— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी की किताब का टाइटल ‘लहू बोलता भी है’ पढ़कर शुरू में अटपटा सा लगा, क्योंकि लहू खौलता है, लहू बहता है, लहू के निशान हैं, वगैरहा-वगैरहा के जुमले तो अक्सर सुनने और पढ़ने को मिलते रहे हैं मगर ‘लहू बोलता भी है’ पहली बार पढ़ने को मिला। 477 पन्ने की इस किताब को पढ़कर समझ में आया कि वाकई में यह सुर्खी बहुत ही मौजूं है।
दरअसल इस किताब के ज़रिये शाहनवाज कादरी ने उस तंजीम, ज़हनियत साजिश, प्रचार के, जिसमें हिंदुस्तान के मुसलमानों को मुल्क का गद्दार सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है, उसका माकूल जवाब, जबानदराजी, तल्ख़ी या गप्पबाज़ी से नहीं तवारीख के पन्नों को सबूत के साथ पेश कर दिया है।
आज की हक़ीक़त है कि जब से भाजपा गद्दीनशीन हुई है उसकी सियासत का सारा ताना-बाना हिंदू-मुस्लिम नफ़रत की बिना पर टिका है। वजीरे-आज़म मोदी ने अपने चुनावी प्रचार की शुरुआत ही श्मशान बनाम कब्रिस्तान से की थी। हिंदू-मुस्लिम हिंदुस्तान-पाकिस्तान उनका मुख्य एजेंडा है। कादरी ने किताब की शुरुआत में ही यह किताब क्यों है? में अपने मकसद को स्पष्ट करते हुए लिखा :
“हिंदुस्तान की आज़ादी के ….. साल पूरे हो चुके हैं इतने अरसे बाद भी उन हिंदुस्तानी मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जा रहा है जिन्होंने इस मुल्क की मिट्टी की मौहब्बत में मौतबादिल (विकल्प) रहते हुए भी अपनी खुशी से अपना वतन माना और यहाँ रहना पसंद किया था। मुल्क के लिए उनकी ही वफादारी पर उंगलियां उठाई जा रही हैं और वह भी किसके ज़रिये? जिनका मुल्क की आज़ादी के लिए सौ साल तक चले मुसलसल, ज़द्दोज़हद में कहीं नामोनिशान नहीं था। इस किताब के ज़रिये मेरी कोशिश है कि हमारा मुल्क कौमी एकजहती भाई-चारे मेल-मिलाप और मुल्क में रहनेवालों के तमाम मजाहिब का एहतराम (सभी धर्मों का सम्मान) करते हुए आगे बढ़े और तरक्की करे जिसके ख्वाब हमारे शहीददाने वतन ने देखे थे।”
अक्सर यह हुआ है कि मीनार के कलश को तो हर कोई पहचानता है मगर नींव के पत्थर गुमनामी में पड़े रहते हैं।
हिंदुस्तान की जंगे-आज़ादी के इतिहास में मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद, अशफाकुल्ला ख़ान, हकीम अजमल ख़ाँ, मौलाना हसरत मोहानी, अब्बास तैय्यवी, डॉ. अंसारी, मौलाना अब्दुल बारी जैसे नेताओं के नाम और कुर्बानी से तो सभी वाकिफ़ हैं, परंतु कुर्बानी का इतिहास यहीं खत्म नहीं होता, कादरी ने गुमनामी में पड़े 1192 मुस्लिम देशभक्तों की कुर्बानी के लोमहर्षक इतिहास को सबूतों की बिना पर कलमबंद किया है।
इस काम को पूरा करने के लिए कादरी ने जो खाक छानी, हिंदुस्तान की मुख़्तलिफ लायब्रेरियों, मर्कजों, तंजीमों और लोगों से व्यक्तिगत राफ्ता कायम किया, वह कोई मामूली काम नहीं है।
हालाँकि यह किताब लिखी तो गई थी मुस्लिम देशभक्तों के इतिहास को सामने लाने के लिए, मगर इसमें 1857 से 1947 की जंगे-आज़ादी के मुकम्मल इतिहास को भी उजागर किया गया है।
1857 की जंगे-आज़ादी को अंग्रेजों ने हालाँकि सिपाही विद्रोह या गदर का नाम दिया था, लेकिन यह जंगे-आज़ादी ही थी ….. इसकी शुरुआत की तफ़सील को लिखते हुए कादरी बताते हैं– “फजले हक खैराबादी ने सबसे पहले दिल्ली की जामा मस्जिद से अंग्रेजों के खिलाफ़ ज़ेहाद का फतवा और खुद बहादुर शाह ज़फर के साथ मिलकर इस जंग को परवान चढ़ाया। इस फतवे के बाद पूरे मुल्क का मुसलमान सड़कों पर उतरकर अपनी-अपनी पहुँच के मुताबित जंगे-आज़ादी में हिस्सा लेने के लिए बेताब दिखाई देने लगा। मुल्क का ज्यादातर हिस्सा जंग का मैदान नज़र आने लगा। जंग काबू करने के लिए अंग्रेजों ने आम अवाम को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया।”
अंग्रेज़ इतिहासकार लिखते हैं कि सन 1857 के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने अपने नुमाइन्दे डॉ विलियम से यहाँ के हालात के बारे में मालूम किया। जवाब में विलियम ने जो लिखा वह यह है कि “हिंदुस्तान में मुसलमान बहुत ज्यादा बेदार हैं। जंगे-आज़ादी 1857 में सिर्फ़ मुसलमानों की वजह से ब्रिटिश हुकूमत को इतना बड़ा जानी और माली नुकसान उठाना पड़ा, मौज़ूद वक़्त में हम मुसलमानों पर आसानी से हुकूमत नहीं कर सकते। इनके दिलो-दिमाग से ज़ेहाद का जज़्बा खत्म करना ज़रूरी है।”
मिस्टर थामसन के मुताबिक ब्रिटिश हुकूमत ने हिंदुस्तान से उलेमाओं को खत्म करने की गरज से 14000 उलेमाओं को मौत की खौफ़नाक सजाएं दीं। थामसन ने कबूल किया कि दिल्ली की चाँदनी चौक से खैबर तक जी.टी. रोड पर कोई ऐसा पेड़ नहीं था जिस पर कि उलेमाओं को लटकाकर फाँसी नहीं दी गयी हो।
थामसन के कबूलनामे में यह भी जिक्र है कि मौलानाओं को तांबे से दागा जाता, फिर सूअर की खाल लपेट कर आग में जिंदा जला दिया जाता, लाहौर की शाही मस्जिद के सहन में, जो अंग्रेज़ फौज के कब्जे में थी, फाँसी के 80 फंदे बनाए गए थे, जिस पर हर दिन 80 मौलवियों को लटकाया जाता था और उनकी लाशों को रावी नदी में फेंक दिया जाता था। थामसन जब दिल्ली के किले, जहाँ अँग्रेज़ी फौज का बैरक था, के पीछे बदबू सूंघकर चला गया और देखा कि आग दहक रही है और 40 उलेमाओं को निर्वस्त्र करके टांगा गया है।
अंग्रेजों का गुस्सा इस जंगे-आज़ादी में शामिल मुजाहीदीन और सिपाहियों तक ही महदूद नहीं था बल्कि उनके रिश्तेदारों, औरतों व बच्चों तक को गिरफ्तार करके लालकिले के खूनी दरवाज़े (ब्लडीगेट) से बाहर निकलने को कहा गया। लेकिन बाहर निकलते वक्त उन्हें गोलियों से भून दिया गया जबकि बचे हुए लोगों को तोप से उड़ा दिया।
कादरी ने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना का जिक्र करके इस बात को दिखाया है कि अपने वतन से बाहर किसी मुसलमान का कोई मुकाम नहीं है- “कुछ लोगों ने हिजरत की तहरीक शुरू कर दी जिसके तहत कुछ लोग अपना घरबार छोड़कर अफगानिस्तान हिजरत करने लगे। हिजरत की वजह से खिलाफत आंदोलन में लगे उलमाओं और कांग्रेस के मुस्लिम रहनुमाओं को सदमा लगा। मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद ने 20 जुलाई को उर्दू अख़बार अलहदीस (अमृतसर) में एक फतवा शाया कराया। नतीजतन अफगानिस्तान गए ज्यादातर लोग फिर वापिस अपने मुल्क में अपने घरों पर आ गये।
इन हालात का तस्किरा करते हुए काजी अदील अब्बासी ने तहरीक के खिलाफत में पेज-130 पर लिखा है कि आज़ाद के फतवे के बाद रफ्ता-रफ्ता सब लोग बहुत कुछ खोकर वापस आ गये। कुछ हासिल न हुआ, सिर्फ़ तबाहियां व बर्बादियां। मुसलमाने-हिंद को एक दायमी सबक दे गई कि उनके लिए अपने वतन से बाहर कोई गुंजाइश नहीं है।
इस किताब में मुसलमानों द्वारा मुखतलिफ जमातों, तंजीमों, मर्कजों के ज़रिये वक्त-बेवक्त, अँग्रेज़ी सल्तनत के खिलाफ़, जो मुहिम, जद्दोजहद 90 साल में की गई उसका सिलसिलेवार बड़ी तफसील से तथा उन आंदोलनों का इतिहास बखूबी उकेरा गया है।
कादरी ने उन आंदोलनों का जिक्र करते हुए उनकी पहचान और नामों का इतिहास लिखा है। जैसे–
1.फकीर आंदोलन, 2. पागल पंथी आंदोलन, 3. करबंदी आंदोलन, 4. मुबारिजू द्दौला की बगावत 5. वलीउल्लाही आंदोलन, 6. नीलबगान आंदोलन, 7. असहयोग आंदोलन, 8. अहरार मूवमेंट, 9. भारत छोड़ो आंदोलन, 10. मोपला आंदोलन, 11. वहावी मूवमेंट, 12. खिलाफत आंदोलन, 13. रेशमी रूमाल तहरीक, 14. गदर मूवमेंट, 15. खुदाई खिदमतगार मूवमेंट, 16. स्वदेशी आंदोलन, 17. होमरूल मूवमेंट, 18. मेरठ बगावत के एक महीने बाद, 19. बिहार शरीफ-नवादा बगावत, 20. गया में नजीबों और सिपाहियों का बगावत, 21. चम्पारण बगावत, 22. मुजफ्फरपुर बगावत, 23. जमात-ए-उलमा-ए-हिंद और उलेमाओं के आंदोलन, 24. ऑल जम्मू एण्ड कश्मीर मुस्लिम कान्फ्रेंस, 25. अंजुमने-वतन बलूचिस्तान, वगैरहा वगैरहा।
हालाँकि इस किताब का मकसद आज़ादी की जंग में मुसलमानों की कुर्बानियों को उजागर करना है, परंतु कादरी एक और महत्त्वपूर्ण मुद्दे की ओर भी पाठक का ध्यान खींचते हैं। वो लिखते हैं कि- “जंगे-आज़ादी की कहानी में इतिहासकारों ने सिर्फ़ फिरकापरस्ती की बुनियाद पर ही नहीं बल्कि ख्यालाती (वैचारिक) नज़रिये से भी भेदभाव किया है।” इसकी नजीर देते हुए वो डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्रदेव और जयप्रकाश नारायण, जिनका भी कद आंदोलन की पहली कतार के नेताओं से अगर बड़ा नहीं, तो कम भी नहीं था, परंतु इतिहास की किताबों में जो जगह उनको मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिली।
किताब का सबसे मार्मिक वर्णन मुल्क के बंटवारे के बाद दिल्ली में आजादी का जब जश्न मनाया जा रहा था, तो वहाँ गांधी जी मौज़ूद नहीं थे। जब गांधीजी को जश्न में शामिल होने का दावतनामा दिया गया तो उन्होंने कहा कि “जिसका जिस्म कटता है, वह खुशी नहीं मनाता। इसलिए मुझे इन बेसहारा लूले-लंगड़े और अंधों (दंगों के शिकार) के पास ही रहने दो। मेरी खुशी और जश्न यही लोग हैं।”
कादरी अपनी किताब में हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे की पूरी तफसील का जिक्र करते हैं परंतु उस मौके पर उनसे भी और इतिहासकारों की तरह चूक होती है। बंटवारे के प्रस्ताव पर कांग्रेस पार्टी की बैठक में महात्मा गांधी, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान, जयप्रकाश नारायण, डॉ लोहिया बंटवारे का विरोध करते हैं, उसको कलमबंद करना कादरी भूल जाते हैं।
इस किताब की एक बहुत बड़ी खूबी इस बात में है कि देवनागरी लिपि में लिखी गई किताब को हिंदीभाषी भी पढ़ सकता है तथा फ़ारसी अल्फ़ाज़ों तथा लहजे की बिना पर उर्दू जाननेवाला बिना किसी दिक्कत के इसको समझ सकता है। हिंदी-उर्दू की मिलीजुली हिंदुस्तानी भाषा के कारण इसकी व्यापकता बहुत बढ़ गई है।
इस किताब से मेरी एक शिकायत भी है कि इसकी जिल्दसाजी इतनी कमज़ोर है कि पंखे के नीचे पढ़ने पर इसके पन्नों के शिराजे बिखर जाते हैं। शाहनवाज कादरी के साथ इनके एक सहयोगी लेखक कृष्ण कल्कि भी हैं, उनका अलग से लिखा गया लेख “मुस्लिम हिस्सेदारी को नज़रअंदाज़ करने की ज़ेहनियत” पढ़ने पर ‘गागर में सागर’ वाली कहावत आँखों के सामने आ जाती है।
बाहरी रूप में यह किताब मुसलमानों की कुर्बानियों को उजागर करती नज़र आएगी। मगर इसके लेखक महज एक विद्वान् तक ही सीमित न होकर, इन्कलाबी, मुल्कपरस्त, सोशलिस्ट तहरीक में पूरी मुस्तैदी के साथ शिरकत करनेवाले रहे हैं। सोशलिस्ट नेता राजनारायण जी की शार्गिदी के कारण फ़ख्र के साथ ‘लोकबंधु राजनारायण के लोग’ मिशन चलाते हैं। मुझे भी दो बार इनके साथ जेल जाने का मौका मिला है। पहली बार बीएचयू के छात्रों द्वारा दिल्ली में राष्ट्रपति भवन के घेराव के सिलसिले में तिहाड़ जेल में बंदी जीवन तथा शिमला के रिज मैदान पर जम्हूरियत में बराबरी के हकूक को लेकर किये गये प्रदर्शन पर गिरफ्तार होकर हिमाचल की नहान जेल का कारावास।
इस किताब में कहीं भी गलतबयानी, कौमपरस्ती, तरफदारी की बू नज़र नहीं आती। इस किताब की ये सबसे बड़ी खूबी है।