिक तौर पर संवेदनशील इलाकों में ठेके दिए गए हैं। वहीं दूसरी ओर जहां 2020 में केवल भारत में वायु प्रदूषण से 1.2 लाख लोग मर गए और दुनिया के 30 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 22 भारत में हैं, सरकार ने भारत में वायु प्रदूषण से लड़ने के लिए बजट को आधा कर दिया है।
हाल ही में दो चक्रवातों तौक्ते और यास से हुई बर्बादी यह साफ संदेश देती है कि जलवायु परिवर्तन और उससे होनेवाली तबाही यह भविष्य की चीज नहीं है बल्कि यह हमारा वर्तमान है।
दुर्भाग्यवश, हमारी सरकार इसको लेकर तनिक भी गंभीर नहीं है और यहां तक कि वह समस्या को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं दिखती है।
2020 अभी तक के अंकित इतिहास में तीसरा सबसे गर्म साल रहा। 2020 की सर्दी 1901 के बाद की दूसरी सबसे गर्म सर्दी रही। हाल में जो बाइडन द्वारा आयोजित क्लाइमेट सम्मिट में 2050 या 2060 तक जो नेट जीरो मिशन की बातें हो रही हैं वे काफी नहीं हैं। खोखली घोषणाओं से कुछ होनेवाला नहीं है। हमें 2030 तक के लक्ष्यों को निर्धारित करना होगा और उन्हें पूरा करने के लिए ठोस योजनाओं की जरूरत है। आने वाला दशक मानव जाति के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दशक होने वाला है। और अगर पर्यावरण विनाश की दिशा को पलटा नहीं गया तो इसके बाद मनुष्य जाति के बचने की संभावना बहुत कम हो जाएगी, पूरी तरह समाप्त भले ना हो।
हम एक जलवायु आपातकाल का सामना कर रहे हैं। आज हम जिस स्वास्थ्य संकट से गुजर रहे हैं उसके पीछे जैव विविधता का नाश और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन है।
इन समस्याओं का समाधान महज स्थानीय अथवा राष्ट्रीय स्तर पर संभव नहीं है। इनके लिए वैश्विक प्रयास की जरूरत है पर अभी हमने ऐसे जटिल अंतरराष्ट्रीय संबंध बना रखे हैं जहां देश राजनीतिक और भूभागीय लाभों के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। हमें बिना देरी किए समन्वय के साथ हस्तक्षेप करने की जरूरत है। और ऐसे में भारत की भूमिका बहुत अहम हो जाती है। प्रकृति पर विजय नहीं पाना है, वह हमारा पोषण करती है; यह प्राचीन भारतीय समझ हो अथवा विकास के वैकल्पिक मॉडल के सवाल पर बातचीत की बेहद समृद्ध परंपरा, प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले आदिवासियों की बड़ी जनसंख्या और साथ ही जनसंख्या में युवाओं की बहुलता ये कुछ ऐसे पहलू हैं जिनके सहारे भारत हमारे ग्रह की पारिस्थितिकी इंटीग्रिटी को बचाने में अहम भूमिका निभा सकता है।
यह भारत को सर्वश्रेष्ठ मानने वाली कोई संकीर्ण समझ नहीं है पर भारत की उन शक्तियों की पहचान भर है जो उसे इस ग्रह को बचाने की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने में सक्षम बनाते हैं। पर हमारे सामने सवाल यह है कि क्या हम इस अवसर को पहचानते हैं और क्या हमारी वर्तमान सरकार के पास यह करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति है। इस सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए यह लगता नहीं कि इनकी इस क्षेत्र में कोई रूचि है।
इसीलिए यह समय इस देश के युवा नागरिकों के आगे आने का है जो इस ग्रह की चिंता करते हैं। समय आ गया है कि हम आगे बढ़कर एकसाथ आएं और अपने ग्रह और मानव जाति को बचाएं।