अपने-अपने हिस्से का समाजवाद

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चित्र Daily O से साभार

— जयराम शुक्ल —

गांधी और समाजवाद ये दो ऐसे मसले हैं कि हर राजनीतिक दल अपने ब्रांडिंग के रैपर में चिपकाए रखना चाहता है। पर वास्तविकता यह है कि जैसे गांधी की तस्वीर वाले नोट की ताकत से सभी किस्म के धतकरम होते हैं और वैसे ही समाजवाद के नाम की ओट में भी।

हमारे यहाँ चलन है कि जिसे न मानना हो उसकी मूर्ति विराजकर पूजा-अर्चना शुरू कर दीजिए। गांधी के साथ भी ऐसा ही हुआ और समाजवाद के साथ भी। हरिशंकर परसाई ने किसी निबंध में लिखा है कि गीता की शपथ लेकर झूठ बोलने में ज्यादा सहूलियत होती है। शपथ खानेवाला यह मानकर चलता है कि उसके झूठ को सब सच ही मानेंगे क्योंकि उसने गीता की कसम खायी है।

आमतौर पर व्यवहार में भी यही देखा जाता है कि झुठ्ठा आदमी हर बात में कसमें खाता है। अपने यहाँ भाषणबाज चाहे मोहल्ले का हो या देश का, जनता को भरोसा दिलाने के लिए शपथ जरूर खाता है। लोकपरंपरा में शपथ की इतनी इज्जत थी कि तुलसीदास ने लिखा- प्राण जाय पर वचन जाई। चुनावों में राजनीतिक दलों  के घोषणापत्र भी इसी संकल्प के साथ जारी किए जाते हैं। जब लोकलाज ही खत्म हो गया तो फिर शपथ की बिसात ही क्या?

फिर भी गांधी और समाजवाद की कसमें खाने और शपथ लेने का दस्तूर जारी है। जब मंत्री या विधिक पद पर कोई आरूढ़ होता है तब वह मनसा-वाचा-कर्मणा  के साथ निष्ठापूर्वक संविधान के पालन की शपथ लेता है। संविधान में समाजवादी शब्द खासतौर पर टंकित है- लोकतांत्रिक समाजवादी गणराज्य।

संविधान की पोथी तैयार करते समय या तो बाबासाहेब आंबेडकर समाजवाद को भूल गए थे या फिर भविष्य में उसकी दुर्गति की कल्पना करते हुए अपने तईं उसकी इज्जत बख्श दी। दोनों में कुछ भी सही हो सकता है। इंदिरा गांधी ने जब देश में आपातकाल लगाया तो उन्हें समाजवाद की गहरी चिंता हुई। इसलिए 1976 में 42वाँ संशोधन लाया और समाजवाद को संवैधानिक शब्द बना दिया। वाह क्या कंट्रास्ट है आपातकाल और समाजवाद..!

गांधीजी को तो कांग्रेस बपौती ही मानती आई है पर उसके लिए समाजवाद शुरू में लफड़े का मुद्दा था। इसी लफड़े के चलते 1934 में कांग्रेस के भीतर ही काँग्रेस समाजवादी दल की स्थापना हुई। इसकी जरूरत क्यों आन पड़ी होगी चलिए इसपर कुछ मगजमारी करते हैं। समाजवाद का विलोम है व्यक्तिवाद। किसी व्यक्ति की जगह  समाज फैसला लेने लगे। यानी कि राज्य के किसी भी फैसले में समाज के आखिरी आदमी जिसे समाजवादी जनता जनार्दन, कम्युनिस्ट सर्वहारा और भाजपाई अंत्योदयी कहते हैं, की केंद्रीय भूमिका हो।

समाजवाद की अवधारणा भी लोकतंत्र की भाँति पश्चिम से आई है। कांग्रेस में सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-33) की विफलता के बाद काँग्रेस के भीतर ‘गांधी-नेहरू’ के कथित व्यक्तिवाद में घुट रहे मेधावी नेताओं जिनमें जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ.राममनोहर लोहिया, मीनू मसानी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता शामिल थे, ने पार्टी के भीतर ही समाजवाद की राह पकड़ी। बाद में यानी कि 1948 में विधिवत समाजवादी दल की स्थापना की। तब से आज तक समाजवादी दल अमीबा की तरह खंडित-विखंडित होते हुए नए डंडे और झंडे के साथ चलते चले आ रहे हैं।

लोकतंत्र और समाजवाद एक दूसरे के निमित्त वैसे ही परस्पर पूरक हैं जैसे शरीर और आत्मा। लेकिन यह सिद्धांत की बात है। और सिद्धांत कभी भी व्यवहार के धरातल में नहीं उतारा जाता। सिद्धांत राजनीतिक दलों की वैसी ही मजबूरी और जरूरी है जैसे करंसी में गाँधीजी की फोटो। राजनीतिक दलों को (जहाँ अब सुप्रीमो शब्द ने अध्यक्ष शब्द को कूड़े-करकट के ढेर में धकेल रखा है)

अपनी स्वेच्छाचारिता और मनमानी को ढकने के लिए सिद्धांत से शानदार मखमली खोल और क्या हो सकता है। और वह खोल यदि समाजवाद हो तो क्या कहना, इससे लोकतांत्रिक आस्था स्वयमेव प्रगटती है। 

(फिलहाल फासीवाद, तानाशाही, निरंकुशता, तुगलकशाही, नादिरशाही, खुमैनियन व तालीबानियन जैसे वादों और विचारों की लोकप्रतिष्ठा होने तक समाजवाद का लफ्जी-लवाजमा ढोते रहने की मजबूरी भी है)

साम्यवादी अपने आपको आदिसमाजवादी मानते आ रहे हैं इसलिए वे समाजवाद शब्द को ओढ़ने-बिछाने की बातें करने के धतकरम को गैरजरूरी मानते हैं। कांग्रेस गांधीवाद के भीतर ही इसे देखती आई है। फिर भी जनता गफलत में न रहे, इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के ऐलान के साथ संसद में संविधान संशोधन करके यह बताया कि काँग्रेस की रग-रग में समाजवाद है। यह बात अलग है कि 1977 में जिन्होंने श्रीमती गांधी को हराया और जेल भेजा वे भी खुद को समाजवाद के गर्भ से ही निकला हुआ बताते थे।

जब ये समाजवादी 1977 में सत्ता में आए तो तेरा-मेरा समाजवाद कहते हुए आपस में ऐसे गुत्थमगुत्था हुए कि ये फिर सड़क पर आ गए। आखिर जिंदा कौमें पाँच साल तक कैसे इंतजार कर सकती थीं, सो इन लोगों ने भी नहीं किया। किया तो लोहिया-जेपी-नरेंद्रदेव-कृपलानी ने भी नहीं था। सोपा, केएमपीपी, प्रसोपा, संसोपा ये सब पाँच साल के भीतर ही बनी-बिगड़ीं। और तब से लेकर आज तक समाजवाद के नाम पर कितने दल बने, बिगड़े, उजडे, टूटे-फूटे, बिखरे इसका भी कहीं न कहीं रिकार्ड होगा। चुनाव आयोग के दस्तावेज में तो होगा ही।

इन सब के बावजूद इस ध्रुवसत्य को सभी ने जाना कि सत्ता के सिंहासन तक पहुँचने के लिए समाजवाद से बेहतर शीघ्रगामी लिफ्ट और कोई नहीं हो सकती। अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी महिमा को संजीदगी से महसूस किया। सन 1980 में जनता पार्टी टूटी, वैसे ही जैसे इक दिल के टुकड़े हजार हुए कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा, तब जनसंघ भी तिड़क के बाहर आ गया। अटलजी ने जनसंघ को नए सिरे से गाँधीवादी समाजवाद में लपेटकर भारतीय जनता पार्टी का रूप दिया। अटल जी गलत नहीं निकले। 80 में 2 से शुरुआत की, आज उनकी भाजपा का शासन है। वह भी अच्छे-खासे बहुमत के साथ। आज मोदीजी की भाजपा के पास सबकुछ है- सत्ता भी, गांधी भी, समाजवाद भी।

वैसे समाजवाद पर सबकी अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं। ब्रिटिश राजनीतिशास्त्री हैराल्ड लॉस्की ने कभी समाजवाद को ऐसी टोपी कहा था जिसे कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है।

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  1. आदरणीय साथी जयराम शुक्ल के राजनीतिक व्यंग लेख ‘अपने अपने हिस्से का समाजवाद’ के अंतिम वाक्य में गलती से लास्की का नाम सी ई एम जोड की जगह लिखा गया है I समाजवाद के विषय में यह प्रसिद्ध कथन जोड का है I धन्यवाद I

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