— किशन पटनायक —
प्रगतिशील बुद्धिजीवी समूह जब भी सांप्रदायिकता बनाम सेकुलरवाद की चर्चा करते हैं तो उनका एक प्रतिपादन यह रहता है कि धर्म और ईश्वर को मानने से सांप्रदायिकता पैदा होती है। यह ज्यादा से ज्यादा एक आंशिक सत्य हो सकता है और फिर भी इससे सांप्रदायिकता का कोई प्रतिकार नहीं निकलता है। आपके ‘सेकुलर सेंटर’ (लखनऊ का सेकुलर सेंटर) का सदस्य होने के लिए एक प्रारंभिक शर्त है- धर्म और ईश्वर को न मानना। इस शर्त पर सेकुलर सेंटर थोड़े से निरीश्वरवादी (एथिस्ट) और बुद्धिवादियों का संगठन होकर रह जाएगा। क्या ये लोग ईश्वर के विरुद्ध या मंदिर-मस्जिद के विरुद्ध कोई व्यापक सामाजिक आंदोलन पैदा कर पाएंगे? अभी तक यह देखा गया है कि यह न संभव है और न व्यावहारिक है।
एक व्यक्ति के तौर पर मैं भी निरीश्वरवादी हूँ लेकिन मैं जानता हूँ कि इसमें मुझे सिर्फ एक बौद्धिक संतोष मिलता है। इसको एक मुद्दा बनाकर मैं कोई सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन खड़ा नहीं कर सकता।
निरीश्वरवादियों का एक क्लब बन सकता है या आश्रम बन सकता है जो अपने में एक अच्छी चीज होगी। लेकिन वह एक सांप्रदायिकता विरोधी सामाजिक आंदोलन नहीं बन सकता। भारतीय समाज में ईश्वर को न मानना आसान है लेकिन धार्मिक समाज से मुक्त होना तथा उसकी प्रथाओं और रूढ़िवाद से मुक्त होना आसान नहीं है। हम अकसर ऐसे व्यक्तियों को देखते हैं जो मौखिक तौर पर धर्म तथा ईश्वर को नकारते हैं लेकिन निजी आचरण में यानी पारिवारिक कार्यकलाप में जनेऊ, जातिगत शादी, पुरोहित और श्राद्ध आदि कर्मकांड को चलाते हैं। सेकुलर सेंटर के विधान में यह स्पष्ट नहीं है कि इसके सदस्य जनेऊ और जातिप्रथा के विरुद्ध कोई सामाजिक आंदोलन करेंगे या नहीं?
धार्मिक सांप्रदायिकता या धार्मिक रूढ़िवाद ईश्वर में विश्वास से पैदा नहीं होता है। यह तो सामाजिक संकीर्णता और रूढ़िवाद की उपज है। असगर अली इंजीनियर के लेखों को पढ़ने से लगता है कि वे सुलझे हुए गैर-सांप्रदायिक समाज सुधारक हैं और मुस्लिम सांप्रदायिकता के मुकाबले में उनकी बातें प्रभावी होंगी लेकिन असगर अली इंजीनियर अल्लाह और कुरान दोनों को मानते हैं। क्या सेकुलर सेंटर में ऐसे आदमी लिये जाएंगे? जिन्ना का व्यक्तित्व भौतिकवादी और निरीश्वरवादी था लेकिन मौलाना आजाद का व्यक्तित्व धार्मिक था।
आपके सेंटर का यह भी कहना है कि धर्म और नैतिकता का कोई तार्किक संबंध नहीं है क्योंकि नैतिकता धर्म से भी पुरानी है। इसकी प्रतिक्रिया में कोई कह सकता है कि विज्ञान और नैतिकता का भी कोई तार्किक संबंध नहीं है क्योंकि नैतिकता विज्ञान से बहुत अधिक पुरानी है। असलियत यह है कि सामाजिक विकास में नैतिकता के साथ धर्म का एक ऐतिहासिक संबंध रहा है। उसी तरह सामाजिक सुधार और धर्म का ऐतिहासिक संबंध आधुनिक विज्ञान से रहा है।
निष्कर्ष यह है कि भौतिकवादी तथा निरीश्वरवादी आंदोलनों से सांप्रदायिकता पर कोई रोक नहीं लग सकती, जबकि समाज-सुधार के आंदोलन समाज को उदार बनाते हैं। सांप्रदायिकता को रोकते हैं।
राजा राममोहन राय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर से लेकर विवेकानंद, महात्मा फुले, आंबेडकर और गांधी ने भी जो किया उससे हिंदू समाज उदार बन गया था और सांप्रदायिकता का प्रभाव कमजोर हो गया था। उनका आंदोलन धर्म विरोधी आंदोलन नहीं था, समाज सुधार आंदोलन था।
हिंदू समाज में समाज सुधार के मुख्य मुद्दे जाति प्रथा और औरत का अधिकार हैं। इनसे संबंधित प्रथाओं के खिलाफ सामाजिक आंदोलन तेज करने की इच्छाशक्ति 1947 के बाद उन समूहों में कभी नहीं रही जो अपने को प्रगतिशील, सेकुलर, भौतिकवादी उपाधियों से विभूषित करते हैं। मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूँ कि अपने को सेकुलर कहनेवाले लोग कैसे अपने को समाज-सुधार के दायित्व से मुक्त कर लेते हैं? या हो सकता है कि समाज सुधार के दायित्व से पलायन करने के लिए कुछ लोग अपने को ईश्वर या धर्म विरोधी घोषित कर देते हैं। सेकुलर सेंटर तब सार्थक होगा जब उसके द्वारा जातिवाद और जाति-प्रथा के विरुद्ध तथा नर-नारी समानता के लिए कोई सामाजिक आंदोलन शुरू किया जाएगा।
समाज को उदार बनाना सांप्रदायिकता के विरुद्ध सबसे प्रभावी कदम है। उससे यह होगा कि प्रत्येक समाज अपने अंदरूनी रूढ़िवाद के खिलाफ लड़ेगा न कि दूसरों के धार्मिक समाज के खिलाफ। यह एक सकारात्मक आंदोलन होगा जबकि सेकुलरिज्म का आंदोलन एक आंदोलन भी नहीं है, उसका सिर्फ एक नकारात्मक रूप ही दिखाई देता है।
सांप्रदायिकता की धारा को कमजोर बनाने के लिए कुछ सकारात्मक आंदोलनों को मजबूत बनाना होगा। सांप्रदायिकता एक धार्मिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि धार्मिक संकीर्णता के आधार पर एक राजनीतिक प्रक्रिया है। राजनीति में ऐसा एक निहित स्वार्थ उभर रहा है जो इसकी कोशिश करता रहता है कि समाज में रूढ़िवाद और धार्मिक संकीर्णता बढ़े। जब राजनीति में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आंदोलन (उदारवादी या क्रांतिकारी आंदोलन) नहीं रह जाते हैं तब सांप्रदायिकता के आधार पर चलनेवाली राजनीति ही मुख्य राजनीतिक धारा रह जाती है। भाषावादी और नस्लवादी तथा जातिवादी अलगाव के आधार पर चलनेवाली राजनीति भी सांप्रदायिकता की कोटि में आती है। सांप्रदायिकता धर्म पर आधारित अलगाव है, भाषागत अलगाववाद भाषा पर आधारित है।
भारतीय समाज में आजादी के बाद भाषा को लेकर, संस्कृति को लेकर, सामाजिक समस्याओं को लेकर ऐसा कोई सकारात्मक आंदोलन नहीं चल रहा है जिससे औसत नागरिक प्रभावित हो। सामाजिक मनुष्य को एक सामूहिक पहचान चाहिए। इस प्रकार की रागात्मक सामूहिक पहचान धर्म, जाति, कबीला, भाषा तथा राष्ट्र के साथ होती है। जब राष्ट्र के प्रति वफादारी प्रमुख रहती है तब क्षेत्रीयता, जातीयता तथा भाषागत अलगाव कमजोर हो जाते हैं या राष्ट्रीय हित के अनुरूप अपने अंदर सुधार लाकर मर्यादित हो जाते हैं।
अठारहवीं सदी के यूरोप में राष्ट्रवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण दूसरे प्रकार के अलगाव गौण हो गए। सोवियत रूस और साम्यवादी चीन में अंदरूनी विभिन्नता को मर्यादित करने के लिए राष्ट्रवाद को मजबूत बनाया गया। साथ-साथ सामाजिक सुधार, धार्मिक सुधार और आर्थिक सुधार तथा सांस्कृतिक विकास भी इस ढंग से किया गया, जिससे राष्ट्र के प्रति वफादारी सर्वोपरि हो। भारत में यह कुछ नहीं हुआ। भारतीय मनुष्य अपने को भावना के स्तर पर किस समूह के साथ जोड़े?
भारत के बुद्धिजीवियों ने खास करके प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने जान-बूझकर राष्ट्रवाद को कमजोर किया है। पाकिस्तान से लड़ाई के संदर्भ को छोड़कर बाकी सारे मौकों पर राष्ट्रवाद को एक संकीर्ण और खतरनाक भावना के तौर पर नकारा गया है। यहाँ तक कि अपने अतीत के गौरव का उल्लेख करना, अपनी भाषाओं का विकास चाहना प्रतिगामी और संकीर्णता मान लिया गया है। हम अगर एक राष्ट्रीय संस्कृति की बात करेंगे, राष्ट्रीय भाषा की बात करेंगे तो प्रगतिशील और तर्कवादी लोग हम पर संदेह करने लगेंगे।
विडंबना यह है कि पिछले चार दशकों में प्रगतिशील समूह भारतीय मनुष्य को एक अराष्ट्रीय और समाजविहीन प्राणी के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश करता आया है। सिर्फ सांप्रदयिकता की राजनीति करनेवाले ही औसत नागरिक के राष्ट्रप्रेम को, धार्मिक लगाव को या भाषा और संस्कृति को मान्यता देते हैं। अगर हम लोग सांप्रदायिकता के साथ दूसरे प्रकार के अलगाववाद के बढ़ते कदमों को रोकना चाहते हैं तो इन पुरानी गलतियों को सुधारना पड़ेगा।
भारतीय मनुष्य को एक धार्मिक समाज देना होगा, जो रूढ़िवाद, जाति-प्रथा और औरत पर अत्याचार जैसी संकीर्णताओं से मुक्त हो। उसको एक भाषा देनी होगी जिसका विकास वह खुद कर सकेगा और जिस पर वह गर्व भी करेगा कि उसकी अपनी भाषा है। उसको एक संस्कृति देनी होगी जो आयातित नहीं होगी बल्कि उसके अपने अतीत पर आधारित होगी।
भाषा एक अत्यधिक महत्त्व का सवाल है। इसके दो कारण हैं- एक, भाषा संस्कृति का तथा बौद्धिक विकास का माध्यम है; दो, भाषा सामूहिक भावना का एक आधार है। हमारे सेकुलर लोग सोचते हैं कि भारतीय मनुष्य को सांस्कृतिक विकास और बौद्धिक विकास में हिस्सेदार बनाए बगैर, सिर्फ यह उपदेश देकर कि तुम ‘ईश्वर को छोड़ो’, ‘धर्म को छोड़ो’, ‘इतिहास को छोड़ो’ वे गैर-सांप्रदायिक बना देंगे। यह एक हास्यास्पद कोशिश है।
भारतीय भाषाओं में न विज्ञान, न दर्शन, न इतिहास का अनुसंधान या वाद-विवाद होता है। अनुसंधान और विवेचन के स्तर पर जो कुछ होता है वह नकलचियों की अंग्रेजी में होता है। अनपढ़ों की बात तो छोड़ दीजिए, पढ़े-लिखों को भी हम दर्शन, विज्ञान और इतिहास के वाद-विवादों से बहिष्कृत करके रखते हैं। तीन हजार साल से हमारे देशवासियों को जो भाषा मिली थी उससे उनको वंचित करने के बाद, अपने इतिहास, संस्कृति और भाषाओं के बारे में उनके मन में एक गहरी हीन भावना बैठा देने के बाद उनके चरित्र को गैर-सांप्रदायिक बनाने में हम कैसे सफल हो सकते हैं?
भारतीय मुनष्य एक मशीन नहीं है कि उसको आदेश देकर उसके दिमाग को बदल दिया जाएगा। सांप्रदायिकता विरोधी कार्यक्रम दिमाग बनाने का, भावनाएँ बनाने का एक सांस्कृतिक कार्यक्रम होना चाहिए- एक ऐसा सांस्कृतिक कार्यक्रम जिसमें परंपरा के गलत मूल्यों को छोडक़र, अच्छे मूल्यों को पकड़कर आधुनिक विज्ञान तथा काल के प्रवाह को स्वीकृति देकर नए मूल्य और नए संबंधों को प्रयोग के द्वारा स्थापित किया जाए।
इस तरह का प्रयत्न भारतीय मनुष्य के भावनात्मक और बौद्धिक गुणों को विकसित करेगा। इस लंबी और सृजनात्मक प्रक्रिया को चलानेवाले लोग ही सांप्रदायिकता तथा अन्य प्रकार के अलगाववाद को रोक सकेंगे।
भाषा एक भावनात्मक साधन है। भारतीय भाषाओं का अगर विकास होता, उनके माध्यम से एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक पहचान बनती। हम लोग अपनी भाषाओं को विज्ञान और दर्शन का माध्यम नहीं मानते हैं। इसलिए हमारी भाषाएँ सिर्फ दो प्रकार के कामों के लिए व्यवहृत हो रही हैं (1) उत्तेजना फैलाने के लिए (2) भौगोलिक पहचान के लिए। गंभीर विवेचन के काम से बहिष्कृत होकर हमारी भाषाएँ सेक्स और हिंसा की उत्तेजना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनी हुई हैं। इसलिए इन भाषाओं का इस्तेमाल करने वाले लोग आसानी से हिंसक और क्रूर बनाए जा सकते हैं।
हमारी भाषाओं के माध्यम से संस्कृति निर्माण का काम बंद हो गया है। इसलिए उनकी उपयोगिता भौगोलिक पहचान के लिए ही रह गई है। बंगालियों का अधिकार क्षेत्र कहाँ होगा। असमियों का अधिकार क्षेत्र कहाँ होगा- इसी प्रकार के विभाजन के काम में ही हमारी भाषाएँ लगती हैं।
आसपास के या बाहर से आनेवाले समूहों को अपनी भाषा की गतिशीलता के द्वारा अपने साथ शामिल कर लेने की ताकत बांग्ला भाषा में नहीं रह गई क्योंकि बंगालियों ने अंग्रेजी की दासता स्वीकार कर ली। अगर भाषा का इस्तेमाल भौगोलिक पहचान के लिए है तो गोरखालैंड का बंगाल से अलग होना भी तार्किक माँग है। नेपाली और बाँग्ला दोनों भाषाएँ विज्ञान और दर्शन के लिए अप्रासंगिक मानी जाती हैं। दोनों अंग्रेजी की दासी हैं। इसी प्रकार भाषा, जो एक गतिशील संस्कृति और उदात्त भावनाओं का माध्यम हो सकती थी, मौजूदा भारत में संकीर्णता और गुलामी की भावनाओं का माध्यम बनी हुई है।
पशु और मनुष्य में, सभ्य और असभ्य में भाषा एक निर्णायक फरक है। सभ्य मनुष्य भाषा के माध्यम से ही प्रगति करता है, जिसकी भाषा अपंग है, उसका सांस्कृतिक या वैज्ञानिक विकास नहीं हो सकता। क्या हमारे सेकुलर लोग साचते हैं कि बिना सांस्कृतिक विकास के सांप्रदायिकता रुक सकती है? क्या वे सोचते हैं कि अंग्रेजी के माध्यम से औसत भारतीय मनुष्य का सांस्कृतिक विकास हो सकता है?
मेरा मानना है कि (अपने को सेकुलर कहने वालों से मेरी असहमति का बिंदु यही है ) एक सकारात्मक सांस्कृतिक आंदोलन के द्वारा ही सांप्रदायिकता और अलगाववाद को रोका जा सकता है।
इस सांस्कृतिक आंदोलन के तीन मुख्य मुद्दे होंगे– (1) जाति-प्रथा के विरुद्ध आंदोलन (2) नर-नारी समता का आंदोलन (3) भारतीय भाषाओं को विज्ञान, दर्शन आदि के विवेचन का एकमात्र माध्यम बनाने का अभियान। इसके अच्छे परिणाम दीर्घकाल बाद होंगे, यह आशंका गलत है। हमारे सारे सेकुलर लोग अगर इस काम में लग जाएंगे तो इस आंदोलन की प्रारंभिक तीव्रता से ही सांप्रदायिकता कमजोर हो जाएगी।
पिछले चार दशकों से ये लोग सांप्रदायिकता को रोकने का सस्ता और आसान उपाय (शार्टकट) और नकारात्मक तरीका ढूँढ़ रहे हैं। आपके जरिये उनसे मैं निवेदन करता हूँ कि नकारात्मक उपायों को छोड़ें, ‘सांप्रदायिकता बढ़ गई, बढ़ गई’ चिंता कर भय का वातावरण पैदा करना छोड़ें और एक विराट, सकारात्मक सांस्कृतिक आंदोलन के सारथी बनें। जाहिर है कि राष्ट्रीय के आधार पर ही भारत में एक सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा हो सकेगा।
(लखनऊ के सेकुलर सेंटर की ओर से ‘सांप्रदायिकता की समस्या’ पर 11-12 अक्टूबर 1986 को आयोजित अखिल भारतीय परिसंवाद में पढ़ा गया लेख)
अच्छी पत्रिका.