गोवा मुक्ति आंदोलन का एक अध्याय – चंपा लिमये : तीसरी किस्त

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गोवा आजाद होने से पहले

(यह गोवा की आजादी की आजादी का साठवां साल है और गोवा क्रांति दिवस का पचहत्तरवां साल। एक और महत्त्वपूर्ण संयोग यह है कि यह मधु लिमये की जन्मशती का वर्ष भी है जिन्होंने गोवा मुक्ति में सत्याग्रही के अटूट साहस, तप और सहनशक्ति का परिचय दिया था। 18 जून 1946 को डॉ राममनोहर लोहिया ने गोवा मुक्ति आंदोलन आरंभ किया था। इस आंदोलन का दूसरा चरण 1954-55 का सत्याग्रह था जिसमें मधु लिमये की अग्रणी भूमिका रही। चंपा लिमये ने उन दिनों की कुछ झलकियां शब्दबद्ध की हैं। चंपा जी का यह लेख गोवा लिबरेशन मूवमेंट ऐंड मधु लिमये पुस्तक का हिस्सा है जिसका हिंदी अनुवाद रविवार साप्ताहिक में छपा था, शायद 1987-88 में। रविवार में प्रकाशित वही लेख यहां प्रस्तुत है।)

पंद्रह अगस्त के उस विशाल सत्याग्रह में असीम बलिदान हुए। देश के कोने-कोने से लोग आये थे। महाकाल कर्नालसिंह, हिरवे गुरुजी आदि लोग शहीद हुए। मैं पहली बार गोवा जा रही थी। बंबई से गोवा सीमांत तक मेरे साथ थे हमारे मित्र कामेरकर। कारवार से साथ हुए कॉन्सल श्री मणी के निजी सचिव श्री साठे और बंबई के एक व्यवसायी डॉक्टर नानजी। माजाली में भारतीय सीमा पार करके हमने ‘नो मैन्स लैंड’ में प्रवेश किया। लेकिन पुर्तगाली गोवा में कदम रखने की इजाजत किसी को नहीं मिली। वीसा-पासपोर्ट होने के बावजूद ऐसा अड़ंगा उन्होंने खड़ा कर दिया। श्री साठे तो अपनी नौकरी पर रिपोर्ट करने जा रहे थे और डॉक्टर नानजी एक कंपनी के निदेशक होने के नाते एक मीटिंग की अध्यक्षता करने जा रहे थे, इसलिए आखिर में उन दोनों को इजाजत मिल गयी। लेकिन मैं तो ठहरी एक सत्याग्रही की पत्नी। मतलब उनके कट्टर दुश्मन की बीवी। वे मुझे क्यों प्रवेश करने देते? सारी मेहनत पर पानी फिर गया।

निराशा के घने बादल छा गये। साठे जी बोले, ‘आप चिंता मत कीजिए, मैं कॉन्सल से बात करके आपकी सारी व्यवस्था करवाता हूं।’ ऐसा वचन देकर वे आगे बढ़े और मैं दुखी मन से माजाली कस्टम ऑफिस लौट आयी। उन लोगों ने अपने घर पर मेरे विश्राम का प्रबंध किया। शाम को वहां के चीफ कस्टम ऑफिसर पै साहब अपनी पत्नी के साथ आये। उन्होंने मुझसे कहा, ‘जब तक आपको इजाजत नहीं मिलती, आप हमारे घर को अपना घर समझकर यहां रहिए।’

कारवार में वह प्रशांत महासागर के किनारे का सौंदर्य, वह नीला अथाह दरिया, वह रमणीय वनश्री और मानवता का वह उदात्त दर्शन- इस सब से मेरे मन की उदासी कुछ कम हुई। कुछ ताजगी आयी। दूसरे दिन सुबह पणजी से कॉन्सल का आदमी मेरे लिए खास गाड़ी लेकर आया।

सबसे बिदा लेकर मैंने गोवा की सीमा में प्रवेश किया। भारतीय सीमा में मेरे सामान की जांच नाम मात्र को हुई थी, लेकिन यहां हर चीज की जांच बारीकी से होने लगी।

गोवा में भारतीय समाचार-पत्रों पर पाबंदी थी। मेरे बिस्तरबंद में चप्पलों पर लिपटा हुआ अखबार का एक छोटा-सा टुकड़ा उनको मिला, तो वे बड़े खुश हुए। ‘जितं मया’ सोचकर उन्होंने जोर से ललकारा। असल में उसमें गोवा की कोई खबर तो थी नहीं, मेरे साथ कम्युनिस्ट पार्टी पर लिखी कुछ आलोचनात्मक किताबें थीं, लेकिन उनके लिए ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ वाली स्थिति  थी।

बमुश्किल तमाम किताबों के नाम पढ़कर वे महापंडित (?) क्या निर्णय लेते? उन्हें लगा, जैसे जिंदा बम का भयंकर सामान उन्हें मिल गया है। इसपर फैसला करने के लिए वे लोग मेरी गाड़ी में बैठे। पहले तो ‘हयो तुजो बुर्गो काय गो? (क्या यह तेरा बेटा है)’ अनिरुद्ध का फोटो देखकर कोंकणी बोली में उन्होंने हंसते-हंसते पूछा था। लेकिन अब उनका मिजाज गरम होने लगा था। इस घोर अपराध के लिए कौन-सी सजा देनी होगी, इसकी चर्चा वे गाड़ी में कर रहे थे। सीमा के अंदर दस मील की दूरी पर ‘काण कोण’ गांव में हमारी गाड़ी पहुंची। पुलिस स्टेशन के सामने गाड़ी रुकते ही सैकड़ों सैनिकों ने हमें घेर लिया। अंदर वायरलेस पर पणजी मुख्यालय से संपर्क स्थापित करके वे मेरे अपराध की गंभीरता समझा रहे थे, इसलिए बड़े जोर-जोर से बात कर रहे थे।

कंसुलेट ने जिस विश्वासपात्र आदमी को भेजा था, वह एक मुसलिम युवक था। मैंने उससे पूछा, उसका विचार क्या है? वह भी चिंतित था, लेकिन मुझे हिम्मत दिलाने के लिए उसने कहा, ‘शायद किताबें जब्त करके वे आपको जाने देंगे। कंसुलेट आपकी कितनी इज्जत करते हैं इसका उनको पता है।’ लगभग आधे घंटे बाद हमारी गाड़ी को आगे बढ़ने की इजाजत मिली।

जब मन पर से चिंता का बोझ हट गया, तब गोवा की प्रकृति की सुंदरता मुझे दिखायी दी। जैसे आंखों के सामने से कोई परदा हट गया। हरी-भरी मखमली कालीन की तरफ और नीली चमचमाती मणिमेखला की तरफ अब मेरा ध्यान गया। नारियल के पेड़ों के पत्ते धीमे पवन से डोल रहे थे। बारिश के बीच-बीच में सूरज की सुनहली रोशनी से सारा प्राकृतिक सौंदर्य दमक उठा था।

कंसुलेट पहुंचते ही श्री मणी ने प्यार भरा स्वागत किया और तुरंत गवर्नर जनरल तथा पुलिस कमिश्नर से फोन पर संपर्क स्थापित करके मधु जी के साथ मेरी भेंट का समय निर्धारित करवा दिया। हाथ में सुगंधी फूलों का उपायन लेकर कार्तेल पर मैं उऩकी प्रतीक्षा कर रही थी। पुलिस कमिश्नर अंतोनियस मुझसे कह रहे थे, ‘उन्हें पता नहीं, मैंने उन्हें क्यों बुलाया है। वे सोचेंगे, शायद किसी खास जांच-पड़ताल के लिए बुलाया है।’ हाथ से वे पीटने का अभिनय कर रहे थे।

प्रतीक्षा का हर क्षण युगों जैसा बीता। पाशवी पिटाई के बाद की यह मुलाकात पुनर्जन्म के बाद होनेवाली भेंट की तरह लगी। उसका स्वर्गिक आनंद भला कौन भूल सकता है? आंखें आंसुओं से भर आयीं। मैं उनका चेहरा भी ठीक तरह से नहीं देख पायी। हृदय भावावेग से ओत-प्रोत था। इसलिए होंठों से शब्द निकलना मुश्किल हो गये।

दूसरे दिन सुबह मैं कार्तेल पर गयी। थोड़ी ही देर में मधु जी को इंटरव्यू के लिए ले आये। कई विदेशी पत्रकार, संवाददाता वहां इकट्ठा हो गये। वे मधु जी का और मेरा इंटरव्यू लेना चाहते थे। मधु जी ने उनसे कहा, “देखिए, मैं अभी आजाद नागरिक नहीं हूं। रिहाई के बाद मैं आपको इंटरव्यू दूंगा। कई सवालों पर मेरी क्या राय है, यह तब बता सकूंगा।”

वे हम दोनों का फोटो खींचना चाहते थे, उसके लिए भी मधु जी ने मना कर दिया। अभी तक उनके घावों की पपड़ी भी नहीं निकली थी। हमेशा दाढ़ी बनाया हुआ उनका साफ-सुथरा, प्रसन्न, तेजस्वी चेहरा वेदनाओं से सूखा हुआ, कुम्हलाया हुआ लगा। उनकी मूंछें देखने का तो यह पहला ही मौका था।

आखिर दिन उनसे मुलाकात करने मैं अल्तीन जेल गयी। उनकी सेल और जेल देखना मेरा उद्देश्य था। सुबह पुलिस अफसर अंतोनियस जीप से मुझे ले गये थे। दूसरे दिन मैं बंबई वापस जानेवाली थी। इसलिए दोपहर फिर मुझे मुलाकात के लिए जेल ले जाने का वायदा अंतोनियस ने किया। एक ही दिन में दो बार भेंट अचरज की बात थी। दोपहर मैं जब कार्तेल पर पहुंची, तब अंतोनियस शराब के नशे में मदहोश थे। झूमते हुए उन्होंने जीप निकाली। साथ में दो-चार सार्जेन्ट्स थे। गाड़ी दूसरे ही रास्ते पर चल पड़ी। घने जंगल में मैं चौंक उठी। मैंने उनसे पूछा, ‘कहां चल रहे हैं? क्या सुबह का रास्ता बदल दिया?’

अंतोनियस बोले, ‘आपको गोवा दिखाने ले जा रहे हैं। देखिए गोवा कितना सुंदर है!’ ‘कॉन्सल ने मुझे गोवा के दर्शनीय स्थान दिखा दिये हैं’, मैंने कहा कॉन्सल मणी मुझे कई प्रसिद्ध मंदिर तथा गिरजाघर दिखाने ले गये थे। कई देशभक्तों के परिवारों से मिला चुके थे। इधर अंतोनियस मुझसे कह रहे थे, ‘शॉपिंग के लिए चलिए गोवा फ्री पोर्ट है।’ ‘जी नहीं, मुझे तो कुछ खरीदना नहीं है’, मैंने जवाब दिया। इसपर उन्होंने मुझसे अनुरोध किया, ‘चलिए, हम कुछ ड्रिंक्स वगैरह ले लें।’ मैं बोली, ‘देखिए आप मुझे जेल पर ले चलिए या वापस चलिए, मेरे पति जेल में हैं इसलिए मुझे इन बातों में रस नहीं है और वैसे तो मैं शराब पीती नहीं।’

इतने में उन्होंने गाड़ी मोड़ दी और सीधे जेल पर ले गये। लेकिन वह घटना मेरे मनसपटल से कभी मिट नहीं सकती। सूनसान जंगल था। साथ में तीन-चार पुर्तगाली सिपाही, मैं अकेली। परंतु भगवान बचाना चाहते हैं, तो प्राणी किसी भी अवस्था में बच सकता है। इधर अंतोनियस बोले, ‘मैं आपको शाम को आकर ले जाऊंगा।’ मैंने उनको धन्यवाद देकर मना कर दिया। सोचा कि जहर की परीक्षा कौन ले? बाद में मुझे पता चला कि अंतोनियस बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे।

(कल चौथी किस्त)

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