समाजवादी साधक साने गुरु जी

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साने गुरुजी (24 दिसंबर 1899 - ‌11 जून 1950)
मुख़्तार अनीस (8 जून 1943 – 30 मार्च 2021)

— मुख्तार अनीस —

(समाजवादी साधक साने गुरुजी ने देश के स्वाधीनता आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। मराठी साहित्य में भी उनका अप्रतिम योगदान है। राष्ट्र सेवा दल की स्थापना करके उन्होंने समाजवादी मूल्यों के लिए समर्पित नई पीढ़ियों को तैयार करने के काम की नींव डाली। साने गुरुजी पर मुख्तार अनीस का यह लेख सामयिक वार्ता के दिसंबर 2003-जनवरी 2004 के अंक में प्रकाशित हुआ था।)

ह पंक्ति “मानवता पर प्रेम की वर्षा करना मनुष्य का सच्चा धर्म है” साने गुरु जी की  एक कविता से ली गयी है जिसे उन्होंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया था। समाजवादी विचारक एवं नेता, मराठी के मूर्धन्य साहित्यकार, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, दलितों के त्राता, महाराष्ट्र के खानदेश संभाग में खेतिहर मजदूरों एवं श्रमिकों के संघर्षों के अगुआ, राष्ट्र सेवादल के संस्थापक, साने गुरुजी एक समाजवादी साधक थे। उन्होंने अपने लिए न कुछ किया और न अपने लिए जिया। उन्होंने जो कुछ भी किया वह देश और समाज के लिए किया। इसके पश्चात भी उन्हें शिकायत थी कि उन्होंने दरिद्रनारायण के लिए कुछ नहीं किया।

ऐसे त्यागी और अपरिग्रही का जन्म 24 दिसंबर,1899 को रत्नागिरी जिले के पालगड क्षेत्र में एक किसान के घर हुआ, जो भाऊराव के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्हें स्वदेशी आंदोलन में छह माह की सजा हुई। साने गुरुजी की माता यशोदाबाई एक निर्मल हृदय महिला थीं जो अपने बच्चों को सच्चरित्र एवं निर्भय बनाना चाहती थीं। वे अपने घर के सेवक के साथ भी पुत्रवत व्यवहार करती थीं। वे अपने बच्चों को शिक्षा देती थीं कि प्रेम की वर्षा से बेगाने को भी अपना बना लें। साने गुरुजी के पिता भाऊराव बच्चों को प्रातः उठाते और उन्हें रामायण एवं महाभारत के श्लोकों का अध्ययन कराते थे।

पांडुरंग सदाशिव साने का जन्मस्थल पालगड एक छोटा-सा गाँव था। पालगड का प्राकृतिक दृश्य अत्यंत मनोहारी था। यहां की हरी-भरी घाटियां लुभावनी थीं। पांडुरंग साने ने एक बार जब पालगड को छोड़ा तो मुश्किल से यहां आ सके किंतु उनके कविसुलभ हृदय में इसकी याद सदा बनी रही, जो कविता के रूप में प्रस्फुटित होती रहती थी। उन्हें ममता की मूर्ति अपनी माता की याद सदा आती रही जिसने हृदय एवं मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला था। साने गुरुजी ने बारह वर्ष की आयु में प्राइमरी शिक्षा पूरी की। इसी दौरान उनकी माता की मृत्यु हो गई। पालगड से 12 किलोमीटर की दूरी पर दापोली तहसील स्थल पर साने गुरुजी की सरकारी हाईस्कूल में शिक्षा प्रारंभ हुई। हाईस्कूल की शिक्षा उन्होंने घोर आर्थिक संकट एवं संघर्षों के मध्य की। अपने एक मित्र के माध्यम से वे उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए पुणे गये।

पुणे का वातावरण राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत था। पांडुरंग ने रस्किन और टॉलस्टॉय का अध्ययन किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी की रचनाओं का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। युवा पांडुरंग के मस्तिष्क पर राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा स्वदेशी भावना का ऐसा रंग चढ़ा कि वे उसी के हो गए। पुणे में उनके मित्रों की एक मंडली बन गई जो उन्हें ‘साने’ के नाम से जानने लगी। एसपी कॉलेज के इतिहास के अध्यापक प्रोफेसर पोतदार ने उन्हें लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। फलतः अल्प आयु में ही उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले की जीवनी लिखी। इस पुस्तक की प्रशंसा हुई और उनको पुरस्कार दिया गया। उन्होंने एक लघु पुस्तक महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक लोकहितकारी पर भी लिखी जिस पर उन्हें प्रशस्ति पत्र मिला।

साने गुरुजी ने बीए की परीक्षा संस्कृत एवं मराठी में उत्तीर्ण की। उनकी लेखनी सशक्त और आकर्षक थी। प्रो. पोतदार उन्हें निरन्तर उत्साहित करते रहते थे। साने ने दर्शनशास्त्र में एमए की डिग्री प्राप्त करने के लिए अमलनेर के तत्त्वज्ञान मंदिर में प्रवेश लिया। उन पर लोकमान्य तिलक के विचारों का गहरा प्रभाव था। तिलक के गीता के भाष्य ‘गीता रहस्य’ में कर्म दर्शन पर बल दिया था और उसी को जीवन का सार बताया गया था। अमलनेर में उन्हें शिक्षकों का एक ऐसा समूह मिला जो समाज की वास्तविकताओं से परिचित था तथा आदर्शवादी भी था। साने ने इन अध्यापकों के साथ संपर्क बनाया तथा प्रताप हाईस्कूल अमलनेर में शिक्षक बन गए।

अध्यापक के रूप में साने विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त उदार एवं सरल थे। वे विद्यार्थियों में घुल-मिल गये। साने को विद्यार्थी ‘साने सर’ के नाम से जानने लगे। छात्रावास के विद्यार्थी अपने सामान को अस्त-व्यस्त रखते थे। साने गुरुजी ने शांत भाव से छात्रावास के विद्याथियों का सामान सलीके से रखना प्रारंभ कर दिया। जब छात्रों को इसकी सूचना मिली तो उन्हें खेद हुआ और उन्होंने अपनी आदत बदल दी। साने गुरुजी ने छात्रों में देशप्रेम एवं स्वदेशी की भावना जगायी। वे प्रातः उठकर छात्रावास पत्रिका छात्रों के लिए लिखते थे। उन्होंने छात्रों में खादी धारण करने की आदत डाली। साने गुरुजी ने विद्यार्थी नामक पत्रिका प्रकाशित करना प्रारंभ किया, जिसमें महात्मा गांधी की पत्रिका नवजीवन के गांधीजी द्वारा लिखित लेखों का प्रकाशन होता था।

पूर्ण स्वराज की घोषणा  

कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 31 दिसंबर 1929 को लाहौर में प्रारंभ हुआ। कांग्रेस ने पहली बार ‘पूर्ण स्वराज’ की घोषणा की  और कांग्रेस के युवा राष्ट्रपति पंडित नेहरू ने 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाने का ऐलान किया। साने गुरुजी ने भी 26 जनवरी को उत्तरी महाराष्ट्र के तहसील केंद्र अमलनेर में स्वतंत्रता दिवस मनाया। फिर, जब महात्मा गांधी ने डांडी यात्रा प्रारंभ की तो साने अपने को रोक नहीं सके। किंतु वे एक जिम्मेदार अध्यापक थे। सत्र समाप्त होने पर 29 अप्रैल 1930 को उन्होंने प्रताप हाईस्कूल से त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। उन्होंने खानदेश का दौरा और सादी एवं सरल भाषा में गांधीजी का संदेश गाँव-गाँव पहुंचाना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने अपनी बात में वजन पैदा करने के लिए मराठी भाषा के प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का भी सहारा लिया, जिनमें संत तुकाराम प्रमुख थे। वे लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के भाषाणों के उद्धरण भी सुनाया करते थे। उनके वक्तव्यों से जनता में पूर्ण स्वतंत्रता की भावना जोर पकड़ने लगी।

प्रथम कारावास   

देश की स्वतंत्रता के लिए उनमें एक प्रकार का दीवानापन आ गया था। उऩकी यह दशा देखकर जनता अत्यंत भावुक हो जाती। सैकड़ों लोग उनके चारों ओर एकत्र हो जाते थे। साने गुरुजी फटे कपड़े पहनते, भूखे पेट यात्रा करते। सत्याग्रहियों की उत्साहित भीड़ नारे लगाती तथा स्वाधीनता का उद्घोष करते उनके पीछे चलती। खानदेश के प्रशासन के लिए वे एक समस्या बन गए थे। 17 मई 1930 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 15 महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी तथा 200 रु. का जुर्माना किया गया। जुर्माना न देने पर उनकी सजा बढ़ा दी गई।

साने गुरुजी को पुणे जेल भेज दिया गया। जेल में उन्हें ‘बी’ श्रेणी के कैदी का दर्जा दिया गया किंतु उन्होंने ‘सी’ श्रेणी के आम कैदियों के साथ ही रहना पसंद किया। कविता मनुष्य की भावना की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। साने गुरुजी ने भी अपनी भावना की अभिव्यक्ति के लिए कविता का सहारा लिया। एक स्थान पर वे कहते हैं-

“स्वातंत्र्याचे आम्ही शिपाई

सुशबू प्रियतम भारत माई”

(हम स्वतंत्रता संघर्ष के सिपाही हैं। हम अपनी मातृभूमि को प्रसन्न देखना चाहते हैं)

इस कविता में साने गुरुजी ने स्वतंत्र भारत का भावनात्मक चित्रण किया है। वे एक ऐसे भारत का सपना देखते हैं जो शोषण से मुक्त हो तथा आत्म-गौरव से परिपूर्ण हो। वे ईश्वर से प्रार्थना करते थे, ‘प्रभु माझी जीवनबाग फुलब।’

कुछ समय के पश्चात साने गुरुजी को त्रिचिरापल्ली जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। त्रिचिरापल्ली मद्रास प्रेसीडेंसी का अंग था। उन्होंने वहां विविध भाषाओं का अध्ययन प्रारंभ किया। मराठी उनकी मातृभाषा थी। संस्कृत एवं अंग्रेजी का छात्र जीवन में उन्होंने अध्ययन किया था। जेल में उन्होंने हिंदी, गुजराती, बंगाली एवं तमिल का भी अध्ययन किया। साने गुरुजी महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी थे। राष्ट्रीय एकता के लिए गांधीजी के बताये रास्ते पर वे चले इसी कारण उन्होंने इतनी भाषाओं का अध्ययन किया। उन्होंने जेल की सफाई तथा पाखाना साफ करने का भी कार्य किया।

साने गुरुजी को गांधी-इर्विन समझौते के पश्चात देश के अन्य सत्याग्रहियों के साथ मुक्त कर दिया गया था। उनका जलगांव के समीप असोदे नामक स्थान पर अभिनंदन किया गया। समारोह में आचार्य विनोबा भावे भी उपस्थित थे। यहीं से बिनोवा जी एवं साने गुरुजी की मित्रता बढ़ी।

व्यक्तिगत सत्याग्रह – दूसरी गिरफ्तारी

साने गुरुजी ने एक बार फिर खानदेश का दौरा प्रारंभ किया। वे भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव के बलिदान से अत्यंत भावुक थे। उनके उत्तेजनापूर्ण दिल हिला देनेवाले भाषणों से लोग स्तब्ध रहते थे। उन्होंने घोषणा कि- ‘देश हाच माझा देव आहे’ (देश मेरे लिए ईश्वर के समान है)। बिलिंगडन ने व्यक्तिगत सत्याग्रह को निर्दयतापूर्वक कुचलने का मन बनाया। महात्मा गांधी, सरदार पटेल और पंडित नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया। खानदेश में साने गुरुजी ने निषेधाज्ञा तोड़ी। उन्हें दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा के लिए धुले जेल भेज दिया गया। राजनीतिक बंदियों से मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। इसी जेल में विनोबा जी भी थे। विनोबा जी ने गीता पर रविवार को प्रवचन देना प्रारंभ किया जिसे बाद में ‘गीता प्रवचन’ अथवा ‘गीताई’ के नाम से जाना गया। वे एक बार में एक अध्याय पर प्रवचन देते। ये प्रवचन सरल मराठी भाषा में होते, जिसे साधारण सत्याग्रही समझ लेते तथा साने गुरुजी लिपिबद्ध कर लेते।

साने गुरुजी को धुले जेल से नासिक जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। यहां उन्होंने अपनी अमर कृति श्याम ची आई (श्याम की मां) की रचना की। इस आत्मकथात्मक उपन्यास में उन्होंने अपनी मां का वर्णन किया था। उन्होंने रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाओं का मराठी में अनुवाद किया। उन्होंने अनेक कविताएं लिखीं, जिसमें ‘अश्रु’ को बहुत प्रसिद्धि मिली।

जेल से रिहा होने के पश्चात साने गुरुजी पुणे वापस लौटे। उन्होंने वहां छात्रावास में रहना पसंद किया। वे छात्रों के लिए भोजन बनाते थे। शेष समय वे लिखने में व्यतीत करते थे।

(बाकी हिस्सा कल)

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