(देश में इस वक्त जो हालात हैं और जो राजनीतिक-सामाजिक चुनौतियां दरपेश हैं उनके मद्देनजर सभी संजीदा एवं संवेदनशील लोग हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई पाटने तथा सौहार्द का रिश्ता मजबूत व जनव्यापी बनाने की जरूरत शिद्दत से महसूस करते हैं। इस तकाजे की एक समझ और दृष्टि बने, इस मकसद से डॉ राममनोहर लोहिया का 3 अक्टूबर 1963 को हैदराबाद में दिया गया भाषण बहुत मौजूं है। यह भाषण ‘हिंदू और मुसलमान’ शीर्षक से छपता रहा है। हमने इसे आईटीएम यूनिवर्सिटी, ग्वालियर से प्रकाशित पुस्तिका से लिया है, जिसमें लोहिया का एक और प्रसिद्ध प्रतिपादन ‘हिंदू बनाम हिंदू’ भी संकलित है।)
अब यह देखना है कि शेख अब्दुल्ला के साथ कायदा-कानून बरता गया है या मनमानी चली। मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि उनके साथ मनमानी हुई। मुझे इस बात का जिक्र करने की कोई जरूरत नहीं कि वे आदमी अच्छे हैं या बुरे, देशभक्त हैं या देशद्रोही हैं।
अभी मैं खाली इस बात को छेड़ता हूं कि हिंदुस्तान में चोर को भी, डाकू को भी, देशद्रोही को भी कायदा-कानून मिलना चाहिए। उसके साथ मनमानी नहीं करनी चाहिए। मैं आपको भी आगाह कर देता हूं कि अगर आप किसी पुलिस को किसी चोर के साथ गैरकानूनी बरताव करते देखो तो दखल देना, डरना नहीं, वरना पुलिस को आदत पड़ जाती है।
आज चोर के साथ जैसा बरताव करती है, कल वैसा ही साहूकार के साथ शुरू कर देती है, इसलिए कायदे-कानून की सरकार चलानी है। जब मैं देखता हूं कि हिंदुस्तान में हथकड़ियां पहनाकर कैदियों को ले जाते हैं तो बहुत बुरा लगता है। भले लोग तो हथकड़ी छुपाकर रखते हैं। हथकड़ी पहनाना जरूरी ही है तो छुपाकर ले जाओ। हथकड़ी ही नहीं पहनाते हैं, कमर में रस्सी बांधते हैं और फिर सड़क पर मारपीट भी करते हैं।
पहले तो मैं दखल दिया करता था। अब कहां-कहां दखल देने जाऊं। हर चीज में दखल देता हूं तो फिर लोग कहने लग जाते हैं, देखो यह तो सबसे लड़ना शुरू कर देते हैं। लेकिन आप लोग जो नौजवान लोग हो, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि जब मैं आप की उमर का था, तब सड़क पर थप्पड़ लगते हुए देखकर मुझे बुरा लगता था और जो थप्पड़ मारता था, उसमें दखल देना मैं अपना कर्तव्य समझता था। एक दफा अगर हमारे सड़क के और शहर के बरताव बिगड़ जाते हैं तो फिर वह बिगड़ाव बहुत दूर तक चला जाता है।
खैर! मैं चाहता हूं कि मुझे खान अब्दुल गफ्फार खां की रिहाई मांगने का हक रहे। वे पाकिस्तान की जेल में हैं। मुझे वह हक तभी मिलता है जब हिंदुस्तान की जेल में बंद शेख अब्दुल्ला की रिहाई की मांग करूं। ऐसा नहीं हो सकता कि यहां तो चुप रह जाओ और वहां खाली मांग करो।
मैं नहीं जानता कि मेरी आवाज पाकिस्तान में पहुंचती है या नहीं पहुंचती है, लेकिन कभी न कभी पहुंचेगी। कब तक लोग दबाकर रखेंगे। तब लोग सोचेंगे कि यह आदमी है, यह कुछ सच्चा आदमी लगता है, यह तो इंसाफ पसंद करता है। इंसाफ के लिए आदमी को खड़ा होना चाहिए, जहां भी हो।
खान अब्दुल गफ्फार खां को और शेख अब्दुला को मैं एक सतह पर नहीं रखता हूं। कहीं लोग गलत न समझ बैठें। खान तो बहुत बड़ा आदमी है। उऩका क्या मुकाबला है शेख के साथ। यहां कोई बड़े और छोटे का सवाल नहीं। यहां सिर्फ अमन और कायदे-कानून का सवाल है कि आदमी जो भी हो, छोटा हो, बड़ा हो, उसके साथ कायदे-कानून का सुलूक होना चाहिए। शेख अब्दुल्ला ने कभी भी काश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की बात नहीं की, जहां तक मुझे मालूम है। उन्होंने जो कभी मांग की थी और मैं समझता हूं कि जिस ढंग से उन्होंने की वह गलत मांग थी, वह यह कि काश्मीर को अलग कर दिया जाए। उसे हिंदुस्तान-पाकिस्तान से अलग, स्वतंत्र देश बना दिया जाए। ऐसी मांग उन्होंने की थी।
लेकिन मैं आपको एक इत्तला देना चाहता हूं। सुबूत तो शायद इसके रह भी नहीं गए होंगे, लेकिन यह बात है बिल्कुल सही। कई आदमियों से मैंने सुनी है। हो सकता है कि शेख अब्दुल्ला खुद इसको कहते हुए डरें, लेकिन मुझे काहे का डर है। जब शेख अब्दुल्ला ने स्वाधीन काश्मीर की बात की थी काश्मीर में तब थोड़ा-बहुत उकसावा उनको हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री से मिला था। यह आदमी बड़ा कातिल आदमी है। दूसरों को फंसाकर अलग खड़ा हो जाता है। खैर, अब शेख जैसे आदमी कहते हैं तो सजा भुगतते हैं। हमारे जैसे आदमी ऐसी बेवकूफी नहीं भी करते हैं तब भी भुगतनी पड़ती है क्योंकि कायदा बिगड़ चुका है।
मैं आपको एक बात बता देता हूं। मुंह छिपाने की चीज तो है ही वह। एक आदमी आया था अभी। वह कौन था, इसको छोड़ो। उसने शेख के बारे में मुझसे कुछ बात की। समझाना चाहा तो मैंने उसे साफ-साफ कह दिया। एक चीज अलबत्ता कुछ अच्छी लगी मुझे उसमें कि शेख ने किसी आदमी को अपनी मौजूदा राय बताई। वह बहुत अच्छी तो नहीं थी, बुरी भी नहीं थी, लेकिन उसमें कुछ शब्द ऐसे थे जिन्हें मैं दुहरा देना चाहता हूं। उन्होंने कहा, अलबत्ता मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा कि जिससे हिंदुस्तान के लोगों को, जिसमें काश्मीर के लोग शामिल हैं, नुकसान हो। यह छोटी-सी बात है लेकिन एक मानी में बहुत बड़ी बात है। ये शेख के शब्द थे ऐसा मुझे बताया गया।
यह यह भी मैं आपसे कह दूं कि जब लोग हस्ताक्षर कराने आए शेख अब्दुल्ला की रिहाई के लिए तो मैंने हंसते हुए कहा कि क्या प्रधानमंत्री ने अब रिहाई के लिए भी आंदोलन शुरू कर दिया है? मैं भी जानता हूं, कहां कैसे मामले चलते रहते हैं। जो हो, मैंने कहा, मैं तो सही चीज पर दस्तखत करूंगा। यह मैं जानता था कि यह सही चीज है, अच्छी चीज है, दस्तखत करना है, चाहे उसके लिए कहीं से भी इशारा आया हो, लेकिन फिर मैंने कहा कि शेख से जाकर कह देना कि पहचान तो हमारी बहुत पुरानी है, चली आ रही है, एक-दूसरे को थोड़ा जानते हैं, कई ढंग से जाना है, अच्छे ढंग से जाना है, बुरे ढंग से जाना है, क्योंकि कुछ चीजें हुई थीं। सन 46-47 में शेख को, जब उन्होंने तीन-पांच की, तो मैंने भी कहा होगा कि असली हैसियत देखकर बातचीत करो।
मैंने शेख से कहला भेजा है कि शेख बड़ा वक्त बीत गया, तुम्हारा भी वक्त बीता है और हमारा भी वक्त बीता है, तुमने बहुत कोशिश की कि अपने दोस्त के भक्त बन करके, सरकार के ओहदों पर रह करके जनता का भला करो, उसका मजा तो तुमने चख लिया, अब आगे से तुम यह संकल्प करो, कि तुम गद्दी पर बैठने की किसी तरह की लालच नहीं करोगे। फिर दूसरा संकल्प करो कि अगर रिहाई हो गई तो हम हिंदुस्तान के हिंदू-मुसलमानों का मन जोड़ने के लिए गद्दी से दूर रहकर पूरा काम करेंगे और उसके जरिए से अगर हो सका तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान के महासंघ को बनाने की भी कोशिश करेंगे। पता नहीं यह बात वहां तक पहुंच पाई या नहीं।
(कल अगली किस्त )